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					 कोई दस बरस हुए होंगे। उन दिनों मेरा तबादला श्रीनगर हुआ 
						था। जम्मू के स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही 
						थीं। मेरी पत्नी और मेरे दोनों बेटे भी मेरे साथ श्रीनगर 
						आए हुए थे। उन्हीं दिनों मेरे बेटे का,  जो छठी कक्षा का 
						छात्र था,  जन्मदिन आ गया। एक दिन पहले मैंने उससे पूछा,  
					"तुम्हें अपने जन्मदिन पर क्या चाहिए?" उसने एकदम कहा,  "पापा 
						बैट और बॉल।"यह सुनते ही चौथी कक्षा के छात्र मेरे छोटे बेटे ने कहा,  
						"मुझे भी बैट और बॉल चाहिए।"
 "अच्छा अच्छा,  कल शाम तुम दोनों को बाज़ार ले चलूँगा।" 
						मैंने वादा किया।
 श्रीनगर में यह मेरी पहली पोस्टिंग थी। मैं दुकानों और 
						बाज़ारों के बारे में अधिक जानता न था। दूसरे दिन मैंने 
						अपने बचपन के दोस्त मदन से खेल के सामान वाली दुकानों के 
						बारे में पूछताछ की। उसने कहा,  "वो तो बिलकुल पास में ही 
						दुकान है। बडशाह चौक से मायसोमा बाज़ार में घुसते ही दाहिनी 
						हाथ की दूसरी गली में अमीन की खेलों के सामान की दुकान है। 
						तुमने कौन-सा टेस्ट मैच के लिए सामान लेना है-बच्चों के 
						लिए वहाँ सभी कुछ मिल जाता है।"
 फिर वह थोड़ा-सा रुका और हँसते हुए कहने लगा,  "तुम्हें याद है 
						वो मुहम्मद अमीन, जब हम नवीं या दसवीं के छात्र थे तो परेड 
						ग्राउंड में उसका कोई भी मैच नहीं छोड़ते थे।"
 मैं याद करने लगा,  वह फिर बोला,  "यार तुम तो फुटबॉल खेलते 
						थे। तुम कहते नहीं थे एक दिन मैं भी अमीन की तरह सिर्फ 
						जम्मू-कश्मीर का ही नहीं,  सारे हिंदोस्तान का टॉप का 
						खिलाड़ी बन कर दिखाऊँगा, कुछ याद आया?"
 मुझे सभी कुछ याद आ गया। मैं आज भी फुटबॉल को और अमीन को 
						अपने ख़यालों से अलग नहीं कर पाया था।
 
 औसत कद का चौड़ा भारी-सा अमीन लेफ्ट आउट पोजीशन पर खेलते 
						हुए जब गेंद के पीछे भागता था तो सारे दर्शकों में शोर की 
						एक लहर उठ जाती थी। सभी में एक जोश एक उम्मीद उभरती थी कि 
						अब ज़रूर कुछ न कुछ होगा। वो जब फुटबॉल को ले कर दूसरी तरफ 
						के खिलाड़ियों को चकमा दे कर उनमें से तीर की तरह निकलता था 
						तो मेरे अपने रोएँ खड़े हो जाते थे। दिल तेजी से धड़कने लगता 
						और छाती में छलाँगे लगाने लगता था और साँस रुकती-सी प्रतीत 
						होती थी। और कभी जो वो गोल कर देता तो सिर्फ मैं ही नहीं,  सब 
						लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगते थे और फिर लगातार शोर और 
						तालियाँ ...हमारी टीम के बाकी के खिलाड़ी कभी उसे गले 
						लगाते कभी कंधों पर उठा लेते।
						स्कूल में वह लेफ्ट आउट के स्थान पर खेलता था और सिर्फ सोते 
						में ही नहीं,  जागते हुए भी स्वप्न देखते मैं बड़ा होकर अमीन 
						की तरह फुटबॉल को पाँव से ठेलते-ठेलते उसके साथ दौड़ते 
					लोगों के शोर और प्रशंसा से भरी आवाज़ों में दूसरी टीम के 
					खिलाड़ियों से बॉल निकाल कर एक अंतिम ज़ोरदार किक मार कर फुटबॉल 
					को गोल के भीतर डाल देता था...
 
 फिर ग्यारहवीं क्लास में आते-आते पढ़ाई के कारण फुटबॉल छूट 
						गया। इंजीनियरिंग की सीट पर नज़र थी,  वो मिल भी गई। 
						इंजीनियरिंग कॉलेज में भी फुटबॉल खेला पर फिर दोबारा कभी 
						वो नवीं-दसवीं क्लास में आने वाला फुटबॉल का नशा मेरे 
						दिमाग में कभी नहीं आया। अब तो फुटबॉल को किक लगाए भी पता 
						नहीं कितने बरस बीत गए हैं।
 "अरे कुछ याद आया कि नहीं? मदन अमीन के बारे में पूछ रहा 
						था। क्या सोच रहा है?" उसने मुझे देखकर कहा।
 मैंने कहा,  "क्या अमीन भी भूलने की चीज़ है, ..."ये उत्तर 
						दे कर मेरे मन में एक लहर-सी उठी,  मेरे दिलो-दिमाग पर एक 
						बड़ी सुहानी किक-सी लगा गई।
 
 दूसरे दिन मैं अपने दोनों बच्चों को लेकर माईसोमा बाज़ार 
						में गली में घुस कर अमीन की दुकान ढूँढ रहा था। गली तो यही 
						बताई थी मदन ने,  कहीं मैं गलत गली में तो नहीं आ गया, सोचता 
						हुआ मैं गली के सिरे से वापस हो लिया। जब मैं गली के 
						बीचोंबीच पहुँचा तो मेरी नज़र एक दुकान के बाहर लटके हुए दो 
						फुसफुसे और पिचके हुए फुटबॉल और एक बैट पर पड़ी। वो मैले से 
						फुटबॉल और छोटा बैट वहाँ यों लटक रहे थे जैसे उनका उस 
					दुकान के साथ कोई संबंध ही न हो। या जैसे किसी ने कई साल पहले 
					उन्हें लोगों की पहुँच से दूर टाँग दिया हो और फिर भूल गया हो 
					या फिर कहीं मर खप गया हो...
 
 यह अमीन की दुकान तो नहीं हो सकती,  यही सोच कर मैं आगे 
						बढ़ता गया। दुकान के पास पहुँच कर मैंने एक बार फिर सरसरी 
						नज़र से देखा। बाहर कई मौसमों और बरसों की मार खाए पुराने 
						मटमैले-से बोर्ड पर फीके से सुर्ख रंग के लफ़्ज़ों में लिखा 
						हुआ था,  "अमीन स्पोर्टस स्टोर"।
 
 मेरा मन अजीब-से भारीपन के साथ भर आया। "पापा चलिए न,  देर 
						हो रही है। यहाँ कितना गंदा है? " मेरा छोटा बेटा मेरी बाँह 
						पकड़ कर हिलाता हुआ कह रहा था। मैंने भी देखा,  काले से कीचड़ 
						के साथ भरी गली की नालियों में से गंदा पानी निकल कर 
						अजीब-सी बदबू फैला रहा था।
 
 मैंने एक बार फिर दुकान की तरफ देखा। सामने एक तरफ मैली 
						चिपचिपी प्लाई के काउंटर पर प्लास्टिक के मर्तबान में 
						टॉफियाँ,  सस्ते चॉकलेट,  च्यूंगम आदि रखे थे। भीतर नज़र गई 
						तो मुझे शेल्फपर सजे कुछ खिलौने भी नज़र आए। काउंटर के पीछे 
						कोई व्यक्ति अख़बार पढ़ रहा था।
 
 "आओ बच्चो,  यहाँ देख लेते हैं,  नहीं तो फिर किसी और दुकान 
						पर चलेंगे।" यह कहते-कहते मैंने दुकान की सीढ़ियों पर कदम 
						बढ़ाए। मेरे पीछे-पीछे मेरे बच्चे बेमन से आ गए। दुकानदार 
						अख़बार पीछे फेंक कर खड़ा हो गया। मुझसे नज़र मिला कर कहने 
						लगा,  "आइए जी,  बताइए क्या ख़िदमत करुँ?"
 "बैट बॉल।" मेरा छोटा बेटा तपाक से बोला।
 "अभी दिखाता हूँ...आजकल तो सभी क्रिकेट के शौकीन हैं..." कह कर वो दुकान के पिछले हिस्से में चला गया जहाँ एक 
						कोने में कई बैट दीवार के सहारे टिके हुए थे। दुकानदार ने 
						ख़ाकी रंग का पुराना-सा पर साफ खानसूट पहिना हुआ था। उसके 
						पाँव में नॉयलान की चप्पलें थीं। यों लगता था जैसे उसने 
						चार-पाँच दिन से शेव नहीं किया था। दाढ़ी के काफ़ी बाल सफेद 
						थे। उसका आधा सिर गंजा था। मैं मन में सोच रहा था क्या यही 
						अमीन है,  नहीं यह नहीं हो सकता। वक्त भी आदमी को 
					इतना नहीं बदल सकता!
 
 वह जब मैच खेलता था उसके बाद मैं उसके आगे-पीछे घूमता रहता 
						था और उसे कितनी ही बार देखा था। एकदम करीब से...पर अब तो 
					उसे देखे भी २४-२५ साल हो गए हैं। कद-काठी तो वही है,  
						हो सकता है उसका भाई हो...मैं सोचता जा रहा था।
 "ये लीजिए,  साइज़ देख लीजिए," यह कह कर उसने तीन-चार बैट 
						काउंटर पर रख दिए। दोनों बच्चे बैटों पर झपट पड़े और एक-एक 
						बैट को पकड़-पकड़ कर आपस में खुसर-फुसर करने लगे।
 मैंने पूछ ही लिया,  "माफ कीजिए,  क्या आप 
					पुराने फुटबॉलर अमीन साहेब तो नहीं हैं?"
 "मैं ही अमीन हूँ,  फरमाइए?"
 मुझे कोई झटका नहीं लगा। अब मैं हर हालत के लिए तैयार था। 
						मैंने कहा,  "दरअसल आप मुझे नहीं जानते,  पर स्कूल के दिनों 
						में मैं आपका हर मैच देखता था। १९७५ में रेल्वेज़ के साथ 
						जम्मू-कश्मीर का जो मैच हुआ था वो तो मैं कभी भूल ही नहीं 
						सकता।"
 अमीन का चेहरा दमकने लगा- "मैंने उस मैच में तीन गोल किए 
						थे,  तीनों फील्ड से पहले हाफ में। हम दो गोल पीछे थे। 
						वल्लाह क्या मैच था..." कहता-कहता वो रुक गया।
 "आप बैठिए न,  वो आपके पीछे स्टूल पड़ा है।" उसने स्टूल की 
					तरफ इशारा किया। मैंने देखा मेरे बेटे अब खुद ही पिछले कोने 
					में जा कर बैट वाले हिस्से में बैट चुन रहे थे।
 
 "अमीन चाचा,  एक डेढ़ रुपये वाली कॉपी और दो पेंसिल दीजिए।" एक 
						कश्मीरी बच्चा दुकान पर चढ़ कर सामान माँग रहा था।
 मैंने देखा काउंटर के पीछे शेल्फ पर कॉपियाँ पेंसिल और एक 
						मर्तबान में सस्ते से बॉल पैन रखे हुए थे। बच्चे ने चार 
					रुपये 
						दिए। अमीन ने सामान उसे पकड़ा कर पूछा,  "कुछ और 
					चाहिए?"
 "बचे हुए पैसों से चॉकलेट और टॉफियाँ दे दें।"
 "अच्छा।" कहते हुए अमीन ने एक मर्तबान में से टॉफियाँ 
						निकाल कर काउंटर पर रखी फिर गिनने लगा।
 "ये लो,  तीन और दो,  पाँच।"
 बच्चा सामान लेकर चला गया। गली में जाते हुए मैं उसे देखता 
						रहा।
 
 फिर अमीन ने मुझसे नज़र मिलाई। वो थोड़ा-सा शशोपंज में था। 
						मुझे देख कर कहने लगा,  "सिर्फ खेलों का सामान इस गली में बेच 
						कर घर नहीं चल सकता,  क्या करें,  घर का खर्चा चलाने के लिए 
						ये सभी कुछ रखना पड़ता है।"
 मुझे बड़ा अजीब-सा लग रहा था। वह अमीन जिसके साथ कितने ही 
						लोग और लड़के हाथ मिलाने के लिए होड़ लगाते थे,  आज वह उन्हीं 
						हाथों से कुछ पैसों की टॉफियाँ गिन रहा था।
 
 मैं अब दुकान के पिछले हिस्से में,  जहाँ मेरे दोनों बेटे 
						बैट देख चुन रहे थे,  पहुँच गया और उनकी मदद करने लगा। फिर 
						दो बैट पसंद करके मैं काउंटर पर गया और पूछा,  "ये 
					दोनों ठीक हैं न?"
 उसने बच्चों से पूछा,  "बेटा बॉल लेदर का चाहिए या 
					कार्क का?"
 उत्तर मैंने दिया,  "लेदर के बॉल ही ठीक रहेंगे। विकेटे 
						लेंगे। एक सैट विकेटों का भी दे दीजिए।"
 मेरे छोटे बेटे ने कहा,  "मैं विकेट कीपर वाले दस्ताने भी 
					लूँगा।"
 "चलो ठीक है,  आप इसके अलावा दो जोड़ी बैटिंग वाले दस्ताने 
						और दो जोड़ी लेग पैड भी दे दें। दोनों के पास पूरा-पूरा सेट 
						हो जाएगा।" मैंने अमीन से कहा।
 दोनों बच्चे खुशी से झूम उठे,  "ये बिलकुल ठीक है 
					पापा?"
 "हमारे बच्चों में क्रिकेट का कितना शौक है,  फुटबॉल में तो 
						बच्चों की दिलचस्पी ही ख़त्म होती जा रही है।" कहता हुआ 
						अमीन पीछे सामान लेने चला गया।
 
 अब तक अमीन का वो ऊँचा स्थान जो मेरी सोच में था का? नीचे 
						आ चुका था। मैं अब उसे गुज़रे वक्त का एक खिलाड़ी जो अब एक 
						छोटा-सा दुकानदार था उसी तरह देख रहा था। पुराने कपड़ों 
						में,  पाँव में नायलॉन की चप्पल पहने,  बैट,  कॉपियाँ,  
					टॉफियाँ बेचता अमीन...दुकान पर टॉफियाँ गिनता अमीन...शुक्र है मैं अमीन होने से बच गया। अब अमीन हमारा सारा 
						सामान पैक कर रहा था। मैंने वक्त गुज़ारने के लिए पूछा,  
					"मैंने तो सुना था आप बंगाल की किसी टीम में चले गए हैं?"
 
 "हाँ,  दो-तीन साल मैं क्लब में भी खेला। एक प्राइवेट 
					फर्म 
						में नौकरी भी मिल गई। मैं सिर्फ फर्म की टीम में खेलता था,  
						और कुछ न करता था। फिर हमेशा की तरह नये लड़के नये ज़ोर-शोर 
						के साथ पुराने खिलाड़ियों को पीछे धकेलते हुए आगे आ जाते 
						हैं। अब हम पुराने हो गए। तब हम भी अपने आप बाहर हो गए। 
						नौकरी के साथ जो कुछ और भी इतना प्यारा था वो भी जाता रहा। 
						खेल गया,  नौकरी गई,  पैसे गए,  शोहरत भी चली गई..." वो 
						बोलते-बोलते उदास हो गया। फिर कहने लगा,  "शुक्र है ये 
						बुजुर्गों की पुरानी दुकान थी तो गुज़ारा भर हो जाता है। दो 
						बेटियाँ हैं,  एक बेटा है। चलो,  जैसी अल्लाह की 
					मर्ज़ी!"
 
 उसने मेरा सामान पैक किया फिर बोला,  "आप ज़रा 
					रुकिये,  मैं अभी 
						आया।..." यह कह कर वो भीतर से भी कहीं और भीतर चला गया। 
						जब वह बाहर आया तो उसके हाथ में एक फुटबॉल था। उसने उसमें 
						हवा भरी और फिर हाथ से उसे फर्श पर टप्प से उछाल कर जाँचने 
						लगा। एक-दो-तीन। मुझे लगा वह हमें भूल कर खुद फुटबॉल खेलने 
						लगा है। फिर उसने फुटबॉल को ऊपर उछाल कर कैच किया और हाथ 
						में पकड़ लिया फिर हँस कर बोला,  "यह बिलकुल ठीक है।"
 अब वो फुटबॉल को हाथ में लेकर साफ कर रहा था। फिर भी तसल्ली 
						न हुई तो वह अपनी कमीज़ के अगले हिस्से के कोने के साथ बड़े 
						प्यार से फुटबॉल रगड़ने लगा जैसे पॉलिश कर रहा हो।
 जब वो साफ कर चुका तब उसके हाथों में काला सफेद रंग-बिरंगा 
						फुटबॉल सच में बड़ा चमक रहा था।
 "यह फुटबॉल बच्चों के लिए मेरी तरफ से..." कहते हुए उसने 
						फुटबॉल मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
 वह कह रहा था,  "आपके घर में पड़ा रहेगा तो बच्चे कभी-कभार 
						इसके साथ भी ज़रूर खेलेंगे।"
 मैंने कहा,  "आप मेहरबानी करके इसके भी पैसे लगाइए।"
 
 "मैंने कहा न ये मेरी ओर से है। बाकी सामान के पूरे पैसे 
						लूँगा..." यह कह कर वह सामान का बिल बनाने लगा। पर 
						बीच-बीच में बोलता जा रहा था,  "आजकल फुटबॉल कोई छोटा खेल 
						नहीं है साहेब। खिलाड़ी अच्छा हो तो सब कुछ है,  पैसा है,  
						इज़्ज़त है,  शोहरत है,  नाम है।" कहते-कहते वो थोड़ी देर के 
						लिए चुप हो गया। फिर कहने लगा,  "आप मेरी ओर न देखें। हमारी 
						बात अलग थी। हमारा वक्त दूसरा था। उस वक्त खेल में पैसे 
						न थे। हम वो हैं जिन्हें वक्त और हालात ने एक ही किक के 
						साथ यहाँ पहुँचा दिया। ये लीजिए आपका बिल..." उसने बिल 
						मेरे आगे कर दिया। मैंने पैसे देते हुए यों ही उससे पूछा,  
						"आप अकेले ही दुकान पर बैठते हैं,  मुश्किल तो नहीं आती,  
					आपका बेटा क्या कर रहा है?"
 
 उसके मुँह पर एक रौनक-सी आ गई। कहने लगा,  "आपने फुटबॉल में 
						शौकत का नाम तो सुना ही होगा, कलकत्ते के स्पोर्टिंग क्लब 
						की तरफ से खेलता है। वो मेरा बेटा है। सारे ही क्लब उसे 
						अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं। उसे पैसे का लालच भी 
						देते हैं पर वो अपने ही क्लब में टिका हुआ है। मुझे पूरा 
						यकीन है कि वो हिंदोस्तान की अगली लाइन में स्ट्राइकर 
						होगा। जर्मनी का कोच उसे छह महीने के लिए अपने साथ जर्मनी 
						ले गया है। वह पिछले ही महीने गया है। वो भी मेरी तरह 
						फारवर्ड लाइन में लेफ़्ट आउट की पोज़िशन पर खेलता है।"
 
  मेरे बच्चों ने जैसे-तैसे अपना सामान उठा लिया था। पैसे दे 
						कर बचा हुआ एक लिफाफा मैंने भी उठा लिया और उसे अलविदा कहा।
 
 हमारी दोनों आँखें मिल कर एक-दूसरे के भीतर झाँक रही थीं। 
						शायद उसी वक्त हम दोनों मुस्कुरा भी रहे थे। मैंने अपने 
						आप अपना दायाँ हाथ सामान से मुक्त करके उसकी तरफ बढ़ाया। 
						उसने बड़ी गर्मजोशी से अपना तगड़ा मगर नर्म हाथ आगे मिलाते 
						हुए कहा,  "अच्छा,  खुदा हाफिज!"
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