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चौधराइन ने कहा, 'मैं कोई पाठ पूजा नहीं करवाना चाहती। बस इतना चाहती हूँ कि शमशान में उन्हें जलाने का इन्तज़ाम कर दीजिए। मैं रामचन्द्र पंडित को भी बता सकती थी, लेकिन इस लिए नहीं बुलाया कि बात कहीं बिगड़ न जाए।' बात बताने ही से बिगड़ गई जब
मुल्ला खैरूद्दीन ने मसलेहतन पंडित रामचंन्द्र को बुला कर
समझाया कि -- बात जो सुलग गई थी धीरे-धीरे आग पकड़ने लगी। सवाल चौधरी और चौधराइन का नहीं हैं, सवाल अकीदों का है। सारी कौम, सारी कम्युनिटि और मज़हब का है। चौधराइन की हिम्मत कैसे हुई कि वह अपने शौहर को दफ़न करने की बजाय जलाने पर तैयार हो गई। वह क्या इसलाम के आईन नहीं जानती?' कुछ लोगों ने चौधराइन से
मिलने की भी ज़िद की। चौधराइन ने बड़े धीरज से कहा, दिन चढ़ते-चढ़ते चौधराइन की
बेचैनी बढ़ने लगी। जिस बात को वह सुलह सफाई से निपटना चाहती थी
वह तूल पकड़ने लगी। चौधरी साहब की इस ख़्वाहिश के पीछे कोई
पेचीदा प्लाट, कहानी या राज़ की बात नहीं थी। ना ही कोई ऐसा
फलसफ़ा था जो किसी दीन मज़हब या अकीदे से ज़ुड़ता हो। एक
सीधी-सादी इन्सानी ख्व़ाहिश थी कि मरने के बाद मेरा कोई नाम व
निशान ना रहे। बरसों पहले यह बात बीवी से हुई थी, पर जीते जी कहाँ कोई ऐसी तफ़सील में झाँक कर देखता है। और यह बात उस ख़्वाहिश को पूरा करना चौधराइन की मुहब्बत और भरोसे का सुबूत था। यह क्या कि आदमी आँख से ओझल हुआ और आप तमाम ओहदो पैमान भूल गए। चौधराइन ने एक बार बीरू को
भेजकर रामचंद्र पंडित को बुलाने की कोशिश भी की थी लेकिन पंडित
मिला ही नहीं। उसके चौकीदार ने कहा -- |
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