ललित निबंध के पुरोधा विद्यानिवास मिश्र
डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
ललित निबन्ध नामक विधा जो अनेक दशकों से हिन्दी में बहुत लोकप्रिय हुई है, इसका उद्भव यद्यपि बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र आदि के काल से बाबू गुलाबराय तक की घटना माना जा सकता है किन्तु उनके निबन्ध ललित निबन्ध के पूर्वाभास मात्र कहे जा सकते हैं। आज ललित निबन्ध की जो विधा हिन्दी में सुपरिचित और लोकप्रिय है उसकी पहचान हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय आदि की दी हुई
है।
ललित निबन्ध में किसी विषय विशेष का प्रतिपादन नहीं
होता, न शोध या अनुसंधान की बात होती है। वह तो
वैयक्तिक उद्दाम भावनाओं की उपज होता है। विद्यानिवास
जी तभी तो इसे व्यक्तिव्यंजक निबन्ध या रंजक निबन्ध,
अज्ञेय जी आत्मव्यंजक निबन्ध कहा करते थे। रामचन्द्र
शुक्ल ने भी इस प्रकार की नई निबन्ध विधा का परिचय
देते हुए निबन्धों के विचारात्मक और भावात्मक दो भेद
बताए तथा आज हम जिसे ललित निबन्ध कहते हैं, उसे
उन्होंने भावात्मक निबन्ध कहना चाहा। हिन्दी में इसका
आयात सीधे अंग्रेजी से न होकर बांग्ला आदि भारतीय
भाषाओं से हुआ है। तभी तो बांग्ला भाषा के सान्निध्य
के कारण संस्कृत जैसी क्लासिकी भाषा में भी ललित
निबन्ध की अवतारणा हिन्दी में उसके प्रचलन के साथ ही,
बल्कि कुछ विद्वानों के अनुसार उससे पूर्व ही हो
गई थी। संस्कृत के ललित
निबन्धकारों ऋषीकेश भट्टाचार्य और भट्टमथुरानाथ
शास्त्री आदि के निबन्ध संस्कृत पत्रिकाओं में बीसवीं
सदी के प्रथम चरण में छप चुके थे। रामचन्द्र शुक्ल ने
इसका स्पष्ट संकेत दिया है कि भावात्मक निबंधों की
अवतारणा बांग्ला साहित्य के प्रभाव के फलस्वरूप हुई।
पत्रकारिता की छत्रछाया में इस प्रकार के रंजक, हृदयावर्जक और लालित्यपूर्ण भावभरे निबन्ध हिन्दी में उसी प्रकार लोकप्रिय हुए जिस प्रकार पटना विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के आचार्य हरिमोहन झा के खट्टर काका के नाम से लिखे मैथिली भाषा के विनोदात्मक ललित निबन्ध जो हिन्दी में धर्मयुग आदि
पत्रिकाओं में खूब छपते थे। हिन्दी में ऐसे निबन्धों के पुरोधाओं में हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रभाकर माचवे, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय आदि गिनाये जाते हैं, किन्तु लालित्य और शैली की प्रभाविता के साथ-साथ परिमाण की विपुलता को भी यदि कसौटी माना जाए तो विद्यानिवास मिश्र जी इस पंक्ति में निर्विवाद रूप से अग्रणी ठहरते हैं। उनके ललित निबन्धों के संग्रहों की संख्या
२०-२५
से भी अधिक हो गई है।
किसी विषय विशेष को लेकर उनके ललित शैली में लिखे निबन्ध अलग हैं, जैसे जयदेव के गीतिकाव्य
"गीत गोविन्द"
को आधार बनाकर लिखा "राधा
माधव रंग रँगी", अथवा
महाभारत का काव्यार्थ या "साहित्य
का खुला आकाश।" जो विषय
विशेष पर लिखे निबन्धों के संग्रह हैं। उनके हृदय से
निकले ललित निबंध तो वे हैं जिनमें कहीं गाँव के
खलिहान में खुशी से झूमते अल्हड़ किसान के मुँह से
निकले भोजपुरी लोकगीत का आह्लाद है, कहीं धान कूटती
ग्रामीण युवतियों की
चूड़ियों की खनक है,
कहीं संयुक्त परिवार की नववधुओं की मंद-मंद हँसी।
विद्यानिवास जी के ललित निबंधों में भी भाव तरंगों के
थपेडों के साथ कभी संस्कृत कवियों की सूक्तियों की
फुहारें आ जाती हैं, कभी पौराणिक और सांस्कृतिक
परम्पराओं के साथ लोकमानस की एकात्मता की बयार। उनकी
बहुश्रुतता कभी-कभी भावात्मक या व्यक्तिव्यंजक निबन्ध
में भी किसी उत्कृष्ट विचार विशेष को या अनछुए तथ्य को
स्थापित करती दिखलाई देती है। इसलिए भावात्मक निबंध
में कभी-कभी वैचारिक निबंध की-सी छटा आ जाती है। दूसरी
ओर उनके वैचारिक निबंधों में कहीं-कहीं ललित निबंध की
शैली आद्योपांत चलती हुई लगती है। उनके निबंधों में इन
दोनों परिभाषाओं का संवाद या संसृष्टि निरन्तर पाई
जाती है। "फागुन दुइ रे
दिना" शीर्षक निबन्ध संकलन
में वे बसन्त ऋतु के पर्वों पर लिखते हुए जब शिवरात्रि
के बारे में सोचते हैं, तो कहते हैं-
"शिव हमारी गाथाओं में बडे यायावर हैं। बस जब मन में आया, बैल पर बोझा लादा, पार्वती के संग निकल पडे, बौराह वेष में। लोग ऐसे शिव को पहचान नहीं पाते। ऐसे यायावर विरूपिए को कौन शिव मानेगा? वह भी कभी-कभी हाथ में खप्पर लिए। ऐसा भिखमंगा क्या शिव
है? साथ ही कह उठते हैं, हाँ, यह जो भीख माँग रहा है,
वह अहंकार की भीख है। लाओ, अपना अहंकार इसमें डाल दो।
उसे सब जगह भीख नहीं मिलती। कभी-कभी वह बहुत ऐश्वर्य
देता है और पार्वती बिगड़ती है क्या अपात्र को आप देते
हैं। शिव हँसते हैं, कहते हैं, इस ऐश्वर्य की गति
जानती हो, क्या है? मद है। और
मद की गति तो काकभुशुंडि
से पूछो, रावण से पूछो, बाणासुर से पूछो।
विद्यानिवास जी यहाँ कहना चाहते हैं कि शिव कभी-कभी ऐश्वर्य देकर उसे मदमत्त बना देते हैं जिसे अपनी करनी का फल भोगने देना चाहते हैं। वे देवताओं को पीड़ित अवश्य करता है, किन्तु उसका औचित्य मिश्र जी इन शब्दों में देते हैं - पार्वती छेड़ती है कि आप देवताओं को सताने वालों को इतना प्रतापी क्यों बनाते हैं? शिव अट्टहास कर उठते हैं, उन्हें प्रतापी न बनायें तो देवता आलसी हो जाएँ, उन्हें झकझोरने के लिए कुछ कौतुक करना पड़ता है।
यह मिश्र जी की अपनी उद्भावना है जिसमें पुराणकथाओं के संदर्भ और जीवनदर्शन भी छिपे हैं, किन्तु भावधारा और कल्पना की उडान उनकी अपनी है। इस निबंध का शीर्षक है -
"लाओ अपना अहंकार इसमें डाल दो।" "फागुन दुइ रे दिना" शीर्षक निबन्ध संग्रह उनके दिल्ली निवास के दिनों में लिखा
३१ निबन्धों का संकलन है, जब वे नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक थे। इसमें कलकत्ता विश्वविद्यालय में दिए गए कुछ व्याख्यान भी मुद्रित हैं।
"मेरे राम का मुकुट भीग रहा
है" शीर्षक निबन्ध संकलन में अधिकांश निबन्ध वे हैं, जो विंध्यप्रदेश और मध्यभारत में सेवाकार्य के प्रसंग में की गई यायावरी के दौरान लिखे गये। इनमें इस
क्षेत्र के किसी स्थल विशेष को देखकर उमड़ी भावधाराओं के बहाने उन्होंने अपनी भावनाएँ तो व्यक्त की ही हैं, अनेक ऐतिहासिक तथ्य भी उजागर किए हैं। इस प्रकार ये
सत्रह निबन्ध यात्रवृत्त, स्थल वृत्त, विचारात्मक निबन्ध और ललित निबन्ध, इन सबके कुछ लक्षण समाहित किए हुए हैं। इनमें
"कलचुरियों की राजधानी
गुर्गी" शीर्षक से उस ऐतिहासिक और अल्पज्ञात स्थल का विवरण है, जिसके प्रसंग में उसके राजा गांगेय का स्मरण करते हुए मिश्र जी "कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगऊ
तेली" कहावत का यह असली रहस्य बतलाते हैं कि गंगू
अर्थात् गांगेय
कलचुरि नरेश और तेली अर्थात् चालुका नरेश तैलय दोनों
मिलकर भी राजा भोज को नहीं हरा पाए थे। इसी पर चल पड़ी
थी यह कहावत।
मिश्र जी को ललित निबन्ध में उमड़ने वाली भावनाओं की धारा बहाने के लिए किसी ऐसे प्रेरणास्रोत के बहाने
मात्र की आवश्यकता थी जो उनकी उद्दाम विचार तरंगों को प्रेरित कर दे। बसन्त ऋतु का प्रकृति सौंदर्य, प्रकृति की गोद में पलने वाली लोकभावनाओें को अभिव्यक्ति देने वाला कोई भोजपुरी लोकगीत, कोई भावभीना मनोरम दृश्य या उत्सव संदेश उन्हें मनोरम शैली में निबन्ध लिखने को प्रेरित कर देता था जिसके प्रतीक हैं उनके ऐसे निबन्ध जिनके शीर्षक सुनते ही उनकी विषय वस्तु का आभास भी हो सकता है और प्रेरणास्रोत का भी। "शैफाली झर रही है",
"कदंब की फूली डाल",
"आँगन का पंछी और बनजारा मन",
"बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं",
"चितवन की छाँह" ये उनके कुछ निबन्ध
संग्रहों के शीर्षक
हैं, जिनका कारण उनमें संकलित इसी शीर्षक के निबन्ध
है।
सूरदास का वह पद जिसमें अल्हड कृष्ण ब्रज के उपवन में फूल चुनती राधा को धमकाने के बहाने अपनी बनाते हैं,हम सबने सुना है -
'कौन तू फुलवा बीनन हारी।' इसकी प्रेरणा से लिखा इसी शीर्षक का विद्यानिवास जी का निबन्ध और इसी शीर्षक का निबन्ध संग्रह सुप्रसिद्ध है।
इसी प्रकार काव्य पंक्तियों के संदर्भ से लिखे निबन्ध और निबन्ध संग्रह हैं
'तुम चंदन हम पानी', 'लागौ रंग हरी' आदि। अन्य निबंध संग्रह हैं -
'अस्मिता के लिए', 'अग्निरथ', 'परंपरा बंधन नहीं', 'कँटीले तारों के आर पार',
'भ्रमरानंद के पत्र', 'अंगद की नियति', 'तुलसी मंजरी'
आदि।
प्रारम्भ में मिश्र जी के ललित निबन्ध धर्मयुग आदि
पत्रिकाओं के लिए लिखे गए और उन्हीं में छपे, फिर पुस्तकाकार में। बाद में वे ऐसे निबन्धों को श्रुतलेख देकर लिखाने लगे, विशेषकर उन दिनों जब वे नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक या संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय या काशी विद्यापीठ, बनारस के कुलपति के रूप में अधिक व्यस्त रहने लगे। वैसे उनके ललित निबन्धों से इतर निबन्ध या प्रबन्ध अथवा विशिष्ट भाष जो आज ग्रंथ के रूप में उपलब्ध हैं किसी विशिष्ट अवसर पर दिए स्मारक भाषण, विशिष्ट व्याख्यान माला या उनके द्वारा संपादित
'साहित्य अमृत' जैसी
पत्रिकाओं के संपादकीयों के संपादित रूप हैं, जो कार्य विशेष या विषय विशेष को आधार बनाकर मिश्र जी से लिखवाए गए या बुलवाए गए।
'साहित्य का खुला आकाश' नामक ग्रंथ साहित्य अमृत के संपादकीयों का संकलन है,
'महाभारत का काव्यार्थ' अज्ञेय
जी द्वारा डॉ. वत्सल
निधि की ओर से डॉ. हीरानन्द शास्त्री व्याख्यान माला
की पाँचवीं लडी के रूप में दिलवाए गए तीन व्याख्यानों
का संकलन है।
जयपुर का साहित्य जगत आज भी भूला नहीं है कि आकाशवाणी जयपुर के आमंत्रण पर मिश्र जी ने सन्
१९९४ के ३० नवम्बर और १ दिसम्बर को आकाशवाणी की राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान माला में साधुमन और लोकमत पर दो व्याख्यान दिए थे जिनकी शैली ललित निबंधों की सी थी और जिनके प्रेरणा स्रोत थी, तुलसी के मानस की वह अर्धाली
'टरत विनय सादर सुनिय करिय विचार बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनयतिगम निचोरि।' ये दोनों व्याख्यान
'स्वरूप विमर्श' शीर्षक निबंध संग्रह में बाद में
छपे।
इसी प्रकार जयपुर के विख्यात संपादक और वेद विज्ञान के अध्येता कर्पूरचन्द्र कुलिश की प्रेरणा से भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा जयपुर में गीत गोविन्द पर उनके व्याख्यान करवाए गए। कलकत्ता में भी गीत गोविंद पर व्याख्यान आयोजित किए गए। इन सब का संपादित और परिवर्धित रूप है उनका प्रसिद्ध ग्रंथ
"राधा माधव रंग रँगी।" यह समूचा ग्रंथ ललित निबन्ध की शैली में लिखा गया
है।
पद्मभूषण विद्यानिवास मिश्र राज्यसभा सांसद के रूप में कार्य करते हुए १४ फरवरी २००५ को एक सडक दुर्घटना के कारण लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में जब दिवंगत हुए तो साहित्य जगत् को यह एहसास होना स्वाभाविक ही था कि हिन्दी के ललित निबन्धों का पुरोधा असमय ही चला
गया। |