एक दिन सुजाता पड़ोसी के घर से
समाचार पत्र लाकर पढ़ रही थी। और पढ़ाई में इतनी लीन हो गयी कि
बच्चे का रोना तक उसे नहीं सुनाई दिया। नरसिंह ने यह देखकर
अखबार फाड़ डाला। वह बढ़ई है। अनपढ़ है। रोज़ १५० रुपए कमाता
है और पचहत्तर रुपए दारू पीने में खर्च करता है। घर चलाना
मुश्किल हो रहा है।
अब तक सुजाता ने पढ़ाई की
रुचि तज दी है। कभी-कभी अपनी पेटी से छोटी-छोटी कविताएँ
निकालकर प्यार से पढ़ती है। पहले सपनों की बाढ़ के कारण नींद
दूर होती थी पर अब तो नींद को मार कर सरकारी सफ़ाई कर्मचारी बन
गई है। सफ़ाई कर्मचारी क्या बनी खुद ही झाडू बन गई। चमगादड़ की
ज़िंदगी हो गई।
आधी रात से सूरज निकलने तक, किस्तों में झाड़ने पर साठ रुपए
मिलेंगे।
''बेटी, कमर दर्द है क्या? या फिर इस शीत में पति की याद आ रही
है?'' दनादन झाड़ती हुई अधेड़ राजेश्वरी ने पूछा।
''नहीं बुआ, इस काम की मुझे आदत नहीं, और सुबह जल्दी उठना
पड़ता है, नींद पूरी नहीं होती ना...'' कहकर सुजाता फिर झाड़ू
लगाने लगी।
सड़क के डिवाइडर के पास
झाड़ते हुए, उसने वहाँ एक पुरानी, स्पंज से बनी छोटी गुड़िया
को देखा। उसे हाथ में उठाया। झट-से बच्चे की याद आई। शायद
बच्चा दूध के लिए चारपाई पर पलटता होगा, नहीं तो नींद में
हिचकी लेता होगा। नरसिंह तो खुद दारू पीकर सो जाता है। फिर अगर
बच्चा रोता है तो कौन देखेगा? झाडू को वहीं छोड़कर घर
जाने की इच्छा हुई सुजाता को। शीत का प्रभाव ज़्यादा हुआ तो
उसकी आँखों में आँसू आ गए और डिवाइडर पर बैठ गई। गुड़िया को एक
हाथ में पकड़कर, दूसरा हाथ सीने पर रखा। दूध तो है... लेकिन
बच्चा पास नहीं। उसे अपने आप पर तरस आया और उसने गुड़िया को
फेंक दिया।
''अरे, महारानी की तरह बैठी हो। उठो...झाडू मारो...झाडू...''
मल्लम्मा ने घुड़की दी। सुजाता को इस जीवन से फिर घृणा हुई।
फिर झाडू हाथ में उठा ली। गाँव का तालाब सूख गया और खेती का
काम कुछ नहीं मिलने के कारण यहाँ नगर में आ गया नरसिंह। आजकल
भवन निर्माण के काम का मजदूर बन गया है। दिन भर काम करके वह घर
पहुँचता है और सुजाता को दिन में आधी नींद सोकर, रात में झाडू
लेकर सड़क के लिए निकलना होता है।
खाना पकाती है, बच्चे को
सुलाती है। उसे देखते हुए बड़ी मुश्किल से काम के लिए निकलती
है। साठ रुपयें की याद में कदम आगे बढ़ाती है।
सड़क पर झाड़ू लगाते समय सुजाता के मन में बहुत सारे विचार आते
हैं। चौराहे पर किसी ने कूड़े को जला दिया था। पूरी सड़क पर
राख ही राख। जल कर फूटे हुए पटाखों की चिंदियाँ।
सुजाता चिढ़ गई।
''देश में धोखेबाज ज़्यादा हो
गए।'' सुजाता ने अपने आप से कहा।
दूर गांधी जी की प्रतिमा दिखाई दी। वह हँसने लगी। ''उनकी सारी
माँगें पूरी हुई पर आज भी आधी रात में एक औरत हाथ में झाडू लिए
घूम रही है नेता समझते हैं देश को असली स्वतंत्रता मिल गई।''
सुजाता मुस्कुरायी और सोचने लगी।
''बापू के दांत होते तो कोई टूथपेस्ट कंपनी उन्हें एक विज्ञापन
में ले लेती...''
सड़क पर झाड़ू लगाते समय सुजाता के मन में बहुत सारे विचार
उमड़ते हैं। उसने तो कभी नही सोचा थी कि - एक झाडू उसे नौकरी
दिला सकती है। दसवीं कक्षा की किताबें, पाठशाला के पुस्तकालय
की किताबें उसकी याद में अचानक चले आते हैं। शादी के पहले,
पढ़ाई के बाद, जब पाँच साल खाली थी तब गाँव के ग्रंथालय में
बहुत सारी किताबें पढ चुकी थी। छोटी-छोटी कविताएँ भी लिखती थी।
लेकिन गरीबी ने पढ़ाई को आगे बढ़ाने नहीं दिया।
राख को झाड़ती है तो धूल उठ
रही है। उस का मन में अनजाने क्रोध की भावना है। उस जगह को
ज़ोर से झाड़ने को मन करता है।
''झाडू मार.. झाडू मार लॉरी में आकर बोले गए नारों को, खाने के
लिए फेंके गए पैकेट के शोर को... विष छिड़कने वाले इ.वि.एम.
(इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) को...राजनीतिक डाइनोसॉर के
पदचिह्नों को...''
कमर में फिर दर्द। सर्दी से
शरीर काँपने लगा और सुजाता वहीं बैठ गई। फ़र्श पर आधी चादर में
सिहरते सोनेवाले भिखारी की आवाज़ सुनाई दे रही है। एक पगली
खाँस रही है और सिसक रही है। बंद दुकानों के किवाड़ पर अलग-अलग
रंग बिरंगे चित्र हैं। सुजाता जहाँ बैठी थी, वहीं सामने वाली
दुकान के किवाड़ पर जो चित्र था, उसे देखती रही, देखती ही रही।
दुकान के सामने रंग के दाग,
सूखी कूँची, रंग का एक छोटा डिब्बा नज़र में आया। सुजाता
इन्हीं गलियों में आती जाती रहती है तो उसे मालूम है कि इस
दुकान का किवाड़ रातभर ही नहीं बल्कि दिन में भी बंद रहता है।
रंगसाज भी दिखाई नहीं देता। ''कहाँ चला गया?'' सोच रही है
सुजाता।
''क्या मर गया होगा?''
नहीं...नहीं...ऐसा नहीं होना चाहिए। फिर विचार।
''क्यों नहीं? हो सकता है मर चुका हो। किसने मारा था? सामने
वाले भवन पर लगे हुए पीछे की रोशनी सो जगमगाते फ्लेक्सि बोर्ड
में जो कोट पहन कर हँस रहा है, उसी ने मारा होगा।''
सुजाता को भय हुआ। वह झाडू की तरफ़ देखने लगी।
''अरे मेम साहिबा की तरह बैठी है, चल उठ। अगर ठेकेदार देखेगा
तो, काम से निकाल देगा। चल झाडू मार...'' प्यार से कहा मंगव्वा
ने।
सुजाता ने फिर से झाडू लगाना शुरू किया। मन में अनजानी पीड़ा
है।
''झाडू मार...झाडू मार - यंत्रों को जिन्होंने व्यवसाय को मार
दिया है, कंप्यूटरों को जो डालर की बदबू से जल रहे हैं, ई-मेल
को जो व्यंग्यात्मक दृष्टि से हँसते हैं।'' जिनको कितना भी
झाड़ो पर कूड़ा कभी साफ़ नहीं होता। सच हमेशा छुपा ही रहता है।
एक मारुति वैन तेज़ रफ़तार से
सड़क पर इसी ओर चलती चली आ रही है। सभी सफ़ाई कर्मचारी भय से
किनारे की तरफ़ भाग गई हैं। वैन डिवाइटर से टकरा कर ऊपर चढ़ गई
है और फिर से सड़क पर आ गई है। और तेज़ी से दूर चली जा रही है।
एक सफ़ाई कर्मचारी बाल बाल बच गई है।
''बदमाश, शायद खूब शराब पी रखी होगी...'' कह कर एक सफ़ाई
कर्मचारी ज़ोर से चिल्लाई। वैन की तेज़ रफ़्तार के बावजूद, बंद
किड़की से 'बचाओ...बचाओ।' की चीख़ सुजाता के कान तक पहुँच ही
गई। भय से उसका शरीर ठिठुर गया। हर रात एक युद्ध जैसा अनुभव...
चोट को छूने की तरह सड़क को झाडना... सुजाता का मन में थकावट।
सुजाता सोच रही है - 'क्यों
मैं भिन्न हूँ? अन्य भंगियों की तरह अपना काम क्यों नही करती?
झाड़ू लगाना मेरा काम है... बस। लेकिन झाडू सारंगी बन जाती है।
पढ़ने लिखने वाले दिनों की यादें...पीछा करती हैं तो साँसों
में संगीत बजने लगता है।'
खंभे के पास झाड़ू मारनेवाली
भंगिन ने ज़ोर से पुकारा। सब लोग घबराकर झाडू छोड़कर वहाँ
पहुँचे। खंभे के बगल वाले कूड़ेदान में एक अविकसित शिशु का शव।
सब सफ़ाई कर्मचारी वहाँ घेरे हैं। भ्रूण हत्या पर, अनुचित
संबंधों पर शब्दों के हमले हो रहे हैं। उत्तेजना इतनी जैसे
उनकी झाडू में इस प्रदूषण को साफ़ करने की सारी शक्ति हो। फिर
सब काम में जुड गए। कूड़े के ट्रैक्टर आने के बाद शव को उसमें
डाल दिया गया। उस शिशु को देखने पर सुजाता को ऐसा कष्ट हुआ कि
वहाँ से हिल तक नहीं पाई।
''बेटी, तुम पढ़ी लिखी हो न, इस
काम पर नहीं आना। मैं ठेकेदार से बात करूँगी।'' रत्ना ने
प्यार से कहा। सुजाता चकित हो गई। झट से झाडू उठाई और दनादन
झाड़ना शुरू किया। अनजाने में क्रोध। झाड़ने लगी तो किसी बच्ची
की स्कूल की किताब के कुछ काग़ज़ सड़क पर गिरे मिले।
ज़ोर से झाड़ने लगी। मन में फिर विचार आया।
''झाडू मारो...किताबों को, जो बचपन को चबाते हैं, झाडू
मारो...अंतड़ियों को जो पिंड को पीस डालती हैं, झाडू
मारो...कार्पोरेट कालेजों को जो मासूम पंख तोड़ते हैं, झाडू
मारो...अंगों को जो सड़क पर पड़े हैं, झाडू मार अनाथ लाश को
जिन्हें अस्पताल वालों ने फेंक दिया है।''
हड्डी कुतरनेवाली शीत में झाडू नहीं मानती है। सुजाता का मन
कुछ कह रहा है। झाडू से लटक रहे अखबार का टुकड़े को ऊपर उठाती
है और सड़क पर जलती रोशनी के नीचे समाचार पढ़ने लगती है। |