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रामाराव को यह अच्छा नहीं लगा।
डॉक्टरों ने तो कह ही दिया है कि वो, अब पूरी तरह स्वस्थ हो
चुकी है। ''भैयाराम और उन्हें, अब तक आ जाना चाहिए था।'' ''रुको, बस की आवाज़ आ रही है।'' पड़ोस की काकू सबको चुप कराती हुई, कान लगाकर सुनने लगी। पर, रामाराव को ऐसा नहीं लगा। पिछले एक घंटे में उन्हें गाड़ी की आवाज़, कई बार सुनाई पड़ी थी।
''आ गई रे, आ गई!'' काकू फिर
चिल्लाई। सचमुच इस बार आवाज़ आई थी। चबूतरे पर बैठी मंडली,
खड़ी हो गई। अनु ने, गणपति के सामने दीप जलाकर रख दिया। दीये की मंद लौ, हवा के झोंके में लहरा रही थी। उस प्रकाश में मूर्ति, कितनी शांत दिखाई दे रही थी। मूर्ति के हाथों की उँगलियाँ, पानी और हवा की मार से घिस-सी गई थी। सूँड के ऊपर भी खरोंच जैसे निशान थे। लंबे कान भी टूट-फूट गए थे। न जाने कब से रामाराव इसे देखते आ रहे थे। पर इसके भीतर स्थित शक्ति का आभास उन्हें आज से पहले, कभी नहीं हुआ था। बस, फाटक के पास आकर रुक गई। चार वर्ष पहले नानी जब अपना घर छोड़कर अमरावती आश्रम गई थीं तो सोचा था कि शायद अब लौटकर कभी न आ सके। जाते समय घर की प्रत्येक वस्तु को अंतिम स्पर्श कर गई थीं। गणेश जी को प्रणाम और हाथ से स्पर्श कर, दो पल उनके सम्मुख बैठी थी। उसी घर में लौट आने पर उनका आनंदित होना स्वाभाविक ही था। नानी के होंठ उनके मुँह पर फैल से गए थे। पर उनके चेहरे पर खुशी झलक रही थी। ........ ''रंगा, ले गेंद!'' नानी ने
रंगा को पुकारा। ''मैं सोच रही थी, गणेश जी की
दीया बत्ती कोई करता था या नहीं।'' तभी काकू आकर, नानी से मिली।
बरसों बाद मिली पड़ोसनें बातों में रम गईं। नानी घर में आ गईँ। हाथ मुँह
धो कर, चाय पीने के लिए चबुतरे पर, आ कर बैठ गई। |
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