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							साहित्य के प्रश्न
 डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय
 
 
							भारतीय साहित्य के वर्तमान प्रश्न प्रायः भूमंडलीकरण 
							की उपज हैं। चाहे वे व्यक्तिगत हों, स्थानीय हों, 
							राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय हों ! यहाँ हम उन प्रमुख 
							प्रश्नों को लेते हैं जो साहित्य का मूल सरोकार हैं:१. भाषाओं का लोप होते जाना
 २. संवेदनाओं का कुंठित होना।
 ३. किसानों, ग्रामों और गरीबों से कटना
 ४. लेखन में प्रतिरोध या प्रतिपक्ष की कृत्रिमता।
 लगता है इन मुद्दों के विस्तार में जाने पर हम उन सभी 
							प्रश्नों से 
							दो-चार हो सकते हैं जो षिराओं की तरह इनमें फैले हैं।
 
 बाजारवाद 
							के दौर में पहला संकट भाषा पर है - अधिक गहरा यह कि 
							लोगों की निगाह में वह भाषा के प्रसार का खुशनुमा वहम 
							पैदा किए हुए है। हमें लगता है कि हमारी भाषा कितनी 
							फैल रही है - सब जगह तो है। टी.वी. चैनलों पर, फिल्मों 
							में, कंप्यूटर पर, विज्ञापनों में... सब जगह। संकट को 
							सुख में, संताप को आत्ममुग्धता में बदल देना इस बाज़ार 
							की नई कला है। ऊपर से फैलती हरियाली का प्रिज़्म और 
							नीचे से जड़ें काटने की अअदृश्य क्रियाएँ !
 
 भाषा को नष्ट करने का सबसे कारगर उपाय है उसकी लिपि 
							का, उसकी भाषिक संरचना का लोप करना और शब्द को अर्थ से 
							तथा अर्थ को शब्द से विलग करना। इस तरह उसकी अस्मिता, 
							अभिव्यक्ति और संस्कृति को तिरोहित करना। लिपि का अर्थ 
							सिर्फ लिपि नहीं है, संपूर्ण भाषिक जीवन, भाषिक 
							उपलब्धि, सोच, सर्जना और संवाद का संसार है, लिपि उसकी 
							अलगनी भर नहीं है। यह वह घर है जहाँ भाषा अपने कुनबे 
							के साथ रहती है।
 
 दो प्रयोग चल रहे हैं - एक तथाकथित देशी जिसमें कहा जा 
							रहा है - अगर लिपि नष्ट होने से भाषा नष्ट हो जाती है 
							तो लिपि हम अपनी बनाए रखें और अंग्रेजी शब्दों को 
							उसमें डाल दें, क्योंकि वे हमारे प्रयोग में आ गए हैं 
							और ‘हमारे’ ही बन गए हैं ! भाषा की रचना, उसके 
							व्यक्तित्व का निर्माण, उसके भीतर अपनी बौद्धिक, 
							वैचारिक और सर्जनात्मक अभिव्यंजना को रूपित करने का एक 
							पूरा विज्ञान है, यहाँ वह बहस नहीं उठाना है। इतना भर 
							कहना है कि भाषा को अपदस्थ करने का यह 
							पहला सोपान है।
 
 दूसरा प्रयोग है कि अगर लिपि भाषा की ‘अलगनी’ है तो हम 
							आपकी भाषा को अंतरराष्ट्रीय और आपके पूरे देश में 
							फैलाने के लिए लिपि अपनी रखते हैं और आपकी भाषा डाल 
							देते हैं। क्योंकि हमारी लिपि ‘आपका पूरा देश समझता’ 
							है। पेट्रोल पंपों, प्रचार पट्टों और कई जगह हिंदी और 
							प्रांतीय भाषाओं में लिखे ऐसे जुमले हम देख रहे हैं जो 
							कामचलाऊ बाजारू के अलावा कुछ नहीं है। बहरहाल यह भी 
							भाषा को विस्थापित करने का एक शोषा है।
 
 भाषा के ये दोनों प्रयोग हमारी भाषा को ‘बोली’ में 
							समेटकर उसके भाषिक रूप को नष्ट करने के विकल्प हैं। 
							जिस मिश्रित भाषा को हम बाजार में सब जगह बोली के रूप 
							में भी सुनते-बोलते हैं उससे भाषा नहीं फैलती, बाज़ार 
							फैलता है। भाषा के विकास में बाज़ार एक उपकरण जरूर है 
							पर भाषा के जो तमाम कारक हैं उन्हें बाज़ार के हाथों 
							सौंपना साम्राज्यवाद के इस नए रूप के आगे अपनी अस्मिता 
							का समर्पण है, क्योंकि बाज़ार इस भाषा को प्रायोजित कर 
							रहा है - इस तरह की प्रायोजना और कृत्रिम मानसिक, 
							व्यावहारिक दबाव पैदा कर भाषा को धीरे-धीरे मिश्रण के 
							जरिए नष्ट करना और उसे भाषा की गतिशीलता और जीवंतता का 
							माध्यम कहना उन सब माध्यमों का तिरस्कार है जिनसे भाषा 
							की अस्मिता बनती है जिनमें लोक भाषाओं, अन्य भगिनी 
							भाषाओं, भाषा के नए प्रयोगों और जरूरत पड़ने पर आयात 
							वैश्विक भाषाओं का 
							योगदान होता है।
 
 भाषा के वैष्वीकरण का यह ‘गतिशील’, ‘उदार’ मानस वास्तव 
							में उन युद्धक वायुयानों की तरह है जो तोप के गोले 
							उगलते टैंकों की रक्षा करते हैं। इन्हें कंपनियों, 
							कार्यालयों, षिक्षा संस्थाओं में बढ़ती अंग्रेजी की 
							रक्षा करना है। हमारी अगली पीढ़ियाँ जो इन 
							षिक्षा-संस्थाओं में सम्य, दीक्षित होंगी, जब हमारा 
							साहित्य पढ़ेगी ही नहीं, तब हम लिखेंगे किसके लिए ? और 
							भारतीय भाषाएँ जो विश्व की सर्वाधिक समृद्ध भाषाएँ 
							हैं, उनकी समृद्ध परंपरा का क्या होगा ? हिंदी अपने 
							‘आधुनिक’ स्खलन 
							में अव्वल है जबकि उस पर भारतीय भाषाओं की रक्षा और 
							संवर्धन की सर्वाधिक जिम्मेदारी है।
 
 भारतीय भाषाओं के बौद्धिक और वैचारिक लेखन का अधिकतर 
							हिस्सा अपनी भाषाओं में नहीं लिखा जा रहा है। अवसर की 
							ऐसी ताजपोशी बौद्धिकों के लिए बहुत शोभा देने लायक 
							नहीं है। अवसर मिलते ही सर्जनात्मक लेखक अपनी भाषाई 
							भूमिका बदल रहे हैं।
 
 हम समझते हैं कि हमने सिर्फ बाज़ार को बुलाया है। नहीं। 
							वह अकेला नहीं आता, अपनी सभ्यता, संस्कृति और मस्तिष्क 
							लेकर आता है। हमारे खाने से लगाकर, बैठने-सोने के कमरे 
							तक, हमारी वाक् से लगाकर हमारे मन तक, सुख-दुख, 
							रहन-सहन में घुसता चला आ रहा है। वह अभी हमें लुभा रहा 
							है, जैसे नया दुकानदार लुभाता है, परंतु जब उसका 
							एकाधिकार हो जाएगा तो वह हमें धीरे-धीरे कुतरना और 
							खाना षुरू कर देगा और अंत में चबा ही जाएगा। सब कुछ 
							जानकर भी हम उसके 
							मुँह में पड़कर असहाय हो जाएँगे। भारतीय भाषाओं की हालत 
							भी यही होनी है।
 
 संवेदना साहित्य का केंद्र है, वही साहित्य की अपनी 
							पहचान है और ज्ञान-विज्ञान की शेष विधाओं से उसे अलग 
							करती है। आज हमारे जीवन में संवेदना की जगह सूचना ने 
							ले ली है। यह जानते हुए भी कि सूचना-संचार ने हमारे 
							संसार को इतना कुछ दिया है जिसकी कोई सानी नहीं, हम 
							उसके ऋणी हैं, परंतु उसने मानवता की जो सबसे ज़्यादा 
							क्षति की है वह यह कि उसने हमारी संवेदना को कुंठित कर 
							दिया है, सुख-दुख के सघन अतिवाद से हमारे अनुभव जगत 
							को, हमारे स्पर्श, घ्राण और ऐद्रिंय संवेदना के मौलिक 
							केंद्रों को निष्प्रभावी कर दिया है।
 
 जब सारे अतिवाद 
							आदमी में इकट्ठा हो जाते हैं तो वह सबसे कटकर अकेला 
							जीने लगता है, आत्मकेद्रिंत हो जाता है। ज्ञान के सारे 
							स्रोत, सुविधा के सारे उपकरण, दोस्त-दुश्मन, सुख-दुख, 
							प्रेम-सेक्स सब उसकी उँगली की नोक पर हैं। वह कहीं से 
							भी पराश्रित नहीं है। तब परस्परता कैसी, कैसा भाईचारा, 
							कौन-सा समाज और कौन-सा देश ! आपको इस कथन में अतिरंजना 
							लगती होगी, पर वायवी यथार्थ (वर्चुअल रियलिटी) के इस 
							युग में कैसी अतिरंजना ?
 
 साहित्यकार भी आखिर इंसान ही है, वह भी इन तमाम लोगों 
							में शामिल है जिनका ब्योरा ऊपर दिया गया है। क्या हम 
							नहीं देखते कि नया लेखन किस तरह दो शरीरों के बीच के 
							निःशब्द आवेग में बदल रहा है ? लगता है साहित्य में
							समाज-सापेक्ष सोच 
							का युग ढल चुका है - यह कुछ बूढ़े या जवानी में बुढ़ा गए 
							नौजवानों की चिंता रह गई है।
 
 नया लेखक सामाजिक वस्तु में भी सैक्स के ऐसे 
							‘ब्लैकहोल’ बना रहा है, जहाँ पाठक की चेतना डूब जाए ! 
							जैसे आसपास रहते हुए भी वही दुनिया शराब के नषे में 
							नाम-रूप-संबंध विहीन हो जाती है वही हाल इस ‘डूब’ ने 
							बना दिया है। संवेदन की संपूर्णता के वास्ते ही लेखक 
							से उम्मीद की जाती है कि वह वस्तु से संपृक्ति के 
							क्षणों में अपनी दूरी बनाए ताकि विषयगतता, 
							सबजैक्टिविटी का सम्मोहन उस पर से उतरे और रचना एक 
							निर्भ्रांत रूपाकार में संपूर्ण उभरे। पर हो क्या रहा 
							है ? वह सामाजिक या मानवीय वस्तु उठा तो लेता है, पर 
							संपृक्ति के लिए उन अवसरों की तलाश में रहता है जिनमें 
							वह भी डूब जाए और उसका पाठक भी। डूब की इस हालत में 
							‘वस्तु’ अनाकर्षक हो जाती है और किसी हद तक उसका कंकाल 
							बचा रहता है और पाठक के मस्तिष्क में वही चीज़ें घूमती 
							रहती हैं जो चटनी की तरह इस्तेमाल की गई हैं और आलोचक 
							उस रचना की व्याख्या विद्रूप के सहारे सामाजिकता को 
							उभारने वाले उपकरण के रूप में करते हैं। एक-से-एक 
							कलात्मक, खूबसूरत, भाषा और शिल्प, जिस पर रीझ जाने का, 
							जिन्हें चुरा लेने का मन होता है - अंततः किन चीज़ों का
							उपकरण बनने के 
							वास्ते हैं ?
 
 फिलहाल मैं ‘सामाजिक वस्तु’ के प्रकार पर तो बात ही 
							नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मुझे मालूम है कि इस ग्लोबल 
							चमक में लेखक को पता नहीं होगा कि पिछले बीस सालों में 
							हिंदुस्तान में अमीरी और गरीबी का अनुपात दुगुना हो 
							गया है, कि इन्हीं सालों में ढाई लाख किसानों ने 
							आत्महत्या की है, कि भोपाल गैस त्रासदी की २६वीं बरसी 
							के बीतते भी कोई बड़ी, मुकम्मल रचना उस पर नहीं आई है, 
							कि फुकुषिमा के परमाणु संयंत्र में हुए ध्वंस को जापान 
							के बच्चे हिरोशिमा-नागासाकी के परमाणु आक्रमणों की कड़ी 
							में नई विपदा जैसा महसूस कर रहे हैं, कि एक तानाशाह की 
							खोज में इराक तबाह किया जा चुका है और पता नहीं दुनिया 
							का ‘तानाशाह-सरगना’ कितना कहर और बरसने वाला है ? 
							बहरहाल, आगे आने वाली पीढ़ी 
							यदि पूछने लगे कि ‘अंकल, 
							संवेदना क्या चीज है ?’ तो अचरज नहीं होना चाहिए ?
 
 नए साहित्य को 
							पढ़ते हुए मुझे यह लग रहा है कि सामाजिक, राजनीतिक, 
							आर्थिक, मानवीय विषयवस्तु का तेज़ी से संकुचन हो रहा 
							है, स्त्री-पुरुष के नए व्यक्तिगत संबंध नई वैचारिक 
							सत्ता हासिल करने लगे हैं। भाषा और कला की खूबसूरत 
							नक्काशी की बात ऊपर कह चुका हूँ। निश्चय ही नए लेखक को 
							इसमें महारत हासिल है, एक खुशनुमा बगीचा दिखाई देता है 
							जिसमें गंध है, ताजगी और मोहकता है। क्या नया कलावाद 
							जन्म ले रहा है ? भूमंडलीकरण में यह स्वाभाविक है। यह 
							भी तो एक तरह का कलावाद ही है। बहुत सालों पहले मैंने 
							कहा था - ‘उत्तर आधुनिकता भूमंडलीकरण का थिंक टैंक 
							है।’ तर्क मैंने जरूर दिए थे, पर लगता है किसी सच्ची 
							‘अंतः प्रेरणा’ से यह बात निकली थी ! क्योंकि अंततः 
							उत्तर आधुनिकता और उत्तर संरचनावाद भी तो एक तरह का 
							कलावाद ही है।
 
 गाँव एक जीवन है, जानकारी भर नहीं, वहाँ हमारे मौलिक 
							सरल जीवन का निवास है। वह हमारी जनपदीय भाषाएँ, 
							लोकगीत, लोक-कथाएँ, मुहावरे, प्रकृति और कृषि की 
							जन्मभूमि है। पारंपरिक ही नहीं, अभी कल तक का आधुनिक 
							साहित्य गाँवों से प्राण-रस पाता रहा है। ज़्यादा 
							वक़्त नहीं हुआ, जब हमारे लेखक प्रायः गाँवों से ही 
							आते थे या किसी-न-किसी रूप में गाँवों से जुड़े रहते 
							थे। आधुनिक अभिव्यक्ति में भी गाँव की शिनाख़्त की जा 
							सकती थी। धीरे-धीरे लेखक 
							गाँव से दूर होता गया - 
							कथ्य और षिल्प दोनों तरह से। आज तो पराकाष्ठा है।
 
 वैश्विकता के युग में लेखक वैश्विक होना चाहता है, 
							परंतु हर युग में लेखक की यही कामना रही है, पर 
							स्थानीयता में भी विश्व जन्म लेता है। संसार भर की 
							स्थानीयता ने वैश्विकता रची है। पर नया लेखक उसका 
							प्रमाण विदेशी रचनाओं, वस्तुओं, मुहावरों, उद्धरणों से 
							देना चाहता है। जिसे वह अपना विस्तार समझ रहा है वह 
							ज्ञान या जानकारी की स्थूलता है और आत्म-प्रदर्शन का 
							सरलीकरण। इन सब बातों से सर्जना की वैश्विकता का सृजन 
							नहीं होता। इस तरह का प्रदर्शन - मानों लेखक हिंदी या 
							भारतीय लेखकों को छोड़कर सब कुछ पढ़ते हैं। अगर आप अपनी 
							भाषा के लेखकों को नहीं पढ़ रहे 
							हैं तो आपको कौन पढ़ेगा? 
							और आप किस समाज के भीतर अपनी ‘वैश्विकता’ का प्रदर्शन 
							करेंगे?
 
 अतिवादी 
							मनोवृत्ति पेंडुलम की तरह इस सिरे को छोड़कर उस सिरे 
							पहुँचती है। गाँव से छूटा साहित्य का पेंडुलम सीधे 
							अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस या रूस... में ही पहुँचता 
							है। जिन चीज़ों का ज़िक्र ऊपर किया गया है वे तो हैं ही, 
							हिंदी की रचनाएँ कभी-कभी विदेशी रचनाओं का रूपांतरण 
							लगती हैं। षैली और जीवन के रुझानों में तो अकसर।
 
 साहित्य सदा उन लोगों और समुदायों के साथ खड़ा होता रहा 
							है जो शोषित हैं, कमज़ोर हैं, असहाय हैं। वह उन 
							मनोवृत्तियों और चिंताओं के साथ खड़ा होता है जो 
							रूढ़ियों और पाखंडों से मुक्ति चाहती है, जो अभिव्यक्ति 
							की स्वाधीनता चाहती है। जो मनुष्यों के उन सरोकारों से 
							जुड़ी है जो उसकी रक्षा और विकास करते हैं। इन बातों का 
							संबंध किसी वाद या विचारधारा से नहीं है। न साहित्य के 
							इन प्रश्नों को किसी राजनीतिक सत्ता के उदय या अस्त से 
							जोड़कर स्थगित या प्रगत किया जा सकता है। इन चिंताओं, 
							सरोकारों को सत्ता कभी पसंद नहीं करतीं। ये अनंत काल 
							से सत्ता के प्रतिपक्ष 
							रहे हैं - साक्रेटीज या 
							शूद्रक के जमाने से लेकर मुक्तिबोध, अज्ञेय के जमाने 
							तक। इसलिए साहित्य को सदा सत्ता के प्रतिपक्ष में खड़ा 
							रहना पड़ता है - राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, वैश्विक 
							स्तर पर भी।
 
 लेकिन आज साहित्य न तो भाँति भाँति के उत्पीड़नों के 
							खि़लाफ़ खड़ा लगता है न बंधनों के, जो नए युग में नई-नई 
							शक्लें ले चुके हैं। नए संसाधन, नई संरचना के साथ 
							नई-नई समस्याएँ पैदा हो गई हैं - नए बंधन, नई रूढ़ियाँ 
							बन रही हैं। प्रेमचंद जिस साहूकार के विरुद्ध खड़े थे, 
							वह नई आर्थिकता का पैरोकार और एफ.डी.आई. की शक्ल में 
							जन्म ले चुका है। बाज़ारवाद जिसे उदारीकरण का एक 
							खूबसूरत भाषाई मुखौटा दिया गया था, नए-नए शिकंजों की 
							शक्ल लेता जा रहा है और व्यक्ति को या देश को ही नहीं, 
							देशों को अपने ‘सुरसा-मुँह’ में निगल रहा है। 
							‘कंचन-मृग’ के पीछे भागने का एक नतीजा हम त्रेतायुग 
							में देख चुके थे, एक कलियुग में देख रहे हैं। बहरहाल 
							साहित्य की चिंताओं, सरोकारों का इतना जटिल विस्तार हो 
							चुका है कि उसके लिए जरूरी है संघर्ष की नई भूमिका 
							साहित्य इन्हें किस रूप में निभा रहा है यह 
							यक्ष-प्रश्न है।
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