३ |
|
शाम को नानी
दूध का बर्तन उठा कर, गौशाला की ओर बढ़ ही रही थीं। ''क्या कर रही हैं आप?'' अनु देख कर चौंक पड़ी। ''दूध निकालने जा रही हूँ।'' ''आप बर्तन रख दें। आपको काम नहीं करना है।'' ''अरे, आश्रम में, मैं खाना पकाती थी।'' ''वहाँ डॉक्टर थे। यहाँ कौन दौड़ धूप करता फिरेगा?'' ''कुछ नहीं होगा।'' कहकर वो चल पड़ी। ''आप बर्तन रख दीजिए।'' अनु की आवाज़ में सख़्ती थी। नानी ने बर्तन, वहीं रख दिया। उनके कलेजे में हूक-सी उठी। उनका अपमान हुआ था। वे उसी समय
भीतर चली गईं। मुँह पर पल्ला डालकर रोती रहीं। सोते समय
उन्होंने निश्चय किया। घर मेरा है, सबको मेरे आदेश मानने
होंगे। आश्रम में दस-पंद्रह का भोजन बनाती थीं। यहाँ कैसी
मेहनत? पुरुषों के भोजन कर लेने के
बाद अनु और नानी खाने बैठी थी। अनु कुछ न बोली और खाते-खाते
नानी के हाथों की उँगलियाँ देखने लगी। उनपर छोटे से नाखून थे।
टेढ़ी-मेढ़ी उँगलियाँ। नानी उन्हीं हाथों से भोजन कर रही थी। नानी को दाल में कुछ काला
नज़र आया। वे थोड़ी बुझ-सी गईं। घर के भीतर चटाई बिछाकर सोने
का प्रयत्न करने लगीं। पर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। पानी लेकर उन्होंने गाय के थन
धोए। तभी उनकी दृष्टि गाय के आगे पड़ी रोटियों पर ठहर गईं।
नानी उसी समय उठ खड़ी हुईं। ................. रात आहट से उनकी आँख खुली। सुबह रामाराव उठकर बाहर आए।
नानी पहले ही उठ गई थीं। |
|
४ फरवरी २००८ |