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 प्रकृति और पर्यावरण

 

मनुष्य और नदी
- राजीव रंजन


नदी और मनुष्य के बीच अत्यंत पुराना और गहरा रिश्ता है। विश्व की लगभग सभी पुरानी सभ्यताएँ; चाहे वह सिंधु‌‌-घाटी सभ्यता हो या नीलनदी की सभ्यता अथवा मेसोपोटामिया की, इस रिश्ते की साक्षी हैं। नदी मनुष्य की जरूरतों के लिए जल और उसके परिवहन की माध्यम भर नहींहैं, बल्कि सहस्राब्दियों के इस साहचर्य ने दोनों में रागात्मक संबंध विकसितकर दिया है।

कहीं वह माँ है, तो कहीं प्रेयसी और कहीं देवी या इश्वरीयशक्ति— जीवन में प्रेम, रस और आध्यात्म की प्रतीक। नदी माँ है, अपने आँचल में रस का अक्षय भंडार संचित किये हमारी धरती, हमारी क्षुधा औरहमारी संस्कृति को अपने प्राण-रस से तृप्त कर उसे पुष्ट करने वाली माँ। वह अन्नदा है, वह पुष्टिदा है, वह सरस है, आनंदमयी है। शाम की गोधुली में घर लौटती रँभाती गायों को सिकम-भर (जी-भर) जल पिलाकर तृप्त कर देने वाली नदी, उनमें दूध का अमृत-स्रोत भर देने वाली नदी, धरती को सींचकर हरी-भरी कर देने वाली नदी माँ नहीं मातामही है। मातृ-रूपा धरती और गो दोनों का पोषण करने वाली दोनो को सरस करने वाली मातामही।

नदी प्रेयसी है। उसमें अथाह रस है। अनिवार्य आमंत्रण है, उसमें उतर जाने, खो जाने, स्वयं को विलीन करलेने का आमंत्रण । वह स्पर्शाकुल और वाचाल प्रेयसी नहीं है, वह धीरा है, प्रशांत है, कल-कल की मधुर-ध्वनिकरने वाली मृदुभाषिणी है। उसमें तरंग है, आवेग है, बढ़ियाती है, तो दूर-दूर तक विस्तृत हो जाती है और फिर अपनी उर्वरता अपनी मातृका रूप का अवशेष नवीन जलोढ-मिट्टी (मृतिका) छोड़ पुनः नवोढा‌ की तरह संकुचित होजाती है। फिर अपने पाट में आ सिमटती है। एक नई प्रेयसी की तरह-संकुचित, उत्फुल्ल और आमंत्रणोत्सुक। नदीचिर यौवना है। उसका यौवन और उसका प्रेम या तो मातृत्व में फलीभूत होता है या मुक्ति में। राम ने सरयू कीगोद में जन्म लिया, उससे प्रेम किया और उसी की धार में समाहित हो गए। वे मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परात्पर ब्रह्मके सगुण-साकार रूप। उनके लिए यह मार्ग सरल था। हम उनके अंश हैं, माया के वशीभूत। कीर-मर्कट की तरह अपने-अपने पिंजरे और अपनी-अपनी रस्सी में बँधे हुए।

हमें अपनी इस नीयति से अधिक लगाव है। इस छान-पगहे (पशुओं के गले में बाँधी जाने वाली रस्सी) का अधिक आकर्षण है। हम उसीमें बँधकर डोलते रहना चाहते हैं। हमें ‘तन्वंगी गंगा ग्रीष्म-विरल’ और ‘वरुणा की शांत कछार’ से प्रेम करने वाली दृष्टि नहीं चाहिए, जिस में दृष्टि-अभिसार का आनंद है, हमें चाहिए रमण-तृषा को तृप्त करनेवाला सुख। उसे भोगने, बाँधने और कैद कर लेने का सुख। नदी को कामधेनु मानकर उसे अंतिम बूँद तक निचोड़ डालने से मिलने वाला सुख। हमें प्रेम में डूबने और उसे जीने की फुरसत नहीं, हमें ‘रोज डे’,‘प्रोपोज डे’ ‘चाकलेट डे’ ‘टैडी डे’ के साप्ताहिक सेलिब्रेशनके पैटर्न वाला ‘प्रोजेक्टेड प्रेम’ चाहिए, जिसमें सब पूर्व-नियोजित और पूर्व-नियत हो। हमें आनंद नहीं सुख चाहिए, अपनी ऐंद्रिक एषणा की तृप्ति चाहिए, अपने अहं की तुष्टि चाहिए। सुख की अनुभूति नहीं उसका भोग चाहिए। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः’ का जाप करने वाले हमारे पुरनिया गँवार थे, यम-संयम, त्याग-विराग सब ढकोसले थे, उनके पीछे का सच था सुख को,भोग को, सम्म्पत्ति और संसाधन को मुट्ठी भर हाथों में संकुचित का देना। उसे मानना अंध-विश्वास है, रूढ़ि औरधार्मिकता है, ये सब हमें अस्वीकार है।

हम सहजता के पोषक हैं। हमारे जीवन की कुँजी है, डार्विन का विकासवाद—‘श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता’। मनुष्य श्रेष्ठ है— सृष्टि के विकास की सबसे उन्नत परिणति। पुरानी आस्तिकशब्दावाली में कहें तो ईश्वर की सुंदरतम रचना — ‘सुंदर है विहग, सुमन सुंदर, मानव तुम सबसे सुंदरतम’।इसलिए प्रकृति उसके लिए संभावनाएँ प्रस्तुत करती है और मनुष्य उसका दोहन करता है। हम जीन ब्रूंज और डिमांजिया की मानस संताने ‘दोहन’ या ‘उपभोग’ की शैली में सोचने की अभ्यस्त हैं। ‘त्याग’ और ‘संयम’ जैसेपुरानी थाती केवल ‘झाँपी’ या ‘मोन्हीं’ जैसे पुराने संग्रह-पात्रों में ताला बंद करके रख देने के लिए हैं। अगर गलती से ताला खुल जाए, तो उसे लोगों की नजर पडने से बचा लेने में ही भालाई है। ‘लालच अच्छी चीज है’ के जमाने में त्याग-संयम ! छीः ! इतना अनाचार ! इतना विरस आयोजन !

प्रेम की इस दोहन शैली की परिणति हैं, नदी-घाटी योजनाएँ, जिनके आरंभ से अंत तक की सारी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी होती है। यह बात अलग है किइस प्रेम-प्रोजेक्ट का फिल्मांकन कई बार मध्यांतर में ही फ्लाप हो जाता है और कई बार यह इतना लंबा खिच जाता है कि खलनायक के बजाय नायक की ही मृत्यु हो जाय। फलागम तो अनिवर्यतः नायिका (नदी) को न होकर निर्माता-निर्देशक और कैमरामैन को ही होता है। बाकी रही गीत-संगीत की बात तो प्रोजेक्ट एरिया के विस्थापित लोगों की त्राहि का रम्य-दारुण स्वर इसकी कमी भी पूरी कर देता है। दर्शक को क्या? फिल्म में एक ‘बीड़ी जलइले’ छाप ‘आइटम सांग’ पर ठुमकादिखा दो वाह-वाह कर उठेगा; ‘टिहरी’ और ‘हरसूद’ उसी पर न्योछावर कर देगा। रही बात हिट होने की तो ‘मल्टीप्लेक्स’ के जमाने में सब चलता है। अगर फिल्म में थोड़ा हारर, थोड़ा सस्पेंस, थोड़ा मसाला हो और कहानी में प्रेम सिरे से गायब हो तो भी कमाई पक्की है। मामला प्रेम का नहीं उसके प्रचार और प्रदर्शन का है। वह अनुभूतिसे नहीं फेसियल एक्सप्रेशन और स्माइल के इंच-सेंटीमीटर से तय होता है।

हम एक उत्तर-आधुनिक समय में जी रहे हैं। हमें समग्रता नहीं विखण्डन चाहिए। अनुभूति नहीं उत्तेजना चाहिए। ईश्वर-प्रकृति-मनुष्य नहीं, माइंड-मसल्स-मनी का त्रिक चाहिए। वासना, तृषा तथा बुभुक्षा और शांति, करुणा एवं मैत्री सब हमारे लिए समान हैं। प्रेम-घृणा, हिंसा-अहिंसा, त्याग-भोग, यश-अपयश इनमें कोई फर्क नहीं। सब–के-सब ‘पाठ’ हैं। इनको अलग-अलग रखकर सही-गलत और नीति-अनीति के तराजू पर तौलना हमारा कर्म नहीं। हम तो एक ऐसे जादुई यथार्थ में जी रहे हैं, जहाँ कहीं-भी और कभी-भी कुछ-भी घटित हो सकता है। हम बस इन सबके तटस्थ साक्षी हैं या अप्रत्याशित भोक्ता। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं, सब नियति-चालित है।

और, प्रेम ? वह तो ठहरा पुराना वैष्णव‌‌, खाँटी अहिंसक, समर्पणोन्मुख, पोर-पोर में रस से सराबोर—एकदम नदी की तरह सरस और पवित्र। लेकिन हमें क्या? होगा पवित्र, होगा सरस, होगा समर्पित। हमें प्रेम का रस नहीं चाहिए। उसकी वैष्णवता नहीं चाहिए। पुराना वैष्णव भावापन्ना प्रेम तो बूढ़ा और निठल्ला हो चुका है, अपनी ‘लकुटी’ और ‘कामरिया’ तक सिमटा हुआ। उसका सारा साम्राज्य मंदिर के चौखटे और गंगा के घाट तक सिमटा है। उसके बाहर की दुनिया उसके लिए प्रपंच है, माया है, काम है, पाप है। हम पाप-पुण्य के उन पुराने प्रतिमानों को नहीं मानते। हमारा प्रेम उसे अतिक्रांत करता है। हमें किसी मंदिर के चौखटे या गंगा की घाट पर बैठ प्रेम के पद नहीं गाना। उसका गंडा उसे ही मुबारक— हमें उसकी चेलहाई नहीं करनी। यह घोर आर्थिक युग और वह भिक्षाजीवी जीवन ना-बाबा-ना। हमें राम-धुन नहीं, दाम-धुन चाहिए। अर्थ, धर्म काम और मोक्ष के चार सोपान नहीं, बस दोचाहिए—अर्थ और काम। वह भी पूर्वापर या युग्म में नहीं, अपने द्वंद्वात्मक रूप में।

हमें वैष्ण्वता नहीं, उसका वेष चाहिए। उसका वस्त्र चाहिए। उसकी रामनामी, चंदन, कंठी और खंजड़ी चाहिए। केवल आवरण, देह और रूप भी नहीं, आत्मा की कौन चलाए। वह तो कब का ‘आउट-डेटेड’ हो गया। हमारा फलसफा है—‘जो दिखता है वो बिकता है’। मन और आत्मा न दिखते हैं और ना बिकते हैं। बिकते हैं वस्त्र, आवरण, आड‌ंबर। हमें वही चाहिए। वही हमारी जरूरत है। हमारे समय की जरूरत है। हमें समर्पण नहीं चाहिए, हमें चाहिए मल्टी-पर्पज प्रेम। इसे हम जब चाहें ओढ़-बिछा सकें और जब चाहें तह करके काँख में दबा लें— सुदामा की तरहसंकोच में नहीं, सुविधा में। हमें चाहिए मल्टी डाइमेंशनल प्रेम, जिसे जब चाहें जिस ओर चाहें मोड़ सकें। हमें प्रेमनहीं उसकी योजनाएँ चाहिए। मल्टी-डाइमेंशनल और मल्टी-परपज योजनाएँ। इंच और सेंटीमीटर में नपी-तुलीयोजनाएँ। सारा अबाड़-कबाड़ बटोर एक बड़ा सा पुतला खड़ा कर देने वाली, बालू, गिट्टी, ईंट सीमेंट पर टिकी बड़े-बड़े स्मारकों की योजनाएँ। यही हमारे प्रेम की अभिव्यक्ति हैं, सम्मूर्तन हैं या सही शब्दों में कहें तो प्रेम का प्रदर्शनहै। हमारे लिए प्रेम नहीं, उसके स्मारकों की कीमत है जो उसकी लागत से तय होती है या फिर उपयोगिता से।

हमने नदी को अपने इसी प्रेम-पाश में बाँध लिया है। वह प्रेयसी नहीं, हमारी बंधक है— हमारे अनुरंजन का, भोग का और तृप्ति का साधन मात्र। हम उसे भोग रहे हैं, उससे अनुरंजित हो रहे हैं और तृप्त होने के बजाय अपनीवासना को और अधिक उत्तेजित कर रहे हैं। उसकी आत्मा की मसान पर अपनी ऐषणा की धुनी रमाए फुत्कार रहे है— ‘ये दिल माँगे मोर’। हमारे इस ‘मोर’ का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं। हम उसके शव में भी अपनी ‘सिद्धि’ देख रहे हैं। वह हमारे लिए द्रोपदी का अक्षय-पात्र है, और हम परीक्षा लेने के लिए दुर्वासा बन उसके सामने आ डटे हैं। विडम्बना यह कि द्रोपदी के सामने उनके सखा कृष्ण का सहारा था, लेकिन नदी? वह निरुपाय है। उसका सहस्राब्दियों का सहचर, उसका प्रिय मनुष्य स्वयं दुर्वासा बनकर सामने आ खड़ा है। अपने भोग के लिए उसके सारे वजूद को मिटा डालना चाहता है। उसे अबालू, उसके पत्थर, उसकी सीपी, उसके जीव, उसकी गति-तरंग, उसकापाट— सब-कुछ। बूँद-बूँद, कण-कण, इंच-इंच।

नदी केवल धरती के भूगोल में बहने वाली नदी नहीं है। वह जितनी बाहर है, उतनी ही भीतर भी। वह अंतःसलिला है। हमारे भीतर निरंतर बह रही है। अनेक-अनेक सहस्राब्दियों से अनेक नाम, अनेक रूप नदी। अपनी सहस्र-सहस्र भुजाओं वाली नदी। हिम की तरह शीतल और खौलते हुए जल की तरह उष्ण जल वाली नदी। समुद्र जैसे खारे और दूध की तरह सुस्वादु जल वाली नदी। सिंधु-ब्रह्मपुत्र की तरह विशाल और वरुणा-अस्सी की तरह मृत-प्राय नदी। यमुना और काली की तरह गँदली और भागीरथी-अलकनंदा की तरह झिर-झिर निर्मल नदी। कर्मनाशा की जैसी अभिशिप्त और नर्मदा की तरह पुण्यशीला नदी। इन नदियों के कोई घाट, कोई तटबंध, कोई प्रवाह क्षेत्र, कोई विभाजक रेखा नहीं है। यहाँ सब घुला-मिला, सब सहज और सब एक दूसरे में डूबा हुआ है। सब समरस, सब सम शील, सब अविभाजित, सब अखण्ड, सब आनंदमय, जिह्वा संवेद्य षड्-रस से परे, अद्भुत और अपूर्व।


नहीं, मैं धर्म, आध्यात्म या दर्शन की बात नहीं कर रहा। मैं कर रहा हूँ, संवेदना की बात। उस संवेदना की, जो धर्म, आध्यत्म, दर्शन ही नहीं, बल्कि विज्ञान की परिधि से भी परे है। यह मनुष्य और मनुष्य ही नहीं, बल्कि समूची सृष्टि को परस्पर जोड़ती है; ‘स्व’ और ‘पर’ के बने बनाए पैमाने से परे। इसमें कहीं कोई गाँठ, कहीं कोई दरार या कहीं कोई जोड़ नहीं है। यह सहज-संश्लिष्ट और सहज-संपृक्त है। यह सहजता ही इसकी आत्मा, इसका प्राण, इसकी जीवनी-शक्ति है। यह एक सरस प्रवाह की तरह निरंतर हमारे बीच प्रवहणशील है। हमारे विचारों और अनुभूतियों की डाक एक दूसरे को बाँट रही है, पावती और प्रत्युत्तर ले रही है और फिर उसे भेजने वाले तक पहुँचा रही है, अविराम और अविलम्ब। यह क्रम, यह यात्रा, यह प्रवाह अनादि है। इसमें एक अद्भुत लय है, एक अनूठा सौंदर्य और एक अपूर्व मिठास है। एक ऐसी मिठास जिसे एक पुराने कवि ने गूँगे के गुड़ जैसा कहा है‌‌– ‘अबिगत गति कछु कहत ना आवे, ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावे’। यह बात जब सूरदास जैसा रससिद्ध पुरनिया कह रहा है, तो हम ‘नव छिटुवों’ की क्या विसात कि उसे नकार दें। हमारे पास विज्ञान है, यंत्र है, तकनीक है, तर्क-शक्ति और विवेकशीलता है, लेकिन ये सब इस रस के आस्वाद में सर्वथा असमर्थ हैं। इसे ना कोई विकासवाद परिभाषित कर सकता है, न संभावाना और नव-संभावनावाद। न तर्क और न विज्ञान। पुराने भारतीय चिंतन में यही ‘आत्मा’ है—परमात्मा का अंश, छाया या प्रतिरूप, जो ‘हममें, तुममें खडग-खंभ में’ सब में व्याप्त है।

‘आत्मीय’, ‘आत्मीयता’, ‘आत्माभियक्ति’ तो ले ली पर ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ को अपने शब्द-कोश तथाअपनी चिंतन-धारा से परे धकेल दिया। जब आत्मा है ही नहीं, तो ‘आत्म’ का क्या वजूद हम इसे समझने में असमर्थ रहे। इस असमर्थता का परिणाम यह हुआ कि मनुष्य और मनुष्य के बीच, मनुष्य और नदी के बीच या मनुष्य और इस सचराचर जगत के बीच जो प्रवाहमान रस था, जो आत्मीयता थी जो संवाद और संवेदना थी हम उसका सिरा ही छोड़ बैठे ‘सिया-राममय सब जग जानी’ कहने वाला कवि हमें पुनरुत्थानवादी या यथा-स्थितिवादी और ‘ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत’ का उद्घोष करने वाला ऋषि रूढिवादी नजर आने लगा। परिणामतः प्रकृति और मनुष्य के बीच का स्वरस्य विच्छिन्न हो गया। हमने प्रकृति को अपने महाभोज काव्यंजन मान लिया और हम उसका छक कर भोग कर रहे हैं।

हम बाहर की नदियों को जोड़ना चाहते हैं। मृत हो चुकी नदियों को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। एक नदी का जल दूसरे में हस्तांतरित करना चाहते हैं। लेकिन हमारे भीतर की नदी छीज रही है, सूख रही है, विभाजित हो रही है। हमें उसकी चिंता नहीं। हाथों में लहराती तख्तियाँ, उठी हुई बाहों के साथ उछलते नारों और दंगों की चोट से टूटते अखंड कगारों की चिंता हमें नहीं। स्वाद, रंग, घाट की होड़ में बिखरती समन्विति की चिंता हमें नहीं। हम अपने भीतर के देवत्व को फाँसी देकर मंदिरों, मठों, गिरजाघरों में उसकी मूर्तियाँ सजाना चाहते हैं। उसकी लाश पर मस्जिदों की ऊँची मीनारें और भव्य मजारें बनाना चाहते हैं। भीतर के रस के अखंड और शाश्वत प्रवाह को नष्ट कर जगह-जगह कृत्रिम फब्बारे लगाना चाहते हैं। हमारे भीतर की नदी छीज रही है। हमारे भीतर का रस सूख रहा है।

हमारे भीतर का देवत्व बधिक के गँडासे के सामने उकुडूँ बैठा है, पर हमारे लिए वह देवता नहीं देवी का निर्माल्य है या बकरीद का बकरा। हम जोर-जोर से ‘हर-हर महादेव’, ‘जय श्री राम’, ‘अल्ला हु अकबर’ और ‘सत श्री अकाल’के नारे लगा रहे हैं। हमारे स्वरों के बीच की समरसता विलुप्त हो चुकी है। हमारे भीतर की अंतःसलिला में अलग-अलग रंग और अलग-अलग स्वाद वाली सदा नीराँ नदिया अब आपस में डूबकर अब अपूर्व रंग और अद्भुत स्वाद की सृष्टि नहीं करतीं, बल्कि अपने-अपने तटों में सिमट कर चल रही हैं। कोई भागीरथी, कोई अलकनंदा, कोई नर्मदा, कोई गंगा, कोई ब्रह्मपुत्र नहीं, हमारे भीतर बहने वाली हर धारा या तो मल-वाहिनी असी है या पुण्य-क्षीणा कर्मनासा। यह हमारे भीतर के भीतर के मल को ढो रही है। हमारी यांत्रिकता, लिप्सा और स्वार्थपरता के सारे अपशिष्ट इसमें घुल रहे हैं। यह दिन-ब-दिन विषाक्त होती जा रही है। हमारे लोभ, मद, मोह, तृषा, भोग, वासना,एषणा, हिंसा, व्यभिचार, पापाचार, के भार ने इसे बोझिल बना दिया है। यह झिर-झिर, निर्मल परदर्शी नहीं, हमारे भीतर की कुँठाओं के रंग रंग में रंगी है। यह कठौती वाली गंगा है। इसके घाट पर बैठा कोई तुलसी दास अब यह दावा नहीं कर सकता कि ‘सुरसि सम सबकी हित होई’।

मेरा आदिम मन फिर भी नहीं मानता। उसके भीतर बैठा नदी-प्रेम अब-भी जब-तब हुलस उठता है। अब-भी किसी नदी की कछार पर पहुँचते ही उसके प्रेम का कोई-कोई गीत कंठ से फूट ही जाता है। यह कंठ भले मेरा अपना हो, पर बोल मेरे मन के भीतर बैठे उस आदिम मनुष्य के ही होते हैं, जो अपनी छोटी डोंगी में सदियों से निरंतर उस नदी की लहरों पर झिझिरी खेल रहा है। वह नदी से प्रेम करता है, उसे पूजता है, उसे मातृ-रूप मानता है और इसलिए नदी अब तक उसके लिए संसाधन नहीं बन पाई, वह उसका उपभोग नहीं कर पया। सूख चुकी नदी के ऊँचे कगार पर बैठा वह अब भी गा रहा है। उसे उम्मीद है कि नदी नहीं मरती। वह देवी-स्वरूपा है और देवता अमृत हैं। वह फिर जी उठेगी। अपनी अदम्य जिजीविषा से कोई एक सोता धरती के इस कठोर कवच को तोड़ कर बह चलेगा। अचानक कोई पाताल-गंगा फूट पडेगी, जिसकी धारा में भीग कर में यह सारा विरस आयोजन सरस हो जाएगा, जिसमें डूबकर असी और कर्मनासा भी स्वच्छ, प्रसस्त और पवित्र हो जाएगी। तब वह अपनी डोंगी पर पाल डाल हर नगर, हर गाँव, हर घाट-अघाट, अपना गीत, अपना रस, अपना राग बाँट आएगा।

१ फरवरी २०२४

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