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राम जैसा
पितृभक्त कौन है, लक्ष्मण-भरत जैसा भ्रातृभक्त और कौन जनमा है
अभी तक! पादुका पूजन में भरत से आगे निकल जाए- ऐसा आदमी नहीं
है इस दुनिया में। विधानबाबू के घर पादुका पूजन देख कोई ऐसा
सोचता है तो कोई हँसता है। सोचते हैं, यह सब दिखावटी भक्ति है।
पादुका पूजन, वह भी पिता का नहीं, ना ही माँ का, बल्कि पिता के
छोटे भाई और विधानबाबू के चाचा का। माँ-बाप की पादुका की बात
छोड़ो, उनकी तो कोई तस्वीर तक नहीं है विधानबाबू के घर पर, पर
चाचा की पादुका की पूजा हो रही है।
उन दिनों फोटो नहीं खींची
जाती थी, भला यह कैसे कहा जा सकता है? बात है ही कितनी पुरानी?
विधानबाबू का बचपन, अभी तीस-पैंतीस साल पहले की ही तो बात है।
तब तक शहर के लोगों में तस्वीर मढ़वा कर टाँगने का फैशन आ चुका
था। लेकिन निपट गाँव में रहने वालों के घरों की दीवारों पर
ज़िंदा लोगों के फ़ोटो खिंचवा कर दीवार पर टाँगते नहीं देखा
गया था। भगवान की तसवीर छोड़ इंसान की तसवीर दीवार पर टाँग कर
रोज़ दर्शन करना- भला कोई ऐसा अनर्थ करेगा? एकाध लोगों की
तसवीर और भगवान की तसवीरें टाँगी जातीं ज़मींदार साहूकारों की
दीवारों पर। फूल माला पहना धूपबत्ती जलाई जाती थी मरे लोगों की
तसवीरों के सामने। इसलिए विधानबाबू के पिता, माता, चाचा, चाची
किसी की कोई तसवीर नहीं। उनके चेहरे सब मर-खप चुके।
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