मेरी
यादों के पयाले में भरो फिर कोई मय
प्रो. कुँवर
पाल सिंह
राही
जब अलीगढ़ आए, तब उनका नाम मशहूर शायरों में गिना जाता
था। वे बहुत दोस्ती पसन्द इन्सान थे। मैंने अपने पूरे
युनिवर्सिटी जीवन में उन्हें अकेले नहीं देखा। उन
दिनों राही अपने बड़े भाई मूनिस रज़ा के साथ वाली
मन्जिल में रहते थे। विभाग से घर तक की खासी दूरी थी
पर किसी मुद्दे पर बहस होती रहती और राह तय होती रहती।
राही
की सबसे बड़ी बात थी उसका बेबाक होना। सबसे बड़ी बात
इसे मैं इस वज़ह से मानता हूँ कि इस जमाने में बहुत ही
कम लोग हैं जो साफ और खुलकर कहते हैं। इसमें वह अपने
दोस्त, परिवार की भी चिन्ता नहीं करते थे कि यह बात
किसे पसन्द किसे नापसन्द। लोग उन्हें उर्दू का बायरन
कहा करते थे। उनके शेर हर दिल अज़ीज हुआ करते थे। उनकी
गज़लों ने एक लम्बे अर्से तक लोगों में एकाधिकार-सा
कायम कर दिया था।
अजनबी शहर में अजनबी रास्ते,
मेरी तनहाइयों पर मुसकराते रहे।
मैं बहुत देर तक यूँ ही चलता रहा,
तुम बहुत देर तक याद आते रहे।
जख्म जब भी कोई मेरे दिल पर लगा,
जिन्दगी की तरफ एक दरीबा खुला
हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं,
चोट खाते रहे, गुनगुनाते रहे।
जब
वो इस गज़ल को तरन्नुम में गाते थे तो बार-बार इसी को
गाने की फरमाइश होती थी और लोग बँध जाते थे। राही
किशोरावस्था से ही वामपंथी विचार-धारा के समर्थक थे वे
एक प्रगतिशील कवि के रूप में जाने जाते थे। १९५७ में
उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ
स्टूडेन्ट फेडरेशन से सक्रिय रूप में जुड़ गए। बड़ा
मजबूत संगठन था उन दिनों यह। विचारों में पैनापन व धार
उनमें बचपन से ही थी। १९५५ में लिखी एक गज़ल के शब्द
याद आ रहे हैं --
क्योंकि ज़िन्दगी मेरी, जेहद की अलामत है
इन्किलाबे-फर्दा की एक बड़ी अमानत है।
राही
से मेरी पहली मुलाकात एक स्टूडेण्ट मीटिंग में हुई। उन
दिनों वे सांस्कृतिक फ्रंट के इंचार्ज थे और गायन एवं
ड्रामा की टीम तैयार कर रहे थे। उनके साथ हकीम महबूब
आलम, खालिद सुल्तान, बाकर मुस्तफा जैसे रंगकर्मी जुड़े
थे। मैं भी टीम का सहयोगी हो गया। इस फ्रंट का मुख्य
उद्देश्य नाटक और काव्य के माध्यम से संकीर्णता,
कुरीतियों, अन्धविश्वासों और अन्याय के विरुद्ध लोगों
को जागृत करना था और राजनीतिक बातें भी इस माध्यम से
की जा सकती थीं। आज
भी मैं यही मानता हूँ कि सांस्कृतिक जड़ता तोड़े बिना
प्रगतिशील राजनीति करना असम्भव है। हिन्दी क्षेत्र अब
जिस संस्कृति और जड़ता का शिकार है इस स्थिति में तो
यहाँ प्रतिक्रियावादी राजनीति ही सक्रिय होगी। इसका
विरोध सांस्कृतिक स्तर पर किया जाना चाहिए। हम लोगों
की गोष्ठियाँ शाम को जावेद कमाल की कैन्टीन पर जमती
थीं।
जावेद कमाल स्वयं भी उर्दू के समर्थ कवि और व्यक्ति
थे। वे उर्दू में एम.ए. करने के बाद कैन्टीन चला रहे
थे। युनिवर्सिटी के सारे साहित्यकार, रंगकर्मी,
राजनीतिक आदि सब जावेद कमाल की कैन्टीन पर इकठ्ठे होते
थे। यहाँ पर साहित्य, कला, देश-विदेश की राजनीति,
युनिवर्सिटी का घटना चक्र, व्यक्ति, समाज और स्केण्डल
भी मुख्य चर्चा में होते थे। अध्यापक और छात्र दोनों
का संध्या की इन गोष्ठियों में बराबर का दर्जा होता
था। राही
जहाँ रहें प्रमुख आकर्षण न रहे यह असम्भव था।
साहित्यकारों में खलील-उर-रहमान आजमी, शहरयार तो बराबर
रहते थे, कभी-कभी जज्बी साहब, वामिक जौनपुरी, डॉ.
मुनीबुर रहमान जैसे प्रसिद्ध शायर भी शामिल होते थे।
यह क्रम सन १९६५ तक जारी रहा क्योंकि सन १९६६ में राही
बम्बई चले गए और ये गोष्ठियाँ भी इतिहास बन गईं।
इन्हें हम लोगों ने गप गोष्ठियाओं का नाम दिया था।
सन
१९६२ में मैंने राही से एक दिन फिर बड़ी गम्भीरता से
कहा कि कब तक आप गुमनाम उपन्यास लिखते रहेंगे, क्यों
नहीं एक गम्भीर उपन्यास लिखते? आपके पास जो भाषा-शैली
है, उसका उपयोग क्यों नहीं एक श्रेष्ठ रचना के लिए
करते? उन्होंने कहा -- यार के. पी. छापेगा कौन? उर्दू
में तो छापने से रहा कोई? मैंने कहा -- लिखिए तो सही
कहीं न कहीं छप जाएगा। और इस प्रकार "आधा गाँव" का
लेखन धीरे-धीरे आरम्भ हुआ।
जितना हिस्सा लिखते थे, हफ्ते में एक दिन जावेद कमाल
की कैन्टीन पर शाम को मित्र मण्डली के बीच सुनाते थे।
उस पर बहस होती थी भाषा-पात्र और घटनाओं आदि पर। राही
बड़े गौर से सवालों को सुनते थे और हर सवाल का उत्तर
देते थे और जो गम्भीर सवाल थे जिनके उस समय उत्तर नहीं
थे, उन्हें राही नोट कर लिया करते थे और बाद में विचार
करके आवश्यक संशोधन और सुधार भी करते थे। यह क्रम दो
साल तक चलता रहा। इस तरह "आधा गाँव" सन १९६४ के अन्त
में पूरा हो गया।
'आधा
गाँव' के लेखन के बीच में कई दिलचस्प प्रसंग हुए। इस
बीच मैं भी वाली मन्जिल में राही साहब के साथ रहने लगा
था। फुन्नन मियाँ इस उपन्यास के बहुत सशक्त पात्र हैं।
हिन्दी उपन्यास में ऐसे पात्र स्वतंत्रता के बाद कम ही
देखने को मिलते हैं, उपन्यास में फुन्नन मियाँ की मौत
पर मेरे और राही के बीच काफी मतभेद रहे। मेरी राय थी
कि फुन्नन मियाँ को मरना नहीं चाहिये और राही कहते थे
कि फुन्नन मियाँ की भूमिका समाप्त हो गई और कहानी की
माँग के अनुसार आप फुन्नन मियाँ को जीवित नहीं रख
सकते। बहस करते-करते हम लोगों में झगड़ा हुआ और तीन
दिन तक एक शब्द न लिखा गया और न हम लोगों ने कोई
बातचीत की।
चौथे
दिन बैठकर समझौता वार्ता हुई। राही ने कहा फुन्नन
मियाँ से मुझे भी बहुत लगाव है। अब तुम ही ये बताओ
इन्हें कैसे जीवित रखा जा सकता है। मैं निरूत्तर हो
गया और कहानी आगे बढ़ी। फुन्नन ही थे, जिन्होंने
स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति में महीन
साम्प्रदायिकता की ओर इंगित किया था। कांग्रेस के एक
मंत्री १९४२ के शहीदों का स्मारक बनवाने की घोषणा करते
हैं और सभी शहीदों का नाम लेते हैं, लेकिन जब अब्बास
का (जो उसी स्थान पर पुलिस की गोली का शिकार हुआ था)
कोई वक्ता नाम नहीं लेता है तो फुन्नन मियाँ
आश्चर्यचकित रह जाते हैं और यकायक जोर से कहते हैं -
यहाँ तो हमारे अब्बास भी मरे थे।'
दूसरा विवाद हम लोगों के बीच "आधा गाँव" में प्रयुक्त
गालियों को लेकर रहा। पाठक जानते हैं कि बिगड़े हुए
जमींदार किस प्रकार गालियाँ देते हैं। वे इसमें मूल
रूप में मौजूद हैं। पूरे लेखन के दौरान इस पर बार-बार
विवाद रहा कि क्या गालियाँ कथानक का हिस्सा हैं। इस
बहस का यह नतीजा हुआ कि जहाँ कहीं भी अनावश्यक गालियों
का प्रयोग है वे दूसरे ड्राफ्ट में घटा दी गईं। मैं आज
महसूस करता हूँ कि ये गालियाँ कथानक का आवश्यक अंग
हैं। ये पात्रों को अधिक प्रभावित और सार्थक बनाती
हैं। जिनका जीवन स्वयं एक घटिया गाली से अधिक नहीं
हैं, ऐसे पोंगा पण्डितों ने जोधपूर विश्वविद्यालय से
'आधा गाँव' के विरुद्ध मिथ्या प्रचार करके इस उपन्यास
को अश्लील सिद्ध करने का असफल प्रयास किया।
वास्तव में, यह अपनी अश्लील राजनीति को छिपाने का
तिलस्मी तरीका था। "आधा गाँव" का कुछ हिस्सा फारसी
लिपि से मैंने और राही ने देवनागरी लिपि में करके,
प्रयोग के तौर पर उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका
"ज्ञानोदय" में भेज दिया। यह अंश सम्पादक को बहुत
पसन्द आया, उन्होंने ज्ञानोदय में १९६५ के आरम्भ में
इसे प्रमुखता से छापा। इससे राही बहुत उत्साहित हुए।
उर्दू से इसका पूरा लिप्यांतर किया गया। अप्रैल १९६५
में कमलेश्वर अलीगढ़ आए थे। मैंने कमलेश्वर जी से कहा
कि "राही ने बहुत अच्छा उपन्यास लिखा है। एकदम अनूठा,
हिन्दी में इस विषय-वस्तु पर अब तक कोई उपन्यास नहीं
है। भाषा और शिल्प की दृष्टि से भी अद्भूत है। हिन्दी
के पाठकों को पसन्द आएगा।"
कमलेश्वर ने कुछ अंश सुने। राही से बात की और उसी दिन
पांडुलिपि लेकर दिल्ली चले गए। सन १९६६ में अक्षर
प्रकाशन से यह उपन्यास प्रकाशित हुआ। हिन्दी के पाठकों
और अध्यापकों ने इसका भरपूर स्वागत किया। प्रमुख
पत्र-पत्रिकाओं में इसकी व्यापक चर्चा हुई। एक साल में
राही हिन्दी के प्रमुख उपन्यासकार बन गए। प्रकाशकों की
राजनीति के कारण इसे साहित्य अकादमी का पुरस्कार नहीं
मिला, परन्तु निर्विवाद रूप से हिन्दी के दस
सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में "आधा गाँव" एक है।
सन
१९६५ की एक दिलचस्प घटना का जिक्र करना राही को समझने
के लिए आवश्यक है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच भयानक
युद्ध छिड़ा था। राही युद्ध के लिए पाकिस्तान के फौजी
तानाशाहों को पूर्ण रूप से उत्तरदायी समझते थे, और
खुलकर ये बात विश्वविद्यालय में कहते थे कि पाकिस्तान
की जनता के लिए फौजी तानाशाहों की पराजय अति आवश्यक
है। मेरी राय थी कि युद्ध से किसी समस्या का हल नहीं
हो सकता, इसलिये हम सब को मिलकर शान्ति का प्रयास करना
चाहिये। युद्ध के दिनों में इस सवाल पर हम लोगों में
देर तक विवाद होता था। राही का तर्क था कि धर्म के
आधार पर न देश चल सकता है, न राजनीति। पाकिस्तान के
शासक दोनों काम कर रहें हैं।
१९६५
में ही उन्होंने परम वीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की
जीवनी लिखी -- "छोटे आदमी की बड़ी कहानी" किसी साधारण
आदमी की किसी महत्वपूर्ण लेखक द्वारा लिखी गई ये
महत्वपूर्ण जीवनी है। उन्हीं दिनों उन्होंने एक कविता
लिखी "सबसे छोटी अकलियत"। राही को यह कविता अत्यंत
प्रिय थी। वे बार-बार इस कविता को दोहराते थे। कहते थे
कि सबसे छोटा अल्पमत हिन्दोस्तानियों का है। लोग
हिन्दू हैं, सिक्ख हैं, ईसाई हैं, बंगाली हैं, पंजाबी
हैं, मराठी हैं, लेकिन हिन्दुस्तानियों की संख्या
दिन-ब-दिन कम होती जा रही है।
नागफनी के इस जंगल में,
जैसे हरसिंगार की कोंपल
राही
का विचार था कि हरसिंगारों का स्थान नागफनी ले रही
हैं। इन जंगलों को आगे बढ़ने से रोके बिना भारत की
एकता, अखण्डता और संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती। लोग
ताज्जुब करते हैं और मृत्यु के बाद उर्दू के अनेक
लोगों ने कहा भी है कि उर्दू विभाग में राही के साथ
हुआ। दूसरे स्थानों पर इससे मिलती-जुलती घटनायें अन्य
प्रतिभा सम्पन्न अध्यापकों और साहित्यकारों के साथ आए
दिन होती रहती हैं। असल में हमारे विश्वविद्यालयों में
पीछे के दरवाजे से चाटुकारिता और सिफारिश से जो लोग
पहुँचते हैं, वे एक प्रकार की हीन भावना से निरन्तर
ग्रस्त रहते हैं। वे अपने से आगे, बराबर या उनकी
प्रतिभा को चुनौती देनेवाली किसी व्यक्ति को विभाग में
नहीं आने देते।
राही
अस्थायी प्राध्यापक थे लेकिन अपनी प्रतिभा और
लोकप्रियता में विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों से दो कदम
आगे थे। विश्वविद्यालय के उस समय के कुलपति बदरूद्दीन
तैयब उनकी प्रतिभा के बहुत कायल थे और उनका बहुत
सम्मान करते थे। बुजुर्गों के लिए यह भी ईर्ष्या का एक
कारण था। परन्तु उनका हिन्दी में आने का किस्सा
बिल्कुल अलग है। जब वे शोध कर रहे थे तभी उन्होंने
अनुभव किया कि उर्दू को यदि भाषा के रूप में जीवित
रहना है तो उसे देवनागरी लिपि अपनानी पड़ेगी। और यह
बहस उन्होंने सन १९६० ई. से आरम्भ की। उनका कहना था कि
उर्दू वालों का डर व्यर्थ है कि लिपि बदलने से भाषा
समाप्त हो जाती है। यदि ऐसा होता तो मराठी और नेपाली
देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं और अलग भाषा के रूप
में उनकी पहचान है और विकास भी हुआ है।
कश्मीरी, सिन्धी और पाकिस्तानी में पंजाबी-फारसी लिपि
में लिखी जाती है, तो इससे भाषा की पहचान तो नष्ट नहीं
हो जाती। वास्तव में देवनागरी में उर्दू साहित्य आ
जाएगा तो उसे करोड़ों पाठक मिलेंगे और इस प्रकार उर्दू
साहित्य व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचेगा और उसका सीमित
संसार समाप्त होगा और जड़ता भी टूटेगी। उर्दू में उनकी
इस बात पर तीखा विरोध हुआ। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए
गए और यह भी कहा गया कि राही अवसरवादिता कर रहे हैं वे
सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए इस तरह की बातें
कर रहे हैं। परन्तु राही एक व्यापक सिद्धान्त के आधार
पर यह बात कह रहे थे। वे यह महसूस करते थे कि इससे
भाषा की राजनीति करने वाले निहित स्वार्थ कमजोर होंगे।
पिछले २४ नवम्बर, १९९१ को वे अन्तिम बार अलीगढ़ आए। इस
बार उनके साथ बिल्कुल एक नया प्रस्ताव था -- "सिनेमा
को साहित्यिक पाठ्यक्रम का अंग बनाना चाहिए।" हम लोग
फिल्मों पर चर्चा करते हैं, उनकी स्तरहीनता पर
नाक-मुँह सिकोड़ते हैं परन्तु हमारे विश्वविद्यालय इस
ओर विशेष रूप से गम्भीर नहीं हैं, उन्होंने कहा कि
फिल्म ऐसा सशक्त माध्यम है जो हर एक पीढ़ी को प्रभावित
करता है। इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। नाक-मुंह
सिकोड़ने से या सिनेमा को अछूत मानने से समस्या का
समाधान नहीं हो सकता।
आज
सिनेमा छपी हुई पुस्तकों और पत्रिकाओं से कई गुना अधिक
शक्तिशाली है। इसलिये विश्वविद्यालयों को गम्भीर रूप
से इस ओर सोचना चाहिए और वे अब सिनेमा को अपने
पाठ्यक्रम में शामिल करें। उन्होंने बहस को आगे बढ़ाते
हुए यह कहा कि "पत्रकारिता और स्पोर्ट्स भी तो कभी
पाठ्यक्रम के हिस्से नहीं थे, लेकिन वे भी तो आज
पाठ्यक्रम के हिस्से हैं।" हमेशा की तरह वे शाम को जब
घर आए तो हिन्दी-उर्दू पाठ्यक्रम पर मुझसे बहुत देर
बातें करते रहे। उन्होंने कहा -- "यार, उर्दू वाले
नहीं करते तो तुम ही कुछ करो। उर्दू के कवियों को
हिन्दी में पढ़ाना शुरू करो। हिन्दी वालों की यह बड़ी
बेइमानी की बात है कि वे उर्दू को हिन्दी की एक शैली
तो मानते हैं और मैं भी मानता हूँ कि उर्दू हिन्दी की
एक शैली है।
यह
बात लोग पचास साल से कह रहे हैं, लेकिन व्यवहार मे
किसी विश्वविद्यालय ने उर्दू के साहित्यकारों को अपने
पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया है। आप राजस्थानी,
ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिलि आदि के कवियों को अपने
पाठ्यक्रम में पढ़ा रहे हैं, तो वली दक्खिनी, मीर,
अनीस, गालिब और नजीर अकबराबादी को जो उनकी अपेक्षा
अधिक सरल हैं, क्यों नहीं पढ़ाते हैं। वास्तव में, एक
ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए, जिसमें उर्दू के
इन प्रतिनिधि रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं का परिचय
विद्यार्थियों को मिल सके। दीवारों को तोड़ने का इसके
अतिरिक्त और कोई तरीका नहीं है। मैंने उनसे कहा आप इस
काम में सहयोग कर सकते थे, लेकिन आप इतने व्यस्त हैं
कि चाहते हुए भी आप कुछ नहीं कर पा रहे हैं। वे गम्भीर
हुए और मुझे बोले - यह कार्य पहली प्राथमिकता का है।
राही
जिद्दी स्वभाव के थे। एक बात याद आ रही है कि जब
बी.आर. चोपड़ा ने उन्हें महाभारत की पटकथा का आमंत्रण
दिया तो पहले उन्होंने मना किया कि किसी और से लिखवा
लो। एक दिन वे अपने साथ एक पत्र भी लाये जो एक
संभ्रांत सांसद का था कि उसमें लिखा था कि तुम्हें
मुसलमान ही मिला है महाभारत की पटकथा के लिए। बस फिर
क्या था। यह बात राही को लग गई। तभी उन्होंने चोपड़ा
जी से कहा कि अब राही ही पटकथा लिखेगा। महाभारत पर
उन्होंने तमाम ग्रंथ यहाँ से मंगाये और उन्हें पढ़ा
समझा। वह कहते थे महाभारत मेरी संस्कृति का हिस्सा है
तो मैं क्यों नहीं पढ़ सकता उसके बारे में। उनका सबसे
बड़ा और भारी काम था "महाभारत" की पटकथा लिखना। कई बार
महाभारत के कई प्रसंगों पर हमारी आपस में बातचीत हुई
मेरे सुझाव उन्होंने माने। पौराणिक ढ़ाँचे के लिए वे
पं. नरेन्द्र शर्मा से मिलते थे। विशेष कर गीता उपदेश
वाले एपीसोड में। उन्हें यह डर था कि आज के छद्म
राजनेता कहीं शब्दों के साथ राजनीति न करें, उसके
संवादों पर कई दिनों हम लोगों में लम्बी बातें हुई।
उनका फरवरी में आने का वायदा था कई महत्वपूर्ण कामों
को अन्जाम देना था।
लेकिन जनवरी में पता चला कि उनके गले में कैंसर हैं।
आपरेशन भी करवा लिया घर से मुझे फोन किया था कि मैं
फरवरी में अलीगढ़ आ रहा हूँ। सारी सामग्री एकट्ठी
रखना। अगला वार फिर मैंने उनसे स्वास्थ्य के बारे में
फोन पर पूछा तो बोले 'उस काम में क्या प्रगति रही।
सारी किताबें मिलीं?' मैंने कहा 'वो सब हो जाएगा, आप
पहले स्वस्थ तो हो जाइये।' उन्होंने कहा 'डॉक्टर
इजाज़त देते हैं। मैं फौरन अलीगढ़ आऊँगा।
मैंने उन्हें इत्मीनान दिलाया और स्वास्थ्य की ओर विशष
ध्यान देने को कहा। वे जानते थे कि हारी हुई लड़ाई लड़
रहे हैं, लेकिन मौत से लड़ते हुए भी वे एकता के सूत्र
कैसे मजबूत होंगे, इस पर बराबर सोच रहे थे, राष्ट्रीय
एकता के लिए व्यावहारिक स्तर पर काम करने पर विशेष जोर
देते थे। वे पाकिस्तान के बनने और फिर उसके दर्शन के
बुरी तरह खिलाफ थे। अंत में उन्हीं का एक शेर याद आ
रहा है।
अपने साये की तरफ देख
के डर जाता है, इतना तनहा न था इन्सान, न जाने क्या हो।
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