भारत माता ने अपने घर में
जन-कल्याण का जानदार आँगन बनाया। उसमें शिक्षा की शीतल
हवा, स्वास्थ्य का निर्मल नीर, निर्भरता की उर्वर मिट्टी,
उन्नति का आकाश, दृढ़ता के पर्वत, आस्था की सलिला, उदारता
का समुद्र तथा आत्मीयता की अग्नि का स्पर्श पाकर जीवन के
पौधे में प्रेम के पुष्प महक रहे थे।
सिर पर सफ़ेद टोपी लगाये एक बच्चा आया, रंग-बिरंगे पुष्प
देखकर हर्षाया। पुष्प पर सत्ता की तितली बैठी देखकर उसका मन
ललचाया, तितली को पकड़ने के लिए हाथ बढाया, तितली उड़ गयी।
बच्चा तितली के पीछे दौड़ा, गिरा, रोते हुए रह गया खड़ा।
कुछ देर बाद भगवा वस्त्रधारी दूसरा बच्चा खाकी पैंटवाले
मित्र के साथ आया। सरोवर में खिला कमल का पुष्प उसके मन को
भाया, मन ललचाया, बिना सोचे कदम बढाया, किनारे लगी काई पर
पैर फिसला, गिरा, भीगा और सिर झुकाए वापिस लौट गया।
तभी चक्र घुमाता तीसरा बच्चा अनुशासन को तोड़ता, शोर मचाता
घर में घुसा और हाथ में हँसिया-हथौडा थामे चौथा बच्चा उससे
जा भिड़ा। दोनों टकराए, गिरे, काँटे चुभे और वे चोटें
सहलाते सिसकने लगे।
हाथी की तरह मोटे, अक्ल के छोटे, कुछ बच्चे एक साथ धमाल
मचाते आए, औरों की अनदेखी कर जहाँ मन हुआ वहीं जगह घेरकर
हाथ-पैर फैलाये। धक्का-मुक्की में फूल ही नहीं पौधे भी
उखाड़ लाये।
कुछ देर बाद भारत माता घर में आयीं, कमरे की दुर्दशा देखकर
चुप नहीं रह पायीं, दुःख के साथ बोलीं- ‘मत दो झूटी सफाई,
मत कहो कि घर की यह दुर्दशा तुमने नहीं तितली ने बनाई। काश
तुम तितली को भुला पाते, काँटों को समय रहते देख पाते,
मिल-जुल कर रह पाते, ख़ुद अपने लिये लड़ने की जगह औरों के
लिए कुछ कर पाते तो आदमी बन जाते।
अभी भी समय है... बड़े हो जाओ...
आदमीं बन जाओ।
९ अगस्त २०१० |