विगत
२९ नवंबर को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित असमिया
लेखिका इंदिरा गोस्वामी हमारे बीच नहीं रहीं। उनके
प्रति भावभीनी श्रद्धांजिलि स्वरूप प्रस्तुत है उनकी
कलम से। हिंदी रूपांतर डॉ. बुद्धदेव चटर्जी का है।
मैं और
मेरा लेखन
-डॉ.
इंदिरा गोस्वामी
मैंने तेरह वर्ष की उम्र मsx
लिखना शुरू किया। मेरी कहानियों जो अधिकतर बच्चों के
लिये होती थीं। आसामी दैनिक और साप्ताहिक अखबारों के
बच्चों के स्तंभ में निकलना शुरू हुईं। मुझे छपे
शब्दों को देखकर ही खुशी होती थी। मुझे मैं ठीक किस पर
लिख रही हूँ जानने की अधिक परवाह न थी। तेरह साल की
उम्र में मेरी रचनाओं का स्रोत अधिकतर मेरी आकस्मिक
प्रेरणe थी। श्री कीर्तिनाथ
हजारिका जो उस समय के सबसे अधिक प्रचलित दैनिक नूतन
असमिया के संपादक थे, मुझे उत्साहित करते थे और उस समय
यही मेरे लिये प्रेरणा थी।
यद्यपि मेरा जन्म गौहाटी में हुआ था पर मेरी स्कूली
शिक्षा शिलांग में हुई। मेरे बचपन के दिन मेरे पैत्रिक
वैष्णव मठों में गुजरे। सत्र जगलिया नदी के किनारे बसा
था जो गौहाटी से प्रायः २० मील दूर व भाटिया पहाड़ के
घने जंगल से सटा था। मेरे पुरखे अधिकार (मठ के
अधिकारी) कहलाते थे। जिनके पास १९५७ तक हजारों एकड़
जमीन थी। अधिकतर ये भूखंड राजा स्वर्गदेव शिवसिंह
द्वारा सन १७१४ ईस्वी में दिये गए थे। कुछ संशोधन सन
१८६० ईस्वी में जनरल जैन्किंग के समय में किये गए थे।
वर्तमान समय में पिछले शान शौकत का केवल कंकाल शेष है।
हाल ही में मैंने बड़े उपन्यास उने खैवा हैदा जो
लोकप्रिय असमिया पत्रिका प्रकाश में करीब दो साल तक
छपती रही थी का सीरियल बनाया है।
मेरे बचपन के दिनों में मैं नंगे ग्रामीण बच्चों के
संग घूमती और खेलती थी। जो हमारे संकीर्ण परिवार के
कुछ सदस्यों को बिलकुल नागवार गुजरता था। मुझे अभीतक
याद है कि मेरे पिता की बहन अपने बच्चों को मुझे न
छूने के लिये आगाह करती थीं। क्यों कि मैं अस्पृष्य
ग्रामीण बच्चों को छूती व उनके साथ खेलती थी जो अधिकतर
मेरे पितामह के शिष्य थे। मेरे उपन्यास के पात्रों में
निम्नलिखित वे जीव आए जो मेरे मन में गहरी छाप छोड़
चुके थे।
मैंने उस हाथी के बारे में सजीवता से लिखा है जिसके
साथ मैंने अपने बचपन के कुछ प्रफुल्लित दिन बिताए थे।
मैं अपने भाई और महावत काल्टू के साथ उस पर सवार होती
थी। खासतौर पर जब काल्टू उसे नदी जगलिया में स्नान
कराने ले जाते था। स्नान के बाद जब वह किनारे पर आता
तो मैं उसकी पीठ पर बड़े और मोटे जोंक चिपके देखती थी।
मैं गाँव के बच्चों के साथ उन जोंकों को बड़े मजे के
साथ खींच निकालती थी। मुझे याद है कि कुछ लोग एक गाँव
वाले के बारे में बताते थे कि वह इन जोकों को दूसरे
महायुद्ध में सैनिकों को जिनका बेस शिविर हमारे सत्र
के निकट था भेजकर मालामाल हो गया था।
सिर्फ यह जानने के लिये कि एक हाथी उसके विशाल शरीर पर
से एक बड़े बाल को नोच निकालने पर क्या महसूस करता है
मैंने एक दफा मेरे हाथी के पेट के ऊपर से एक बाल को
जोर से खींचा था। नतीजा भयंकर था। उसने अपने सिर को
मैं जिस मकान के निकट खड़ी थी उसके एक काठ के खंभे पर
दे मारा था। मैं गिर गई पर की चोट न लगी। राजेन्द्र-
इसी नाम से हाथी को पुकारा जाता था, उस सत्र में अपनी
बदमिजाजी के लिये प्रसिद्ध था और यह बात उसके चरने के
लिये मैदान से गुजरने वाली मछुआरिनों को खासतौर से
मालूम थी। परंतु वह बच्चों से आनंदित हो खेलता था। ऐसे
ही एक या दो अवसरों पर मैं उसके पास थी जब उसके बड़े
दाँत के काटने का प्रकरण हुआ था। मैं उसके साथ थी जब
उसके एक पैर की करी (एक प्रकार की खुजली) का इलाज मेरे
चाचा के द्वारा हो रहा था। मैंने उन समारोहों को देखा
था जिसमें उसे जुरंग के वन में नावों को खींचने के
लिये भेजा गया था। और उत्तर कामरूप की रानी के हाथीमहल
से जब उसे घने जंगल में दूसरे जंगली हाथियों को पकड़ने
के लिये भेजा गया था।
मेंने लिखा है कि किस प्रकार मेरे पिता और उनके भाई
समारोह के अवसरों पर पोशाक पहनते थे और महाजनों के
विवाह में ठाठबाट से शरीक होते थे। राजेन्द्र इन
अवसरों पर जब उसकी पीठ पर सजा हुआ हौदा रखा जाता था तो
वह खुश होता था। मैंने विस्तार से लिखा है कि कैसे
मैंने अपना बचपन किस प्रकार इस हाथी के साथ बिताया था।
और बाद में कैसे वह पगला गया। उसने एक गाँव वाले को
मार डाला व आसाम सरकार के आदेश पर उसे गोली से मार
दिया गया। मैंने मेरे माता पिता की उसके गोली मार दिये
जाने वाले दिन से हुई मन की पीड़ा का वर्णन किया है जो
एक प्यारे परिवार के सदस्य के लिये महसूस की जाती है।
मैने महावत काल्टू के बारे में लिखा है। वह बहुत ही
साँवला बूढ़ा और दुबला पतला अजीब सफेद आँखों वाला आदमी
था। जब वह शाम को अफीम खाने के चक्कर में रहता तब मैं
उसकी गोद में बैठती थी। वह एक मुड़े हुए हत्थे वाला
सासपैन बर्तन व्यवहार में लाता था। जो द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद एक अमरीकी सैनिक द्वारा छोड़ा गया
था जिनका आधार शिविर हमारे सत्र के निकट था। वह पान के
पत्तों को जिन्हें वह अफीम के साथ लेता था बहुत ही
छोटे टुकड़ों में काटता और भूनता था। मैं उसे ललचाई
दृष्टि से देखती रहती थी। एक दिन उसने अपने हुक्के का
कश मुझे लेने दिया। वह मेरे लिये प्रथम अफीम का स्वाद
था।
एक गोसाइन थी जिसे मैं आबू कहती थी वह मेरे पिता के
दूर के रिश्ते की बहन थी। उसके अपने शिष्य थे और अपने
पति के मरणोपरांत वह बिलकुल एकांत जीवन व्यतीत कर रही
थी। वह अपने बारे में वर्णन करती थी कि किस प्रकार वह
पहले पहल १० वर्ष की वधू बन सजी धजी पालकी में आई थी।
हमारे सत्र के अधिकार या गोसाईं जनों को ऐसी लड़कियों
से विवाह दिया जाता था जो युवावस्था तक न पहुँची होती
थी। वे केवल गोसाईँ परिवार की लड़कियों से ही विवाह कर
सकते थे, यहाँ तक कि दूसरे ब्राह्मण परिवार से भी
नहीं, यद्यपि बाद में यह प्रथा अप्रचलित हो गई।
मैंने अपनी एक और चाची का चित्रण किया है जिसका नाम
नर्मन देवी था। वे पंद्रह वर्ष की उम्र में विधवा हो
गई थीं। यद्यपि उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था परंतु वह
सामाजित प्रतिबंध के डर से स्कूल न जा पाईँ। एक कहावत
प्रचलित है कि अधिकारियों की पुत्रियों पर आकाश के
चमकीले सूर्य की भी दृष्टि नहीं पड़नी चाहिये। उन्हें
असूर्य पश्यना होना चाहिये। गोसाईं महिलाएँ शाकाहारी
भोजन पर कठोर जीवन बिताती थीं। मेरी दादी और अन्य
महिलाओं को खाली पाँव सारी सारी उम्र बितानी पड़ी थी
लेकिन अब हालात बदल गए हैं। मैंने अपने एक उपन्यास के
पात्र के चरित्र की प्रेरणा अपनी दादी से ली। मेरी
दादी कामरूप के ओरपुट गोसाईं की बेटी थीं। जिस पालकी
में वे घूमती थीं, वह अब भी हमारे धेखाल (जहाँ चावल को
कूटा जाता है) में रखी है। वे अपना कपड़ा खुद बुनती
थीं। वास्तव में आसाम की सभी आभिजात्य महिलाएँ अपने घर
में बनाया हुआ कपड़ा खुद बुनती हैं। यहाँ तक की आसाम
की आकर्षक अहोम रानियाँ फूलेश्वरी अंबिका देवी आदि
अपनी पोशाक स्वयं बुनती थीं व इस कुटीर धंधे को बढ़ावा
देती थीं।
मैंने उस शिविर का चित्रण किया है जहाँ गाँवों के
अफीमचियों को सुधारने के लिये रखा जाता था। अफ़ीमचियों
के शिविर का यह वर्णन मुख्यतया उन साक्षात्कारों पर
आधारित है जो मैंने हाल ही में कुछ पुराने अफीम के
नशेबाजों का खासकर हमारे सत्र की औरतों का, जो कुछ दिन
इस सुधार शिविर में अपनी जवानी के दिनों में रही थीं,
लिया था। इनमें से कुछ ऐसी औरतें थीं जिन्हें इस शिविर
में घसीटकर बलपूर्वक लाया गया था। यहाँ पुरानी
काँग्रेस पार्टी के कर्मचारी स्वेच्छा से होमगार्ड की
ड्यूटी पर थे। १९५२-५४ के दौराम हमारे सत्र के करीब
आधे गाँव को अफीम की लत थी। दोपहरे के समय ये अफीमची
एक पुरानी जीर्ण शीर्ण स्कूल की इमारत के आंगन में बैठ
गपशप करते थे। उनका साधारण विषय औरतों के संबंध में
होता था। उनकी गपशप में शामिल था कि बर्मा निवासी किस
प्रकार उनके कुछ पुरखों को बन्दी बनाकर अन्य दस हजार
बंदियों के साथ १८२४ में बर्मा ले गए थे। वे एक फिंच
साहब के बारे में बात करते जो संभवतः अपर आसाम के
कमिश्नर थे। और जिसे एक अफीमची ने हुलाबरी से हत्या कर
दी थी। कारण उसने आसाम में अफीम खाना निषेध करने की
कोशिश की थी। वे मिलरे हम्फ्री और बोर साहेबों के बारे
में जो उत्तरी कामरूप के लोकप्रिय फारेस्ट अफसर थे,
बातचीत करते कि वे कुछ गोसाईं परिवार के हाथियों के
चराने के टैक्स को माफ़ कर देते। उनका वार्तालाप बिना
गिलमैन साहब को याद किये पूरा न होता था। जिन्हें वे
गिलमिल साहब पुकारते थे। अपने असली जीवन में गिलमैन एक
जर्मन थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के एक वीर योद्धा थे। उन्होंने उस
युद्ध में अपना एक पुत्र और अपना एक नेत्र खोया था। यह
पता नहीं कि वे उत्तरी कामरूप में कब आए और बरद्वार
चाय मिल्कियत के जो हमारे सत्र के बगल में था कब
मैनेजर बने। उन्होंने पलासवारी से बरदोबा तक सड़क
निर्माण में सहायता की थी। जो मेरे पिता के लिये एक
अप्रत्याशित रूप से वरदान सिद्ध हुआ था। जब मेरे पिता
अपनी पुरानी फोर्ड मोटरकार लाते थे, तो हाथियों को
सड़क पर भिन्न बिंदुओं पर तैनात किया जाता था जिससे
खराब कीचड़ की जगहों से कार को खींचकर बाहर निकाला जा
सके। मुझे बचपन का दृश्य खासकर याद है कि मानसून की
बरसात में एक हाथी मेरे पिता की कार को गड्ढे से किस
तरह खींच निकालता था।
गिलमैन अपना दया और तुनक मिजाजी के लिये जाने जाते थे।
यह जर्मन महाशय जरूरतमंद आसामी लोगों को आर्थिक मदद
करते थे। मैंने गिलमैन साहब के कई किस्सों का वर्ण
किया है। जो मैंने कुछ गाँव वालों से सुने हैं। एक
किस्सा इस प्रकार है। एक दिन गिलमैन मिर्जा के जंगल
में अपना पुराना राइफल लेकर गए। उसी समय मिर्जा के एक
चौधरी जो लोकप्रिय थे उसी समय उसी जंगल में शिकार के
लिये अपनी एक देसी बंदूक लेकर गए। चौधरी ने एक जंगली
रीछ को जर्मन बैन और कुछ खुले हुए वृक्षों में देखा।
उसने उस पर गोली दागी। अचानक उसने विपरीत दिशा से गोली
आने की आवाज सुनी जब चौधरी मरे हुए रीछ को लेने के
लिये आगे बढ़ा तो उसने जर्मन साहब को शिकार के पास
खड़ा देखा। साहब और चौधरी तर्क करने लगे कि किसने रीछ
को मारा है और इसका नतीजा झगड़ा था। चौधरी अपने गुस्से
को काबू में न रख पाए और कड़ी लात साहेब के पुट्ठे पर
जमा दी। जर्मन साहब उस स्थान से लाल पीले होते हुए चल
दिये और कमिश्नर साहब को इसकी शिकायत दर्ज की यह बताते
हुए कि एक देसी आदमी ने किस प्रकार उनकी बेज्जती की
है। गिलमैन को उचित कार्यवाही के लिये विशेषाधिकार
दिये गए। यह विदित हुआ कि कमिश्नर ने उनसे प्रार्थना
की कि यदि वे चौधरी से बदला ही लेना चाहते हैं तो केवल
एक बुलेट ही इस्तेमाल करें।
जब चौधरी के रिश्तेदारों और मित्रों ने यह बात सुनी तो
वे गिलमैन के पास चौधरी के प्राण बचाने के लिये याचना
करने पहुँचे। चौधरी के एक बुद्धिमान दोस्ते ने गिलमैन
से प्रार्थना की कि वह सैनिक हैं अतः सैनिक की तरह
चौधरी को मारें। और यह प्रस्ताव रखा कि जब चौधरी अपने
सफेद घोड़े पर बाजार से निकले तो उसे वे बाजार के दिन
ही गोली का निशाना बनाएँ। गिलमैन राजी हुए। उस
भाग्यनिर्णायक दिन की प्रतीक्षा लोग साँस थामे करने
लगे। चौधरी के मित्रों ने पहले से ही आँसू बहाना शुरू
कर दिया। उस समय कोई सड़क की रोशनी नहीं होती थीं,
लेकिन आसमान साफ था। बाजार की दूकानों पर कैरोसीन की
बत्तियाँ धीमी रोशनी दे रही थीं। गिलमैन राइफल लिये
अपनी जगह तैनात हो गए। लोगों ने अपनी साँसें थाम लीं।
पूर्व के धुँधले क्षितिज पर सफेद घोड़े पर सवार चौधरी
दिखाई पड़ा। एक गर्जन की आवाज सुनाई दी। सफेद घोड़ा
पश्चिम क्षितिज पर अदृश्य हो गया। लोग चौधरी के लिये
रोए। लेकिन अगली ही सुबह आश्चर्य और हर्ष से उन्होंने
अपने चौधरी को हुक्के का कश लेते हुए उनके आँगने में
वही कैनवास का जूता पहने हुए देखा। क्या रहस्य था?
घोड़ा वही था पर घोड़े की जीन पर चौधरी का पुतला था जो
गोबर, टूटे बर्तन और झाड़ू की सींकों से बना था। चौधरी
की पूरी पोषाक, पगड़ी और पुराने कैनवास के जूते पुतले
को ढँकने के लिये इस्तेमाल किये गए थे। क्यों कि
गिलमैन की केवल एक आँख थी और वह भी कमजोर, वह फर्क न
समझ सका था। यह बाद में विदित हुआ था कि जर्म साहब
वास्तव में चौधरी को जीवित देखकर खुश थे। मैंने इस
प्रकार की बहुत सी कहानियाँ जर्मन साहब के बारे में
समाविष्ट की हैं जो देश के इस सुदूर पिछड़े इलाके में
प्रसिद्ध हो गई थीं।
मेरे उपन्यास मेरे जीवन के यथार्थ अनुभवों पर आधारित
हैं। पर मुझे मेरे किसी भी उपन्यास से संतुष्टि नहीं
मिली है। मैंने इनको कभी कठोर और दर्दनाक तौर पर ढाला
है तो कभी खुश और आनंदमय अनुभवों पर मेरी कल्पनाशक्ति
से। मेरे लिये कल्पना एक खिलते फूल की पंखुड़ी की
प्रणाली है। जीवन के निपट वास्तविक व्यवहार के द्वारा
इन पंखुड़ियों को खुलने से ही फूल खिल सकता है। |