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					 पीतांबर 
					अभी उत्तर देने ही वाला था कि वहाँ से गुजरती दमयंती पर उसकी 
					निगाहें जा टिकीं। वह मठ के एक पुजारी की युवा विधवा थी। वर्षा 
					के कारण भीगे कपड़े उसके शरीर से चिपक गए थे। उसकी जवान देह का 
					रंग वैसा ही था, जैसा कि खौलते हुए गन्ने के रस के घने झाग का 
					होता है। कद-काठ तो उसका अधिक नहीं था, पर थी वह बेहद आकर्षक। 
					लोग उसके बारे में तरह-तरह की बातें करते थे। कुछ लोग तो उसे 
					वेश्या कहते थे, ब्राह्मण वेश्या। 
 "अरी दमयंती, कहाँ से आ रही है? पुजारी ने आवाज लगाते हुए 
					पूछा।
 
 "देख नहीं रहे हो तुम ये रेशम के कौवे?
 
 "तो तुमने अब उन मारवाड़ी व्यापारियों से भी मेलजोल बढ़ाना शुरू 
					कर दिया?
 
 दमयंती चुप रही। उसने अपनी साड़ी की तहों को निचोड़कर पानी 
					निकाला। वे दोनों उसे ललचायी नज़रों से देखते रहे। जब यह चली 
					गयी, तो पीतांबर ने कहा, "सुना है कि वह गोश्त, मच्छी, सब कुछ 
					खाती है?
 
 "हाँ, उसने तो ब्राह्मणों की नाक कटवा दी है। विधवाओं के लिए 
					जो विधान बना है, उसकी इसने रेड़ मारकर रख दी है। छीः छीः, 
					कलियुग-घोर कलियुग।"
 
 "खैर छोड़ो इसे, ये बताओ आपके यजमानों का क्या हाल है? पीतांबर 
					ने पूछा।
 
 "सब कुछ तो तुम जानते हो, और फिर भी पूछ रहे हो? मेरे बड़े भाई 
					का मुझसे झगड़ा हो गया। ज्यादा काम तो उसी ने हथिया लिया। मैं 
					तो बरबाद हो गया।"
 
 "पुजारीजी, आपको मंत्र पढ़ना तो ठीक से आते नहीं, संस्कृत आप 
					जानते नहीं, इसलिए तुम्हारे यजमान तुम से बिदक गए।"
 
 "ये बात नहीं हैं। आज जमाना ही बदल गया है। पहले तो हर यजमान 
					के घर से हर महीने एक जनेऊ, दो धोतियाँ और पाँच रुपए मिल जाते 
					थे, पर अब तो कोई इन बातों को मानता ही नहीं। अपना खर्चा बचाने 
					के लिए मेरा पुराना यजमान मणिकांत अपने दोनों बेटों को 
					कामाख्या ले गया और वहीं उनका यज्ञोपवीत करवा आया। माइतानपुर 
					के यजमानों ने अब अपने माता-पिता का श्राद्ध एक साथ ही करना 
					शुरू कर दिया है।"
 
 पुजारी अपना रोना रोए जा रहा था और पीतांबर था कि दमयंती के 
					ख्याल में खोया हुआ था। उसके दिमाग में तो, बस दमयंती का 
					आकर्षक रूप चक्कर काट रहा था। ऐसा नहीं था कि उसने नारी देह की 
					चमचमाहट पहले कभी न देखी हो। उसने दो-दो शादियाँ की थीं। जब 
					पहली से बच्चा नहीं हुआ, तो उसने दूसरी खरीद ली, जो अब वह 
					गठिया रोग से ग्रस्त हो बिस्तर से लगी पड़ी है। उसका समूचा शरीर 
					सूखकर ठठरी हो गया है।
 
 पीतांबर को हर समय यही डर खाए जाता था कि वह निस्संतान ही मर 
					जाएगा। उसकी वंशबेल खत्म हो जाएगी। उसका यह डर तब और बढ़ जाता, 
					जब पुजारी या दूसरे लोग उसके सामने यही बात छेड़ देते। इस बात 
					से उसकी दिमागी हालत भी कुछ गड़बड़ा गयी थी।
 
 "पीतांबर, गाँव वाले तुम्हारे बारे में बेपर की उड़ा रहे हैं। 
					कहते हैं कि तुम्हारा दिमाग चला गया है। तुम चिंता मत किया 
					करो, इस दुनिया में ऐसे बेशुमार लोग हैं, जिनके तुम्हारी तरह 
					बच्चा नहीं है। ये बच्चे-कच्चे, दुनियादारी सब माया है, प्रपंच 
					है। छोड़ो इसे।"
 
 पुजारी ने देखा पीतांबर की बीमार पत्नी बिस्तर पर लेटी है। 
					उसकी आँखें ऐसे जल रही हैं, जैसे अंधियारे जंगल में किसी हिंसक 
					जानवर की जलती हैं। लगता था जैसे वह यह जानने की कोशिश कर रही 
					हो कि उसके पति और पुजारी में क्या बातचीत हो रही है। उसकी 
					जलती आँखों की चमक इतनी तेज थी कि दूर से भी उसकी वेदना का 
					एहसास दे रही थी।
 
 पुजारी ने इधर-उधर देखकर पीतांबर के कान में फुसफुसाया, "मैं 
					तुम्हें इस चिंता से छुटकारा दिला सकता हूँ।"
 
 "कैसे?
 
 "इस बार गर्भपात का सवाल ही नहीं उठता। वह चार बार गर्भपात करा 
					चुकी है और हर बार घर के पिछवाड़े बाँस के झुरमुट में उसे दफना 
					चुकी है।"
 
 "तुम क्या दमयंती की बात कर रहे हो? पीतांबर में जैसे किसी 
					आवेश की लहर उठी हो, बोला, "कहना क्या चाहते हो?
 
 "यही कि अगर तुम चाहो तो दमयंती को अपना बना सकते हो।"
 
 पीतांबर उठ खड़ा हुआ। उसकी हालत ऐसी हो रही थी जैसे डूबते को 
					तिनके का सहारा मिल गया हो। पुजारी ने उसकी बीमार पत्नी की ओर 
					एक बार फिर देखा। उसकी आँखें पूरी तरह बंद थीं। शायद उसे दर्द 
					का दौरा पड़ता था।
 
 "मुझे दमयंती दिला दीजिए। मैं उसे हर तरफ का सुख दूँगा।"
 
 पुजारी के पोपले मुँह पर एक क्षण के लिए मक्कारीभरी मुस्कान 
					तैर गयी। "अच्छा, ठीक है। देखूँगा। उसकी दो छोटी बेटियाँ भी 
					हैं। तुम्हें उनके बारे में भी सोचना होगा।"
 
 पीतांबर ने अंदर जाकर 
					रुपए निकाले और पुजारी के हाथ पर रख दिये। पुजारी गुनगुनाता 
					हुआ आगे बढ़ गया।
 
 इंतजार करते हुए एक सप्ताह गुजर गया। पीतांबर का समूचा 
					अस्तित्व जैसे पुजारी पर टिक गया था। इस बीच उसने कई बार 
					दमयंती को आते-जाते देखा। देखते ही उसके भीतर और खलबली मच 
					जाती। वह उसके खयाल में इतना डूब जाता था कि दमयंती उसे 
					तरह-तरह की मुद्राओं में दिखायी देने लगती। वह हर वक्त घर के 
					बाहर ही बैठा रहता। ये दिन भी ऐसे थे कि दमयंती सड़क के दोनों 
					ओर बहने वाले नालों के किनारे उग आयी कलमी और दूसरी वनस्पतियों 
					को बटोरने आती थी। दमयंती के लंबे, भूरे बाल पीतांबर की आँखों 
					में अटक जाते।
 
 एक दिन पीतांबर ने हिम्मत जुटा ही ली। दमयंती जब हरे पत्ते तोड़ 
					रही थीं, तो वह उसके निकट गया और बोला, "अगर तुम हर रोज इसी 
					तरह कीच भरे पानी में खड़ी रहोगी, तो तुम्हें ठंड लग जाएगी।"
 
 दमयंती ने केवल एक बार उसकी ओर देखा। फिर काम में लग गयी। बोली 
					कुछ भी नहीं।
 
 "मैं नोकर को भेज दूँगा। तुम उसे बता देना जितनी वनस्पति 
					चाहिए वह इकठ्ठी कर देगा। और..." पीतांबर ने फिर कहा।
 
 लेकिन उसका वाक्य अधूरा ही रहा। दमयंती ने हिकारतभरी तीखी 
					नज़रों से जैसे ही उसकी ओर देखा, वह तुरंत वहाँ से हट गया। उसने देखा कि उसकी पत्नी 
					टूटे पंखों वाले पक्षी की तरह फिर बिस्तर पर लुढ़क गयी है।
 
 इंतजार करते-करते पीतांबर का धैर्य जवाब दे ही रहा था कि तभी 
					पुजारी आ पहुँचे। उन्हें देखकर ही वह पूछने लगा, "क्या खबर लाए 
					हो मेरे लिए, फटाफट बताओ।"
 
 पुजारी ने चारों तरफ अपनी 
					नज़र घुमायी। उसकी बीमार पत्नी लाश की तरह बिस्तर पर पड़ी थी। 
					पुजारी ने पीतांबर के कानों में फुसफुसाया, "ध्यान से सुनो। 
					मुझे एक खबर मिली है। इस समय उसका पेट बिलकुल खाली है। अभी 
					मुश्किल से एक महीना हुआ है, जब उसने अपनी पिछली करतूत का फल 
					जमीन में दबाया हैं। मैंने उससे तुम्हारे बारे में बात की थी। 
					वह एकदम लाल-पीली हो गयी। बल्कि उसने जमीन पर थूक दिया, कहने 
					लगी- "वह कुत्ता, कैसे हिम्मत की उसने ऐसी बात मुझ तक पहुँचाने 
					की, वह जानता नहीं कि मैं यजमानी ब्राह्मण कुल से हूँ और वह 
					कीड़ा नीच जाति का महाजन, मैंने उससे कहा कि जब तू पाप की कीचड़ 
					में लोट लगा ही रही है, तब ऊँची जाति क्या और नीची जाति क्या? 
					कोई ब्राह्मण लड़का तो तुझसे शादी करने से रहा। एक तो विधवा उस 
					पर से दो-दो बेटियाँ। कम-से-कम वह तुमसे शादी करने को तैयार तो 
					है।
 मैंने उसे 
					साफ-साफ कह दिया कि तुम पंचायत की रजामंदी ले लोगे, और हवन 
					करके विधिवत शादी कर लोगे। उसने तुम्हारी पत्नी के बारे में 
					पूछताछ की। मैंने उसे बताया कि तुम्हारी पत्नी तो उस तिनके की 
					तरह है जो हवा के झोंके से कभी भी उड़ सकता है। एकाएक उसने रोना 
					शुरू कर दिया, बोली- "मेरी तबियत ठीक नहीं रहती। मैं चाहती हूँ 
					कि मुझे ऐसा सहारा मिले, जो ठोस हो और बना रहने वाला हो। मैंने 
					उससे कहा, "तुम्हारी तबियत ठीक कैसे रह सकती है, मैंने सुना है 
					कि तुमने अपने पेट से चार बार कचरा निकलवाया है। अगर पंचायत ने 
					इस बात को पकड़ लिया, तो समझ 
					लो, तुम्हारा जीना दुश्वार हो 
					जाएगा। तुम अब तक इसलिए बची हुई हो कि तुम ब्राह्मण हो। 
 लेकिन कब तक चलेगा यह, उसका कहना था, "मैं कर भी क्या सकती 
					हूँ, मुझे जिंदा भी तो रहना है। अब मेरे पास न कोई काम है न 
					धंधा। सभी मुझे भ्रष्ट और पतित समझते हैं। और मेरे असामी, वे सब चोट्टे हो गए। धान का मेरा हिस्सा भी नहीं देते। मेरी 
					मजबूरी का फायदा उठाते हैं। ऐसी हालत में मै इन दो नन्हीं 
					बच्चियों को लेकर कहाँ जाऊँ? मैंने लगान भी नहीं चुकाया। एक 
					दिन मेरी जमीन की भी नीलामी हो जाएगी। बताओ मैं क्या करूँ?
 "खैर मेरे प्रस्ताव का क्या हुआ?
 
 "हाँ... हाँ... मैं उसी 
					पर आ रहा हूँ। वह तुमसे मिलना चाहती है। पूर्णमासीवाली रात 
					को... अपने ठिकाने पर... पिछवाड़े वाले कोठे में।" यह सुनते ही 
					पीतांबर गदगद हो गया। पुजारी ने इस मौके को हाथ से न जाने 
					दिया, उसके कान में फुसफुसाया, "चलो, मेरे लिए चालीस रुपए 
					निकालो। मच्छरों ने नाक में दम कर रखा है। मैंने एक मच्छरदानी 
					लानी है।"
 
 पीतांबर अब अपने घर के भीतर गया। उसने देखा कि उसकी पत्नी पूरी 
					तरह जागी हुई है। उसने उसकी चिंता किये बिना संदूकची से पैसे 
					निकाले। वापस मुड़ा तो देखा कि वह टकटकी लगाए देखे जा रही है। 
					एकाएक भड़क उठा, मुझे इस तरह घूर रही है, मैं तेरी आँखें नोंच 
					लूँगा।"
 
 पुजारी ने सुना तो सब कुछ समझ गया और पीतांबर से पैसे लेते हुए
					बोलो "देखो, अगर यह ज्यादा घूरती हो, तो इसे थोड़ी अफीम दे दो।" 
					कहकर वह अपने दो दाँतों को दिखाते हुए पोपले मुँह से हँस दिया। 
					फिर संजीदा होकर कहना शुरू किया, "लेकिन 
					उस कुतिया को पैसे की बहुत हूक है। अब सब तय हो गया है। तुम अब 
					उसे उसके उसी ठिकाने पर दबोच सकते हो।"
 
 पीतांबर ने अपनी पत्नी की 
					ओर एक नज़र डाली। उतनी दूरी से भी वह देख सकता था कि उसके माथे 
					पर पसीने की छोटी-छोटी बूँदे चू आयी हैं।
 
 अगस्त का महीना था। पूर्णमासी की रात। पीतांबर ने अपने सबसे 
					बढ़िया कपड़े पहने। फिर आइना उठा अपना चेहरा निहारने लगा। चेहरे 
					पर उसे वे झुर्रियाँ दिखायी दीं, जो एक-दूसरे को काट रहीं थीं। 
					वह दमयंती के घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में साल का घना जंगल 
					पड़ता था। उसका घर जंगल के पार, गाँव के बाहरी हिस्से में था। 
					एक तरह से यह जगह बहुत ही उपयुक्त थी, क्योंकि दमयंती यहाँ 
					निश्चिंत होकर जो मन में आए, कर सकती थी।
 
 साल के जंगल को पार करते उसे रास्ता काटता गीदड़ों का एक झुंड 
					दिखायी दिया। वह दमयंती के घर के फाटक के पास पहुँचा और चुपके 
					से उसके भीतर हो लिया। एक कमरे में मद्धिम-सी मिट्टी के तेल की 
					ढिबरी जल रही थी। उसने भीतर झाँका। दमयंती इंतजार करती पिछवाड़े 
					के कोठे से पीतांबर की हर गतिविधि देख रही थी। उसने वहीं से 
					पुकारा, "अरे इधर। यहाँ?
 
 दमयंती कोठे की टूटी हुई दीवार से लगी खड़ी थी। पीतांबर उसकी 
					आँखों में आँखें डालकर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। 
					तभी उसने सुना, वह कह रही थी, "पैसे लाए हो?
 
 वह स्तब्ध रह गया। उसे 
					उम्मीद नहीं थी कि उसका पहला सवाल पैसा ही होगा।
 
 "यह रहे। पकड़ो। मेरा जो कुछ है, सब तुम्हारा है।"
 पैसे रखते हुए उसने अपनी कमर में खोंसा हुआ बटुआ अपने ब्लाउज 
					में रख लिया। अब उसने दीया उठाया और उसे एक कमरे में ले गयी। 
					वहाँ एक खटिया पड़ी थी। यह खटिया उसके पति को गोसाई की 
					अंत्येष्टि के समय मिली थी। फूँक मारकर उसने दीया बुझा दिया।
 
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 दो माह बीत चुके थे इसी तरह पीतांबर को दमयंती के पास 
					आते-जाते। पीतांबर उसके घर से निकला ही था कि दमयंती अलसाती-सी 
					कुएँ की ओर बढ़ी और वहाँ नहाने लगी। ठीक उसी समय पुजारी आ 
					पहुँचा और बड़े व्यंग्य से बोला, "उस ब्राह्मण लड़के का संग पाने 
					के बाद तो तुम नहाती नहीं थीं? अब क्या हो गया है?
 
 दमयंती ने कोई उत्तर नहीं दिया। "जानता हूँ पीतांबर निचली जाति 
					का है। यही बात है न?
 
 एकाएक दमयंती उठ दौड़ी। वह 
					सहन के दूसरे कोने में पहुँची और वहाँ दुहरी होकर उल्टी करने 
					लगी।
 
 पुजारी लपककर उसके पास पहुँचा और धीरे-से पूछा, "यह पीतांबर का 
					ही होगा?"
 
 उसने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।
 
 वाह-कितनी बढ़िया खबर है। पीतांबर तो बच्चे के लिए तरस रहा है।
 
 दमयंती ने इस पर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
 
 अब मैं चलता हूँ और और उसे यह खबर देता हूँ। अब वह तुमसे 
					खुल्लमखुल्ला शादी कर सकता है।"
 
 फिर दमयंती के निकट आया 
					और फुसफुसाता हुआ बोला, "तुम्हारे यहाँ जो कुछ चलता रहता 
					है, लोग उससे परेशान हैं। बीच-बीच में बात भी होती रहती है कि 
					पंचायत बुलायी जाए। और सुनो...
 
 दमयंती ने कुछ नहीं सुना, वह उल्टियाँ करती रही।
 
 पुजारी कहता गया, "इस सबके बावजूद पीतांबर तुमसे शादी करने को 
					तैयार है। देखो, मै इस जनेऊ पर हाथ रखकर कसम खाता हूँ कि अगर 
					इस बार भी तुमने इस बच्चे को गिराया। तो तुम नरक की आग में 
					जलोगी।"
 
 पीतांबर को सारी खबर सुनाकर पुजारी बोला, "अब लगता है तुम्हारा 
					स्वप्न पूरा होने को है। अगर उसने इस बच्चे को न गिराया तो 
					विश्वास रखो, वह तुमसे शादी कर लेगी।"
 
 पीतांबर का समूचा शरीर 
					खुशी से थरथराने लगा, क्या यह वाकई सच है, दमयंती के पेट में 
					बच्चा मेरा ही है- होगा। पुजारी झूठ क्यों बोलेगा, मेरा ही 
					बच्चा होगा। "देखना कहीं मेरी उम्मीद पर पानी न फिर जाए। तुम 
					जानते ही हो, यदि यह बच्चा गिर गया, तो मेरी वंशबेल को आगे 
					बढ़ाने वाला कोई नहीं रहेगा। अब तो दमयंती की मुठ्ठी में ही 
					मेरी जान है।"
 
 "तुम चिन्ता मत करो। जैसे एक गिद्ध लाश की चौकसी करता है, मैं 
					भी उसी तरह दमयंती की चौकसी करूँगा। साथ ही उस बुढ़िया दाई को 
					भी चेतावनी दे दूँगा कि बच्चा गिराने के लिए वह इसे कोई 
					उल्टी-सीधी जड़ी-बूटी न दे। लेकिन खेल सारा पैसे का है। इसके 
					लिए मुझे ढेर सारी रकम चाहिए।"
 
 रकम लेने के लिए पीतांबर घर में दाखिल हुआ। उसे फिर बीमारी 
					पत्नी की छेदती पत्थर हुई आँखों का सामना करना पड़ा। उन आँखों 
					में लांछना का भाव था, चाहे उसके लिए हो या पुजारी के लिए। वह 
					जोर से गुर्राते हुए बोला, "अरी, बाँझ कुतिया। इस तरह मेरी तरफ 
					क्यों देख रही है?
 
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 पीतांबर अब हर समय अपने 
					घर के बाहर बैठ दमयंती के पेट में पल रहे अपने बच्चे के बारे 
					में सपने लेता रहता। कल्पना करता कि अब उसका बेटा अपनी पूरी 
					जवानी में हैं, और उसे नदी के किनारे घुमाने ले गया है। फिर 
					उसे ऐसे लगता कि उसकी वंश बेल उसे चमचमाते भविष्य की ओर खींचे 
					ले जा रही है।
 
 पाँच महीने बीत गए। पीतांबर ने सुन रखा था कि पाँच महीने का 
					गर्भ नष्ट नहीं किया जा सकता। वह चाह रहा था कि किसी तरह दिन 
					जल्दी-जल्दी बढ़ जाएँ।
 
 एक दिन दोपहर को तेज अंधड़ आया। चारों ओर घुप्प अँधेरा छा गया। 
					भारी वर्षा हुई। बादलों से बिजली गिरी और सहन वाले पेड़ को 
					दो-फाड़ कर गयी।
 
 ऐसी घनघोर बरसाती रात में एकाएक पीतांबर के कानों में कोई स्वर 
					सुनायी पड़ा। कोई उसे बुला रहा था। हाथ में लालटेन लेकर वह बाहर 
					की ओर लपका। एक आकृति उसकी आखों के सामने उभरी। पुजारी की थी। 
					उसके मुँह से निकल पड़ा, "अरे, पुजारीजी तुम?
 
 पुजारी घबराया हुआ-सा 
					बोला, "पीतांबर, तुम्हारी पहली पत्नी अशुभ घड़ी में मरी थी 
					न, उसी की वजह से ये सब हो रहा है।
 "क्या हो रहा है? क्या हुआ?
 "शास्त्रों में कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति की ऐसी अशुभ घड़ी 
					में मृत्यु होती है, जैसी कि तुम्हारी पत्नी की हुई थी, तो घास 
					का तिनका भी नहीं उपजता। बल्कि, जो होता भी तो वह भी जलकर राख 
					हो जाता है। तुम्हारे लिए अब सब कुछ जलकर राख हो गया।"
 
 पीतांबर लगभग चीख पड़ा, "हुआ क्या है, ईश्वर के लिए मुझे जल्दी 
					बताओ।"
 "क्या कहूँ। उसने बच्चे को नष्ट कर दिया। कहती थी कि वह किसी 
					छोटी जाति वाले का बीज अपने भीतर नहीं पनपने दे सकती।"
 
 पीतांबर के साथ सपने में 
					नदी किनारे टहलने वाले युवक का पाँव एकाएक फिसल गया और वह नदी 
					में जा गिरा।
 
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 एक रोज आधी रात को दमयंती एकाएक चौंककर उठी। उसके पिछवाड़े जमीन 
					खोदने की आवाज आ रही थी। जमीन वही थी, जहाँ कुछ रोज पहले 
					दमयंती ने अपने भ्रूण को दबाया था। दमयंती ने देखा, पीतांबर 
					पागलों की तरह जमीन खोदे जा रहा है। दमयंती का शरीर सर से पाँव 
					तक काँप गया। हिम्मत कर उसने आवाज दी, "ए महाजन, अरे महाजन, क्यों खोदे जा रहे हो जमीन?
 
 पीतांबर ने कोई जवाब नहीं 
					दिया। बस खोदता रहा।
 
 दमयंती पागलों की तरह चिल्लायी, "क्या मिलेगा तुझे वहाँ, हाँ मैंने उसे दबा दिया है। वह नर 
					ही था, पर वह मांस का एक लोथड़ा 
					भर ही था।"
 
 पीतांबर का चेहरा तमतमाया हुआ था और उसकी आँखें जल रहीं थीं, वह चीखकर बोला, "मैं उस लोथड़े को अपने इन हाथों से छूना चाहता 
					हूँ। वह मेरी वंशबेल की कड़ी थी, मेरे ही खून से बना था वह। मै 
					उसे एक बार जरूर छूकर देखूँगा।"
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