संगीत, गज़ल, पढ़नेलिखने
और शतरंज का शौक रखनेवाले, जयपुर के शिवि ग्राफिक कैमिकल
के व्यवसाय में संलग्न हैं।
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यह
घटना काफी पुरानी है, मैं पाँचवी क्लास में पढ़ता था।
मेरी उमर 9 साल की रही होगी। दीवाली के दिन पिताजी ने एक
एक के नोटों की एक गड्डी दी और कहा, " इन्हें जरा गिन कर
बताओ कि वो पूरे 100 नोट हैं या नहीं।" मैंने नोट
गिने और उनकी आँख बचाते हुए एक नोट अपनी जेब में डाल
लिया। उन्होंने पूछा, "नोट पूरे हैं ?"
मैंने कहा, "हाँ
पूरे हैं।" उन्होंने एक बार फिर
से पूछा, "नोट पूरे हैं?" "हाँ पूरे
हैं।" मेरा जवाब वही था।
फिर उन्होंने मेरी कमीज के आगे की
जेब की तरफ इशारा कर के पूछा, "यह नोट कहाँ से आया?
" मेरे तो काटो तो खून नहीं। जल्दबाज़ी में मैं नोट
को अच्छी तरह छुपा नहीं पाया था और मेरी चोरी रंगे हाथों पकड़ी
गयी थी। मेरी खूब जोर से पिटाई हुयी और उन्होंने सीख
दी, "अमानत के खयानत जिंदगी में कभी नहीं करना, चोरी
कभी नहीं करना।" वो सीख और वो मार आज मेरे लिये
जिन्दगी का एक आदर्श बन गयी है। आज मैं 35 साल
का हूँ और आज भी दीवाली वाले दिन की यह घटना मुझे प्रत्यक्ष सामने
नज़र आती है।
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दीपिका जोशी
कुवैत में रहने
वाली हिन्दी और मराठी की लेखिका दीपिका जोशी अभिव्यक्ति और
अनुभूति परिवार की सदस्य हैं।
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बात
बाइस साल पुरानी है, उस समय की झुंझलाहट याद करती हूँ तो आज की घड़ी में हँसीं बन जाती हैं।
शादी के बाद जब मैं पहली बार माँ बननेवाली थीं तो रीति के
अनुसार मायके गयी थी। दशहरे के बाद दीवली का मौसम
था। घर घर में चहल पहल थी। हमारे घर में दीवाली की
तैयारियाँ शुरू हो गयी। मेरी ऐसी हालत थी कि कभी भी अस्पताल जाना पड़
जाये लेकिन हर साल की तरह सारे रिश्तेदारों को खानेकी दावत तो देनी
ही थीं। माँ जरा ज्यादा चिंता में थीं।
दीवाली में हर बात का जरा ज्यादा ही उत्साह रहता है। पचीसतीस लोगों के खाने की तैयारी शुरू तो हो गयी लेकिन मेरा सहभाग बहुत ही कम था।
छब्बीस अक्तूबर
की रात से ही आसार कुछ सही नज़र नहीं आ रहे थे। आशंका के साथ बनाया गया प्रोग्राम असफल होने का अंदेशा था। सुबह खाना बनाने की जल्दी और मेरी
अस्पताल में भागने का समय . . . . दोनों टकरा ही गये।
खाना तो एक तरफ रह गया, घरमें आमंत्रित रिश्तेदारों को खाना तो नहीं मिल पाया लेकिन मुझे जुड़वाँ बेटे होने की खुशखबरी के साथ मिठाई से
मुँह
जरूर मिठा किया गया था।
घर जो भी आये वो ऐसी मीठी खबर से तो खाना खाना भूल ही गये थे।
सीधे अस्पताल में मुझे और मेरे बेटों से मिलने आये। भीड़ कैसी हो गयी थी, यह मैं
बयान नहीं कर सकती। सबकी बधाइयों से और दुआओं से मेरी भी दीवाली की खुशी दुगुनी हो गयी थीं।
'कैसा था खाना '79 अक्तूबर की दीवाली का?' ऐसे एक दूसरे से पूछकर आज भी हम उस दीवाली को हर दीवाली में याद करते हैं। कैसे कोई भूल सकता है ऐसी
दीवाली को . . . . . |