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 प्रकृति और पर्यावरण

 

देवताओं का वृक्ष देवदार
- एन के बौहरा व प्रदीप चौधरी


देवदार जिसे कश्मीर में दिआर और हिमाचल में कैलोन कहते हैं, पर्वतीय प्रदेश का एक पवित्र व पूजनीय पेड़ है। इसका नाम दो शब्दों देव (देवता) व दारु (वृक्ष) से मिलकर बना है। प्राचीन संस्कृत अभिलेखों में देवदारू या देओदारू नाम से इस वृक्ष का उल्लेख मिलता है। देवदार को अंग्रेजी में इंडियन या हिमालियन सिदार कहते हैं। इसका वानस्पतिक नाम सीड्रस देवदारा (राक्सबर्गी) है। सीड्रस का उद्गम ग्रीक शब्द केडरॉस से हुआ है। जिसका अर्थ है कोनिफर अर्थात शंकु वाले पादप। उच्च गुणबत्ता की लकड़ी के रूप में भी इसका अपना एक विशिष्ट स्थान है। इसकी लकड़ी का उपयोग मुख्यतः मंदिरों तथा बड़े और खास घरों में होता आया है। पहले राष्ट्रीय स्तर पर रेलवे स्लीपर बनाने में इसकी लकड़ी का उपयोग किया जाता था। लेकिन अब उसकी जगह कंक्रीट ने ले ली है।

रूपरंग-

देवदार सदा हरा रहने वाला हरी पत्तियों वाला आकर्षक वृक्ष है। इसकी चमकीली तथा नुकीली पत्तियाँ इसकी सुंदरता को और बढ़ा देती हैं। इसका शंकु के आकार का शीर्ष, वृक्ष की आयु बढ़ने के साथ साथ गोल, चौड़ा, और चपटा हो जाता है जिसमें से शाखाएँ फैलती जाती हैं। कभी कभी इसका शीर्ष तेज हवा चलने या बर्फ गिरने से चपटा हो जाता है। जब वृक्ष पूर्ण परिपक्व हो जाता है तो उसकी लम्बाई ४० मीटर तक हो जाती है।

इस वृक्ष की छाल पतली हरी होती है जो धीरे धीरे गहरी भूरी होती जाती है तथा इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसकी पत्तियों की उम्र २ से तीन साल तक होती है। एक विख्यात वानिकी विशेषज्ञ दल ने १९१४ में कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) में एक चट्टान पर उगे एक वृक्ष की मोटाई ६ मीटर नापी जबकि इसकी ऊँचाई ५२ मीटर थी। देवदार के ७२ मीटर ऊँचे होने की जानकारी है। इसी प्रकार एक ७०० वर्ष पुराने देवदार के तने की एक काट फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट देहरादून के टिम्बर म्यूजियम में रखी हुई है।

देवदार प्राकृतिक हिमालय में अफगानिस्तान से लेकर गढ़वाल (उ॰ प्र॰) के पूर्वी इलाके तक फैले हुए हैं। वर्तमान में यह उ॰ प्र॰ के कुमाऊँ क्षेत्र तक अपना प्राकृतवास बना चुका है। यह आतंरिक शुष्क और बाहरी आर्द्र मानसून वाले हिमालयी क्षेत्रों में तथा समुद्र तल से १२०० से ३००० मीटर तक की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में उग सकता है। इसकी वृद्धि ठन्डे प्रदेशों में समुद्र तल से लगभग १८०० - २६०० मीटर ऊँचाई पर पायी जाती है। भारत में देवदार के वन हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर तथा उ॰ प्र॰ में पाये जाते हैं।

देवदार के वनों का कुल क्षेत्र लगभग २,०३,२५० हेक्टेयर के आसपास है जो हिमाचल-प्रदेश, जम्मू, कश्मीर उ॰ प्र॰ में फैला हुआ है। देवदार के घने वृक्ष मुख्यतः १०० से १८०० मि॰ मी॰ वर्षा वाले तथा -१२ डिग्री सेल्सियस (न्यूनतम) से ३८ डिग्री सेल्सियस (अधिकतम) तक के तापमान वाले क्षेत्रों में पाये जाते हैं। ये वृक्ष अन्य पादपों के साथ पाये जाते हैं। इनमें मुख्य हैं- बनफशा (बायोला केंइसेंस) झाड़ी या आइवी (हेडे रा हेलिक्स) प्रतान, रस्पबेरी रुबस प्रजाति, जंगली गुलाब (रोसा मोस्केटा) तथा गुच्ची (मोरकेला एसक्यूलेंटा) कवक, कुछ वृक्ष ब्लू पाइन (पाइनस वालीचाइना) तथा स्प्रूस (पाईसिआ स्मेथियाना) भी देवदार के सहयोगी पादप के रूप में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य वृक्ष जैसे चिलगोजा (पाइनस जिरेडिआना) ओके (करकस इलिक्स) आदि भी देवदार वनों के सहयोगी पादप के रूप में पाये जाते हैं।

परागण और पुनर्जनन-

देवदार सामान्यतः वर्ष भर हरा-भरा रहता है परन्तु इसकी नई पत्तियाँ मार्च से मई तक आती हैं तथा पुरानी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। देवदार के वृक्ष में नर मादा पुष्प एक ही वृक्ष पर अलग अलग शाखों पर पाये जाते हैं। इसके नर पुष्प जून में आते हैं तथा सितंबर - अक्टूबर तक परिपक्व होकर परागकण छोड़ देते हैं जबकि छोटे मादा पुष्प शंकु अगस्त में आते हैं तथा इनका परागण सितंबर - अक्टूबर में होता है। ये शंकु अगले वर्ष जून - जुलाई तक पूर्ण आकार ले लेते हैं तथा इनमें पंख सहित बीज छिपे होते हैं। देवदार के वृक्ष सूखा सहन नहीं कर सकते परन्तु पाल तथा तेज हवाओं को सह जाते हैं। देवदार के वनों की हानि आमतौर पर बर्फ गिरने एवं आग लगने से होती है। जबकि जानवरों की चराई से इसके पुनर्जनन क्षमता में कमी आती है। देवदार को सीधे बुआई अथवा रोपनी में तैयार पौधों से उगाया जा सकता है। इसके शंकुओं से अक्टूबर-नवंबर में बीज एकत्रित किये जाते हैं, एक किलो में तक़रीबन ७००० - ८००० बीज होते हैं तथा इनकी अंकुरण क्षमता ७०-८० प्रतिशत होती है। इसकी रोपणी में तैयार ढाई से ३ वर्षीय पौधे जुलाई - अगस्त में रोपे जाते हैं।

उपयोग-

देवदार उत्तरी भारत का एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी काष्ठीय है। प्राचीनकाल से ही इसका उपयोग मंदिरों एवं भवन निर्माण में होता रहा है। विगत कुछ दशकों से इसका इस्तेमाल रेलवे के स्लीपरों में हो रहा था। परन्तु इसकी टीजी से घटती संख्या के चलते इसे रोक दिया गया है। इसकी उच्च गुणवत्ता लकड़ी उत्पाद है। इसकी लकड़ी में पसीना व मूत्र बढ़ाने वाले औषधीय गुण पाये जाते हैं। बुखार, बबासीर, फेफड़ों एवं मूत्राशय संबंधी रोगों में देवदार प्रयुक्त होता है। हिमाचल प्रदेश के कुछ भागों में इसकी लकड़ी का पेस्ट चन्दन की तरह ललाट पर लगाया जाता है तथा ऐसी मान्यता है कि इससे सिरदर्द ठीक हो जाता है। देवदार की छाल भी औषधीय महत्व की होती है तथा इसका उपयोग बुखार, अपच, दस्त आदि रोगों में होता है। देdeodar.htmवदार का ऑलिव- रेजिन तथा इसकी लकड़ी के विनाशात्मक संघनन से प्राप्त तेल का उपयोग अल्सर एवं त्वचा रोगों में होता है। देवदार के तेल की माँग इत्र, साबुन, तथा अन्य कई उद्योगों में है।

संरक्षण-

देवदार के उपयोगों एवं इसकी लकड़ी की बढ़ती माँग के चलते इसके वर्तमान वनों के संरक्षण एवं नए वनों के विकास की अत्यन्त आवश्यकता है। इसके वनों को आग एवं बर्फ के अलावा करीब ६० प्रकार के कीड़े भी हानि पहुँचाते हैं। आज के युग की जरुरत है कि इसकी प्रजाति के वनों को पूर्णतः सुरक्षित बनाया जाय और वनों की तेजी से वृद्धि की जाए ताकि इस वृक्ष की रक्षा व संवर्धन हो सके।

१५ मई २०१६

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