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उस ज़माने में किसी को यह मालूम
भी नहीं था कि निजामुद्दीन नाम का कोई स्टेशन भी होता है। तब
घर जाने के लिए वहाँ से केवल एक ही गाड़ी चलती थी, ग्रांड
ट्रंक एक्स्प्रेस। ग्रांड ट्रंक कहने से कोई मज़ा नहीं आता।
जी.टी. एक्सप्रेस की बात ही कुछ और है, रुआब-सा महसूस होता है।
आजकल दिल्ली से रवाना होने पर सीधा घर के पास वाले स्टेशन पर
ही उतरता हूँ, बीच में कहीं ठहरने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
उन दिनों मद्रास जाने के लिए मद्रास-कोचिन एक्स्प्रेस पकड़कर
मद्रास जाना पड़ता था। सूर्योदय देखकर सात बजे से पहले वापस
होटल पहुँचता और केरला भवन में पैसेंजर चार्ज में ठहर कर आठ
आने में ही, स्नान करना, पाखाना जाना, दाँत साफ़ करना, सब कुछ
हो जाता था।
बाद में वही होटल से दोसा और अंडा खाता। फिर कमरे में लेट
जाता। जी. टी. एक्स्प्रेस का इंतज़ार करते हुए जिसका समय साढ़े
दस बजे का था।
कहीं पर पढ़ा था कि यूरोप में
स्लीपर क्लास होते हैं। जहाँ रिज़र्वेशन करा के सफ़र किया जा
सकता है पर भारत में उस समय इस प्रकार का रिज़र्वेशन नहीं होता
था। आज जब भारत में ऐसे क्लास हैं तो भी हर ट्रेन में और हर
यात्रा में वह सुविधा मिल जाए यह ज़रूरी नहीं। महीनों पहले
रिज़र्वेशन कराना होता है। फिर भी बिना टिकट यात्रियों का डर
बना रहता है। |