देहरादून, भारत
के तेजिन्दर सिंह सेठी का भवन निर्माण का स्वतंत्र व्यवसाय है। |
विभाजन
के पश्चात, मेरे बुज़ुर्ग पाकिस्तान से सीधा कानपुर में आकर
व्यापार करने लगे थे।हम पंजाबी लोग स्वतंत्रता से अधिक विभाजन
शब्द का प्रयोग करना पसंद करते हैं अपनी शब्दावली में। वहाँ
शेखुपुरा (पाकिस्तान) में भी मुख्यतः वस्त्रों का व्यापार था, यहाँ
भी ऐसा ही किया। मेरे पिता ने 1969 में एक ग्लूकोज फैक्टरी किन्हीं
संगीसाथियों के साथ खोली। पर वह चल ना सकी एवं बहुत
नुकसान हुआ। पिताजी का मन बहुत ही उदास रहने लगा। वापस वस्त्र
मंडी में हारा हुआ
मुँह दिखाने के बजाय उन्होंने किसी नये क्षेत्र
में उतरने की सोची। मेरे मौसा उस समय लखनऊ में एम इ एस की
ठेकेदारी करते थे और काफी सम्पन्न थे। मेरे पिता ने लखनऊ में
ठेकेदारी में किस्मत आजमाने की ठानी।
हम लागों को वह कानपुर में (हमारा संयुक्त परिवार था तब दादा
दादी एवं चाचा चाची बुआ सब लोग साथ साथ रहते थे) छोड़ कर
खुद लखनऊ आ गये, सन
1970 में। जब कुछ मामला जमने लगा और अकेले कुछ दिक्कतों का
सामना किया तो 1972 में पिताजी हम सब लोगों को लखनऊ ले
आये। मेरी अवस्था उस समय लगभग 8 साल की थी। मेरा भाई मेरे
से करीब 2 साल छोटा और बहन करीब 8 साल छोटी थी(उस समय
ढ़ाई महीने की थी) एक साल बीत गया और दीवाली आ गयी।
कानपुर में रहते थे तो सब लोग
एकठ्ठा होकर दीवाली मनाते थे। इसमें चाचा, चाची, बुआ और
यहाँ तक की पिताजी के ताऊ, चाचाजी भी इकठ्ठा होकर हर त्योहार
मनाते थे। सब लोग पासपास ही रहते थे स्वरूप नगर में। इस
बार की दीवाली बहुत अकेली थी हमारे लिये और अजीब भी। कानपुर
में हम लोगों के पास कोई बेशुमार दौलत तो नहीं थी पर
संयुक्त परिवार होने के कारण कभी ऐसा अहसास नहीं हुआ था!
बच्चों को दीवाली का मतलब खास करके लड़कों को तो पटाखे
आतिशबाज़ी के अलावा क्या सूझेगा भला। हम दोनो भाई सवेरे
से ही पिताजी के पीछे पड़े थे।
हम लोगों के पास कार नहीं थीं। मौसा के पास कार थी। पिताजी
मौसा के साथ जाकर कुछ पटाखे हमारे लिये भी ले आये। पर हम
दोनों भाइयों ने जब पटाखों
की मात्रा देखी तो मौसा जो पटाखे लाये थे वह तो हमारे पटाखों
से कुछ नहीं तो 15 गुना ज्यादा थे। हम पर तो जैसे तुषार पात
हो गया दिन दहाड़े! मेरे मौसेरे भाई बहन तो उन पटाखों से
भी संतुष्ट नहीं थे। और पटाखों की माँग कर रहे थे।
हमने पिताजी के आगे तो खैर क्या
बोलना था (हिम्मत नहीं हुआ करती थी उन दिनों) अपनी माँ के
आगे खूब करूण स्वर में अपनी व्यथा सुनायी। आखिरकार पिताजी को
उन्होंने कहा। पिताजी ने कहा की 10 15 रूपये के पटाखे ले दिये अब
और इससे अधिक क्या तुक है खर्च करने का? अभी हमारा नयानया
काम है। किसी दूसरे की नकल नहीं करनी चाहिये। पर हम लोगों के
तो शौक का पारावार नहीं था। जैसे दुनिया ही लुट गयी थीं
हमारी। रूलाई फूटी थी बार बार। अब एक मज़बूर बाप यह भी तो
नहीं कह सकता था कि भाई मेरे पास तुम्हारे मौसा जितना पैसा
नहीं आया अभी!
आखिरकार मरता क्या न करता वाली बात हुयी। हम दोनों वेस्पा स्कूटर
पर पिताजी के पीछे सवार हुये और
पहूँच गये अमीनाबाद। वहाँ
प्रकाश की कुल्फी की मशहूर दुकान के सामने ही पटाखों, खिलौनों
आदि का बाज़ार लगता था उन दिनों। अभी स्टैंड पर स्कूटर खड़ा ही
किया था कि एक छोटा
सा लड़का हम दोनों जैसी उम्र का मैले
कुचले कपड़े पहने हुए आया और हमारे स्कूटर पर एक फटा पुराना
चिथड़ा लेकर सफाई करने लगा। उस लड़के को पहले कुछ लोगों
से दुत्कार मिल चुकी थी ऐसा प्रतीत होता था। पिताजी ने उसको कुछ
न कहा बल्कि अपनी जेब से 1015 (अब तो 10 और 5 पैसे के सिक्के
ही दुर्लभ हैं) पैसे देकर कहा," ले लो बेटा जाकर कुछ खा
लो।"
अब पिताजी हमारी तरफ मुखातिब हुये और कहा, "तुमने देखा कि
वह लड़का 10 15 पैसे के लिये दीवाली के दिन भी काम कर रहा
था! क्या तुम्हारी हालत इससे बहुत बेहतर नहीं? तुम्हारे पास देखो
अच्छे कपड़े हैं पहनने को, अच्छे माँ बाप हैं जो तुमको कोई
तकलीफ नहीं सहने देते, अच्छे स्कूल में पढ़ते हो, और तुमको क्या
चाहिये।
खैर पटाखे लेने आये थे और थोड़े बहुत लिये भी। मैं ऐसा भी
बहुत नहीं बोलूँगा कि मेरा कोई हृदयपरिवर्तन हो गया पर
इतना कह सकता
हूँ कि उसके बाद बहुत सी दीवालियाँ आयी पर वह
दीवाली नहीं भूलती। उस लड़के का स्कूटर को कपड़े से साफ करना
आज भी मानस पटल पर स्पष्ट अंकित हैं! 10 15 पैसे पाकर उसकी
खुशी भी बहुत ही विचित्र जान पड़ी थी उस दिन। पिताजी का उस
लड़के का उदाहरण देना भी उस दिन कोई बहुत अच्छा तो नहीं लगा
था पर यह बात समझ आ गयी थी कि बात में कुछ वज़न है!
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झांसी
भारत के नीरज शुक्ला अमर उजाला में अधिशासी हैं। लिखने में उनकी
रूचि है। अनुभूति में उनकी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं। |
यह आज से चार साल पहले की दीपावली की बात है। हमारे शहर और आसपास आवाज वाली आतिशबाजी का अवैध रूप से काफी मात्रा में निर्माण होता है। उस
दीपावली की पूर्व संध्या पर मैं सामान्य की तरह अपने आफिस में कार्यरत, समाचार निपटा रहा था, अचानक पुलिस कंट्रोल रूम से सूचना मिली कि एक आतिशबाजी
कारखाने में विस्फोट हो गया है और काफी तबाही हो गई। हम लोग कवरेज के लिए टीम के साथ वहां पहुंचे तो करीब दो घंटे तक बारूद के धमाके और धुएं के
कारण गोदाम के अंदर भी नहीं घुस पाए। फायर ब्रिगेड़ा की कई गाड़ियों ने किसी तरह से आग और धमाकों पर काबू पाया।
अंदर जाकर हमने जो मंजर देखा वो काफी हौलनाक था। कई लाशें जली हुई और क्षतविक्षत अवस्था में फैली हुई थीं। इनमें से कई महिलाएं व बच्चे भी थें। लाशों की हालत और परिजनों का करूण
क्रंदन ऐसा था कि शायद पत्थर भी अपने आंसू न रोक पाये होंगे। किसी तरह हम अपने पर काबू कर वहां से निकले। बाद में दूसरे दिन पता चला कुल 22 मौतें
हुई थीं। इनमें से 6 महिलाएं व बच्चे भी थे। एक दुधमुंहा भी इस हादसे में मारा गया। दीपावली की वह रात और करूण क्रंदन मैं जीवन में कभी नहीं भूल
सकता।
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गुजरात, भारत की
आस्था इन्टरनेट साफ्टवेयर के व्यवसाय में हैं। लिखने पढ़ने
चित्रकला और संगीत में आपकी रूचि है। |
मेरे पति काम के सिलसिले में एक महीने के लिये
योरोप गये हुये थे।रोज़ हम फोन और इंटरनेट पर आइ सी क्यू
में बात करते थे।इस तरह जुदाई का समय किस तरह कट जाता था पता
ही नहीं चलता था। महीने के अन्त में दिवाली थी और तब तक
इन्हें वापस आ जाना था।
अचानक पता चला कि उन्हें काम के सिलसिले में कुछ
दिन ज्यादा रूकना पड़ेगा। मेरा मन उदास हो गया, पर कैसे भी
मन को मना लिया और साथ साथ में उनसे कहा कि अगर हो सके
तो जल्दी काम निपटा लें ताकि दिवाली हम साथ मना पायें।
जैसे जैसे दिवाली करीब आने लगी, उनकी कमी बहुत अखरने
लगी।दिवाली के तीन चार दिन पहले उन्होंने बताया
कि काम के सिलसिले में उन्हें बाहर जाना पड़ेगा और एक दो दिन के लिये हमारा कोई भी
संपर्क नहीं हो पायेगा। मेरा मन और भी उदास हो गया। एक तो
दिवाली के दिन वो खुद
नहीं थे और अब बात
करके भी दूरी मिटाने का रास्ता भी नहीं रहा।
दिवाली के दिन अचानक पति महोदय का फोन
आया, "एरपोर्ट पर लेने आओ मैं पहुँच गया हूँ।" मुझे तो
विश्वास ही नहीं हो रहा था मैं ने बारबार पूछा आप मजाक तो
नहीं कर रहे ना? उन्होंने कहा तुम खुद आकर अपनी आंखों से देख
लो। जब मैं एयरपोर्ट पहुँची तो उन्हें सामने खड़ा पाया। मुझे
अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। मैंरे पैर
ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। दिवाली अकेले मनानी पड़ेगी यह ग़म
कोसों दूर भाग गया था। इस तरह उस दिवाली पर उन्होंने मुझे आश्चर्यचकित कर के रख
दिया।हम ने हंसी खुशी साथ साथ दिवाली मनायी।
आज भी हर साल दिवाली पर हम उस दिवाली के अनमोल क्षण को याद करते हैं।
वह दिवाली मैं कभी नहीं भूल सकती।
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