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'संगीत के जवाहरात' का विमोचन
१६ जुलाई २००८ को मुंबई के कोलाबा क्षेत्र में  हालैंड में रहने वाले भारतीय संगीतज्ञ उस्ताद मोहम्मद सईद ख़ाँ की पुस्तक संगीत के जवाहरात का लोकार्पण प्रसिद्ध संतूर-वादक पद्मविभूषण पं. शिव शर्मा द्वारा किया गया। समारोह की अध्यक्षता वयोवृद्ध सितारवादक पं. अरविन्द पारीख ने की।

इस पुस्तक में ११५ रागों की २३८ बंदिशों के बोल, अर्थ और प्रसंग सहित भावार्थ दिए गए गए हैं। पुस्तक के साथ में एक सीडी भी है जिसमें मोहम्मद सईद ख़ाँ के ओजस्वी स्वर में साढ़े सात घंटे का गायन है। पुस्तक के सहलेखक हैं नवभारत टाइम्स, मुंबई के मुख्य उपसंपादक भुवेन्द्र त्यागी।

इस प्रयास की मुक्त कंठ से सराहना करते हुए पं. शिवकुमार शर्मा ने कहा कि यह पुस्तक नई पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत के और ज़्यादा करीब लाने में मददगार सिद्ध होगी। उल्लेखनीय है कि शर्मा जी प्रतिष्ठित बांसुरी वादक पं. हरिप्रसाद चौरसिया के साथ 'शिव-हरि' नाम से 'सिलसिला' और 'चाँदनी' फ़िल्मों में यादगार संगीत भी दे चुके हैं।

तीन दशकों से पश्चिमी देशों में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में सक्रिय मोहम्मद सईद ख़ाँ झज्जर घराने के वारिस होने के साथ ही जयपुर घराने की गायकी परम्परा के वरिष्ठतम सदस्यों में से एक हैं। उन्होंने संगीत को विज्ञान, कला और मनोरंजन का संगम मानने का सिद्धांत प्रपादित किया है। उनके वालिद उस्ताद अब्दुल मजीद ख़ाँ साहब महान सारंगी वादक बुंदू ख़ाँ के शागिर्द थे। सन १९२१ में वे मुम्बई आए और यहाँ महान गायिका केसरबाई केरकर के साथ आजीवन संगत करके बहुत नाम कमाया। केसरबाई की गायकी से वे इतने प्रभावित थे कि १९३८ में उनके गुरु अल्लादिया ख़ाँ से गायन सीखा और अपने दोनों बेटों सईद ख़ाँ और रशीद ख़ाँ को गायन का यह हुनर सिखाया। संगीत के इस विशाल ज्ञान और अपने विशद अनुभवों के निचोड़ को मोहम्मद सईद ख़ाँ ने एक सुंदर पुस्तक का रूप दिया। कुछ पुस्तकें ऐसी होती हैं जिन्हें बस अद्भुत कहा जा सकता है, यह पुस्तक भी उसी श्रेणी की है।

- देवमणि पांडेय


हरनोट की कहानी 'बिल्लियाँ बतियाती हैं' कालजयी कहानियों में शामिल
एस. आर. हरनोट की बहुचर्चित कहानी 'बिल्लियाँ बतियाती हैं' हिन्दी की कालजयी कहानियों में शामिल की गई है। 'हिन्दी की कालजयी कहानियाँ' का पाँच खंडों में साहित्य अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशन किया जा रहा है जिसका संपादन प्रख्यात लेखक स्व. कमलेश्वर ने किया है। उन्होंने इस कहानी का चयन अकादमी की इस महत्त्वपूर्ण व वृहद योजना के लिए किया था। यह सूचना साहित्य अकादमी के उप सचिव श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने हरनोट को पत्र लिख कर दी है।

'बिल्लियाँ बतियाती है' कहानी कुछ सालों पहले प्रसिद्ध पत्रिका 'पहल' में प्रकाशित हुई थी और छपते ही यह बेहद चर्चित हुई। कमलेश्वर के शब्दों में 'बिल्लियाँ बतियाती है कहानी अद्भुत कहानी है जो एक ताज़ा अंदाज़, कथ्य का नया कोण और सहजता लिए हुए हैं।' प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने भी दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में इस कहानी की प्रशंसा की थी। अनेक लेखकों, आलोचकों और पाठकों ने हरनोट की इस कहानी को सराहा है। युवा आलोचक गौतम सान्याल ने इस कहानी पर एक लम्बा लेख लिखा था जिसके कुछ अंश मुम्बई से प्रकाशित होने वाली हिन्दी की पत्रिका 'हिमाचल मित्र' के अगामी अंक में प्रकाशित किए जा रहे हैं और साथ ही इस कहानी को प्रमुखता से पुन: प्रकाशित किया जा रहा है। इन्टरनेट की प्रमुख हिन्दी वेबजीन 'हिन्दीनेस्ट' पर भी यह कहानी प्रकाशित की गई है। जब हरनोट का बहुचर्चित कहानी संग्रह 'दारोश और अन्य कहानियाँ' प्रकाशित हुआ तो उसमें यह पहली कहानी है। इस संग्रह पर हरनोट को 'अन्तर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान' जब लंदन में मिला तो इस कहानी का लंदन के नेहरू सेन्टर में समारोह के दिन मंचन भी किया गया था। इस कहानी का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।


सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के सुरों से तो हर कोई परिचित है मगर उनकी जिंदगी के कई पहलू ऐसे हैं जिनको बहुत कम लोग जानते हैं। शीघ्र आने वाली एक पुस्तक 'लता गीति कोश' में लताजी के बारे में उनके चाहने वालों को कई रोमांचक जानकारियाँ मिल सकती है। लताजी के जबर्दस्त प्रशंसक और प्रसिध्द संगीतकार स्नेहाशीष चटर्जी द्वारा कई बरसों की मेहनत और शोध के बाद लिखी गई इस किताब में कई ऐसी जानकारियाँ हैं जो शायद ही किसी को पता हो। एक मजेदार जानकारी यह है कि उनका असली नाम लता नहीं बल्कि हेमा है। लताजी के जन्म के समय उनके माता-पिता ने उनका नामकरण हेमा के रूप में किया था। बाद में जाने कैसे उनका नाम लता प्रचलित हो गया। और एक तरह से यह अच्छा ही हुआ अगर उनका नाम भी हेमा के रूप में प्रचलित रहता तो फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी को मिलाकर फिल्म जगत में दो हेमा हो जाती। इस पुस्तक में कहा गया है कि पहली बार लताजी ने १९४२ में एक मराठी फिल्म 'किति हसाल' के लिए जो गीत गाया था वह गीत उस फिल्म में शामिल ही नहीं हो पाया। इसके बाद लताजी ने एक और मराठी फिल्म 'पहिली मंगलागौर' के लिए गीत गाया उनका यह गीत 'नटली चैत्राची नवलाई'  गीत ऐसा पहला गीत था जो उस समय रेडिओ के माध्यम से श्रोताओं तक पहुँचा था, मगर तब तक भी लता लोगों की नजर में एक अनजानी गायिका ही बनी हुई थी। इसके बाद लताजी ने मराठी फ़िल्मों में अभिनय भी किया। उन्होंने जिन फिल्मों में अभियन किया उनमें 'बड़ी मां' (1945), 'जीवन यात्रा' (१९४६), 'मंदिर' (१९४८) जैसी फिल्में प्रमुख थी। लताजी फिल्म और धारावाहिक निर्माण से भी जुड़ी रही हैं और उन्होंने मराठी फिल्म 'वडाल' (१९५३), हिंदी फिल्म 'झांझर' (१९५३), 'कंचन' (१९५५) और 'लेकिन' (१९९०) जैसी फिल्मों का भी निर्माण। वर्ष १९८९ में एक हिंदी धारावाहिक 'कुछ पाया कुछ खोया' का निर्माण भी किया।

२१ जुलाई २००८

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