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श्रद्धांजलि

ओंकारनाथ श्रीवास्तव नहीं रहे

जन्म : 18 जनवरी 1932 (रायबरेली)
निधन : 29 नवंबर 2002 (लंदन)

— कैलाश बुधवार

चित्र: डा ओंकारनाथ श्रीवास्तव

ओंकारनाथ श्रीवास्तव – एक ऐसा नाम, एक ऐसी आवाज, एक ऐसी कलम और एक ऐसा व्यक्तित्व जो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी की नई पीढ़ी के लिए नए रास्ते बनाता रहा। विडंबना यह है कि जहां मातृभाषा के योगदान में लेखकों की, आलोचकों की, पत्रकारों की, अध्यापकों की गणना है, कोषों की कमी नहीं है;  वहां अभी भी हिन्दी की सेवा में हिन्दी प्रसारकों की साधना की पहचान का ध्यान शायद ही किसी को कहीं आता है।  ओंकारनाथ श्रीवास्तव को जहां पचास के दशक से लेखक को रूप में प्रतिष्ठा मिली उससे कहीं अधिक ख्याति और लोकप्रियता प्रसारक की भूमिका में उनके नाम के साथ जुड़ी रही।  

ओंकारनाथ श्रीवास्तव का नाम हिन्दी प्रसारकों की श्रेणी में सबसे अग्रिम पंक्ति में आएगा – जिनके प्रसारणों पर लाखों श्रोता हर रोज अपने कान लगाए रखते थे;  जिन्होंने हिन्दी प्रसारण के और नए प्रसारकों के सर्वसाधारण तक पहुंचने की दिशा दिखाई।  सन् सत्तर और अस्सी के दशक में बी•बी•सी• के हिन्दी श्रोताओं की संख्या साढ़े तीन करोड़ तक आंकी गई थी, और उस प्रसारण की शीर्ष पर थे हर सुबह शाम लाखों श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करते ओंकार!

उन्होंने आकाशवाणी से अपना कार्यकाल आरंभ किया था।  अभी जब वे प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र थे, तभी आकाशवाणी इलाहाबाद से उन्हें अनुबंध मिलने लगे थे।  दूरदर्शन के श्रीगणेश के साथ उन्हें नाटक रचना में नियुक्ति मिली, किन्तु साठ का दशक आते उन्होंने रेडियो टी•वी• का मोह त्याग कर भारतीय रेलवे में हिन्दी सेवा का व्रत लिया।  पर उन्हें प्रसारण की दुनिया वापिस बी•बी•सी• में खींच लाई।  ओंकारनाथ उन इने गिने प्रसारकों में थे, जिन्हें बी•बी•सी• वॉयस ऑफ अमेरिका, ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन ने आग्रह के साथ नियुक्तियां दीं।

ओंकारनाथ श्रीवास्तव ने हिन्दी लेखन में पदार्पण किया था एक अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में सर्वोच्च पुरस्कार जीत कर।  छात्र जीवन से ही उनकी कृतियां प्रकाशित होने लगी थीं।  वे लेखक थे, कवि थे, कहानीकार थे और हिन्दी लेखकों की गोष्ठियों में उनकी सिद्दि को मान मिलता था और प्रसारक के रूप में उनकी प्रसिद्धि को हिन्दी की उपलब्धि माना जाता था।  उनके नाते हिन्दी के अनेक रचनाकारों को पश्चिम की आधुनिक संस्थाओं के संपर्क में आने का सुयोग मिला।  ओंकारनाथ बच्चन जी के भक्त रहे;  समय समय पर उनकी कविताएं उद्धृत करते थे और आज भी बोल सकते तो शायद बच्चन जी की ये पंक्ति दोहराते :

जीवन की आपाधापी में / कब समय मिला / कुछ सोच सकूं  . . . . . . . .

जीवन को जिस सरलता से ओंकारनाथ ने बर्ता, वो जैसे गीता का निस्पृह भाव था।  जैसे जो उन्हें मिलता, जो उनके हिस्से में आता, खट्टा, मीठा, तीखा, कड़वा वह सब सहज भाव से स्वीकार हो जाता।  कैसी भी उलझन सामने होती – वे कहते, हुई है।  जब मिले, जिससे मिले, इतनी आत्मीयता से गले लग कर मिले, दूसरों का बोझ हल्का करते हुए, अपनी मुक्त हंसी बांटते हुए।

अपने पीछे ओंकारनाथ श्रीवास्तव छोड़ गए हैं बड़ी सुहानी यादें – अपनी कवियत्री पत्नी कीर्ति चौधरी, अपनी उपन्यासकार बेटी अतिमा और हजारों ऐसे परिचित जो उन्हें, उनकी बेनियाजी, उनकी संवेदनशीलता और उनका वशीकरण स्नेह कभी नहीं भूल पाएंगे।  

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