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जब नींद टूटी तो शाम हो चुकी थी। हाथ-मुँह धोकर आरामकुर्सी पर बैठा रहा। कुछ देर बाद मेरी बेटी मेरे लिए चाय ले आई। मैंने उसके हाथ से प्याली लेकर एक चुस्की ली।
बेटी ने कमरे को साफ़ कर दिया। बिस्तर झाड़कर ठीक कर दिया।
मैंने चाय पीते-पीते पूछा, ''आज कॉलेज गई थी?''
''हाँ।''
''कब लौटी?''
''कुछ देर पहले।''
''इम्तहान कब होंगे?''
''अभी देर है।''

इसके बाद मेरी समझ में नहीं आया, उससे क्या पूछूँ। इसीलिए कुछ क्षण रुककर अचानक मैं पूछ बैठा, ''तेरी माँ क्या कर रही है?''
''माँ घर में नहीं हैं।''
''कहाँ गई है।''
''पता नहीं।''
''कब लौटेगी?''
''कुछ बताकर नहीं गई हैं?''

मैं खामोश हो गया। बेटी ने कमरे को साफ़-सुथरा बना दिया। मैंने भी चाय पी ली थी। इसके बाद वह खाली चाय का प्याला लेकर बाहर जाने को हुई। तभी मैंने उससे कहा, ''तेरी माँ जब लौट आए तो एक बार मेरे पास आने के लिए कहना।''
''अच्छा!''
बेटी चली गई। मैं अकेला बैठा रहा।

शाम ढलने लगी। अंधेरा होने लगा था। धीरे-धीरे चारों तरफ़ अंधेरा छा गया।
मेरा बड़ा बेटा शायद अब तक घर आ गया होगा। छोटे बेटे के भी घर लौटने का वक़्त हो गया था। शादी के पहले छोटा बेटा रात को घर लौटता था। कभी-कभी बारह बजे जाते थे। इसे लेकर उसे काफ़ी कुछ कहा गया था, मगर कोई असर नहीं हुआ था। अब कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती। अब शाम होते ही घर आ जाता था। मगर दोनों में से कोई भी मेरे कमरे में झाँकने भी नहीं आता। न बड़ा बेटा न छोटा बेटा। वे दोनों दफ़्तर जाते थे और वहाँ से सीधे घर लौटते थे। कभी-कभी अपनी पत्नियों के साथ सिनेमा चले जाते थे। किसी-किसी दिन कभी-कभी मेरा भी मन करता कि मैं नीचे जाकर उनकी बातों में शामिल हो जाऊँ। मगर मेरी कौन सुनेगा? मेरे पास कहने को था भी क्या?

देखते-देखते रात गहराने लगी। मैं कमरे में बत्ती जलाकर बैठा रहा। कभी कोई किताब लेकर पढ़ने की कोशिश करता, मगर पढ़ा नहीं जाता था। अब छापे के अक्षर मुझे अच्छे नहीं लगते थे। मुझे कॉफी पीने की इच्छा कर रही थी। मैंने आवाज़ लगाई, ''बड़ी बहू माँ!''
उसे मेरी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ी। मैंने इस बार हाँक लगाई, ''छोटी बहू माँ!''
उसे भी मेरी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ी।
इसके बाद मैंने अपनी बेटी को आवाज़ लगाई। बेटों को बुलाया। पोते-पोतियों को आवाज़ लगाई। मगर किसी ने जवाब नहीं दिया। किसी को मेरी आवाज़ सुनाई ही नहीं दी। आखिरकार अपनी बुढ़िया को हाँक लगाई। मगर उसकी ओर से भी काई जवाब नहीं आया। बुढ़िया के कानों में भी मेरी आवाज़ नहीं पहुँची।

रात और गहरा गई। मुझे अब चुपचाप बैठे रहना अच्छा नहीं लगा। मैं लेट गया। कमरे की बत्ती जलाए रखी। फिर बड़ी बहू रोटी की थाली और गिलाक लेकर कमरे में आई। उन्हें मेज़ पर रख दिया।
मैंने उठते हुए पूछा, ''तुम लोग क्या कर रही थीं?''
''क्यों?''
''मैंने कितनी बार तुम सबको पुकारा!''
''हमें तो सुनाई ही नहीं पड़ा।''

इस बात का मैं क्या जवाब देता? जवाब दे भी क्या सकता था! कुछ साल पहले की बात होती तो ज़रूर सबको सुनाई पड़ती। अब अनसुनी करने पर भी कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। इसीलिए मैं कुछ न कहकर खामोश रहा।
बड़ी बहू ने पूछा,  ''कुछ कह रहे थे?''
''कॉफी पीने का मन कर रहा था।''
''इस वक़्त बना लाऊँ?''
''नहीं, अब ज़रूरत नहीं।''
बड़ी बहू कुछ देर चुप खड़ी रही। फिर जाने के लिए दरवाज़े की ओर मुड़ी। तभी मैंने उससे पूछा, ''तुम्हारी सास क्या दिन-भर बहुत व्यस्त थी?''
''क्यों?''
''दिन-भर में उसे एक बार भी यहाँ आने का वक़्त नहीं मिला।''
''अभी भेज देती हूँ।''

बड़ी बहू चली गई। मैं बैठकर धीरे-धीरे रोटी चबाता रहा। खाते-खाते कितनी ही बातें याद आईं। काफी साल पहले की बातें। उन दिनों मैं और बुढ़िया रात में एक साथ खाने बैठते थे। कोई भी किसी से पहले अकेले खाना नहीं खाता था। हम खाते हुए आपस में बातें करते। कितनी ही बातें। उन दिनों यह मकान एकमंज़िला था। उन दिनों हम एक ही कमरे में रहते थे। इसके बाद हमारे बच्चे हुए। वे बड़े होने लगे। उनके लिए कमरे की ज़रूरत पड़ने लगी। एकमंज़िला मकान दोमंज़िला हुआ। मैं दोमंज़िले पर रहने लगा। बुढ़िया एकमंज़िले में ही रह गई। ऊपर नहीं आई। तब भी हम दोनों रात में एक साथ खाना खाते थे। इसके बाद दोनों लड़कों की शादी हुई। फिर कमरे की ज़रूरत पड़ी। इस बार बच्चों के लिए नहीं, मेरे लिए। मुझे तिमंज़िले के कमरे में जाना पड़ा। बुढ़िया एकमंज़िले में ही रह गई। हम लोग उसके बाद से रात में एक साथ खाना खाने नहीं बैठते थे। अब सीढ़ियों से उतरने में तकलीफ़ होती थी। उतर जाने पर चढ़ना मुश्किल हो जाता था। मुझे काफी तकलीफ़ होती थी। मैं हाँफने लगता था।

खा-पीकर मुँह-हाथ धोकर बुढ़िया का इंतज़ार करने लगा। रात बढ़ती जा रही थी। थोड़ी देर बाद बड़ी बहू मेरे कमरे में आई। उसने ख़बर दी, ''माँ इस वक़्त आ नहीं पाएँगी।''
''क्यों?''
''खाना खा रही हैं।''
मैंने फिर कुछ नहीं पूछा। मुझे कुछ जानने की ज़रूरत भी नहीं थी। बड़ी बहू मेज़ पोंछकर थाली-गिलास लेकर चली गई।

मैं कुछ देर चुपचाप अकेला बैठा रहा। इसके बाद कमरे के दरवाज़े की चिटकनी लगा दी। बत्ती भी बुझा दी। सिहराने वाली खिड़की खोलकर लेट गया। मेरी आँख लग गई। मेरी पलकें मुँद गईं।

अचानक मेरी नींद टूट गई। कोई दरवाज़े की सांकल ज़ोर से बजा रहा था। मैंने हड़बड़ाते हुए आकर दरवाज़ा खोला। देखा, अंधेरे में बुढ़िया अकेली खड़ी थी।
इस वक़्त मैं उससे क्या कहता?

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३ अगस्त २००९

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