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तैरने वाला समाज डूब रहा है
बाढ़-जल
संरक्षण की भारतीय पारंपरिक तकनीक
– अनुपम मिश्र
जुलाई (२००४)
के पहले पखवाड़े में उत्तर बिहार में आई भयानक बाढ़ अब पुरानी
बात हो गई है। लोग उसे भूल गए हैं। लेकिन याद रखना चाहिए कि
उत्तर बिहार उस बाढ़ की मंजिल नहीं था। वह एक पड़ाव भर था। बाढ़
की शुरुआत नेपाल से होती है, फिर वह उत्तर बिहार आती है। उसके
बाद बंगाल जाती है। और सबसे अंत में- सितम्बर के अंत या
अक्टूबर के प्रारंभ में- वह बाँग्लादेश में अपनी आखरी उपस्थिति
जताते हुए सागर में मिलती है। इस बार उत्तर बिहार में बाढ़ ने
बहुत अधिक तबाही मचाई। कुछ दिन सभी का ध्यान इसकी तरफ गया।
जैसा कि अक्सर होता है, हेलीकॉप्टर आदि से दौरे हुए। फिर हम
इसको भूल गए।
बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन का अंतर
पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियाँ बिल्कुल तय हैं।
लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह
अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियाँ करनी चाहिए, वे
बिल्कुल नहीं हो पाती हैं। इसलिए अब बाढ़ की मारक क्षमता पहले
से अधिक बढ़ चली है। पहले शायद हमारा समाज बिना इतने बड़े
प्रशासन के या बिना इतने बड़े निकम्मे प्रशासन के अपना इंतजाम
बखूबी करना जानता था। इसलिए बाढ़ आने पर वह इतना परेशान नहीं
दिखता था।
इस बार की बाढ़ ने उत्तर बिहार को कुछ अभिशप्त इलाके की तरह छोड़
दिया है। सभी जगह बाढ़ से निपटने में अव्यवस्था की चर्चा हुई
है। अव्यवस्था के कई कारण भी गिनाए गए हैं- वहाँ की असहाय
गरीबी आदि। लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात का अंदाज होगा कि
उत्तर बिहार एक बहुत ही संपन्न टुकड़ा रहा है इस प्रदेश का।
मुजफ्फरपुर की लीचियाँ, पूसा ढोली की ईख, दरभंगा का शाहबसंत
धान, शकरकंद, आम, चीनिया केला और बादाम और यहीं के कुछ इलाकों
में पैदा होने वाली तंबाकू, जो पूरे शरीर की नसों को हिलाकर रख
देती है। सिलोत क्षेत्र का पतले से पतला चूड़ा जिसके बारे में
कहा जाता है कि वह नाक की हवा से उड़ जाता है, उसके स्वाद की
चर्चा तो अलग ही है। वहाँ धान की ऐसी भी किस्में रही हैं जो
बाढ़ के पानी के साथ-साथ खेलती हुई ऊपर उठती जाती थीं और फिर
बाढ़ को विदा कर खलिहान में आती थीं। फिर दियारा के संपन्न खेत।
सुधी पाठक इस सूची को न जाने कितना बढ़ा सकते हैं। इसमें पटसन
और नील भी जोड़ लें तो आप 'दुनिया के सबसे बड़े' यानी लंबे
प्लेटफार्म पर अपने आप को खड़ा पाएँगे। एक पूरा संपन्न इलाका
उत्तर बिहार आज दयनीय स्थिति में क्यों पड़ गया है? हमें सोचना
चाहिए। सोनपुर का प्लेटफार्म। ऐसा कहते हैं कि यह हमारे देश का
सबसे बड़ा प्लेटफार्म है। यह अंग्रेजों के समय में बना था।
क्यों बनाया गया इतना बड़ा प्लेटफार्म ? यह वहाँ की संपन्नतम
चीजों को रेल से ढोकर देश के भीतर और बाहर ले जाने के लिए
बनाया गया था। लेकिन आज हम इस इलाके की कोई चिंता नहीं कर रहे
हैं और उसे एक तरह से लाचारी में छोड़ बैठे हैं।
बाढ़ आने पर सबसे पहला दोष तो हम नेपाल को देते हैं। नेपाल एक
छोटा-सा देश है। बाढ़ के लिए हम उसे कब तक दोषी ठहराते रहेंगे?
कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा, इसलिए उत्तर बिहार बह गया।
यह देखने लायक बात होगी कि नेपाल कितना पानी छोड़ता है। मोटे
तौर पर हम कह सकते हैं कि नेपाल बाढ़ का पहला हिस्सा है। वहाँ
हिमालय की चोटियों से जो पानी गिरता है, उसे रोकने की उसके पास
कोई क्षमता और साधन नहीं है और शायद उसे रोकने की कोई
व्यवहारिक जरूरत भी नहीं है। रोकने से खतरे और भी बढ़ सकते हैं।
इसलिए नेपाल पर दोष थोपना बंद करना होगा।
यदि नेपाल पानी रोकेगा तो आज नहीं तो कल हमें अभी की बाढ़ से भी
भयंकर बाढ़ झेलने की तैयारी करके रखनी पड़ेगी। हम सब जानते हैं
कि हिमालय का यह हिस्सा कच्चा है और इसमें कितनी भी सावधानी और
ईमानदारी से बनाए गए बाँध किसी न किसी तरह से प्रकृति की किसी
छोटी सी हलचल से टूट भी सकते हैं। और तब आज से कई गुना भयंकर
बाढ़ हमारे सामने आ सकती है। यदि नेपाल को ही दोषी ठहराया जाए
तो कम से कम बिहार के बाढ़ नियंत्रण का एक बड़ा भाग- पैसों का,
इंजीनियरों का, नेताओं का अप्रैल और मई में नेपाल जाना चाहिए
ताकि वहाँ, यहाँ की बाढ़ से निपटने के लिए पुख्ता इंतजामों के
बारे में बातचीत की जा सके। बातचीत मित्रवत हो, तकनीकी तौर पर
हो और जरूरत पड़े तो फिर मई में ही प्रधानमंत्री नहीं तो प्रदेश
के मुख्यमंत्री ही नेपाल जाएँ और आगामी जुलाई में आने वाली बाढ़
के बारे में चर्चा करके देखें।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम बाढ़ के रास्ते में हैं। उत्तर
बिहार से पहले नेपाल में काफी लोगों को बाढ़ के कारण जान से हाथ
धोना पड़ा है। पिछले साल नेपाल में भयंकर भूस्खलन हुए थे, और तब
हमें पता चल जाना चाहिए था कि अगले साल हम पर भी बड़ा संकट
आएगा, क्योंकि हिमालय के इस कच्चे भाग में जितने भूस्खलन हुए,
उन सबका मलबा वहीं का वहीं पड़ा था और वह इस वर्ष की बरसात में
नीचे उतर आने वाला था।
उत्तर बिहार की परिस्थिति भी अलग से समझने लायक है। यहाँ पर
हिमालय से अनगिनत नदियाँ सीधे उतरती हैं और उनके उतरने का एक
ही सरल उदाहरण दिया जा सकता है। जैसे पाठशाला में टीन की
फिसलपट्टी होती है, उसी तरह से यह नदियाँ हिमलय से बर्फ की
फिसलपट्टी से धड़ाधड़ नीचे उतारती हैं। हिमालय के इसी क्षेत्र
में नेपाल के हिस्से में सबसे ऊँची चोटियाँ हैं और कम दूरी तय
करके ये नदियाँ उत्तर भारत में नीचे उतरती हैं। इसलिए इन
नदियों की पानी क्षमता, उनका वेग, उनके साथ कच्चे हिमालय से,
शिवालिक से आने वाली मिट्टी और गाद इतनी अधिक होती है कि उसकी
तुलना पश्चिमी हिमालय और उत्तर-पूर्वी हिमालय से नहीं कर सकते।
एक तो यह सबसे ऊँचा क्षेत्र है, कच्चा भी है, फिर भ्रंश पर
टिका हुआ इलाका है। यहाँ भौगोलिक परिस्थितियाँ ऐसी हैं, जहाँ
से हिमालय का जन्म हुआ है। बहुत कम लोगों को अंदाज होगा कि
हमारा समाज भी भू-विज्ञान को, 'जिओ मार्फालॉजी' को खूब अच्छी
तरह समझता है। इसी इलाके में ग्यारहवीं शताब्दी में बना वराह
अवतार का मंदिर भी है जो किसी और इलाके में आसानी से मिलता
नहीं है। यह हिस्सा कुछ करोड़ साल पहले किसी एक घटना के कारण
हिमालय के रूप में सामने आया। यहीं से फिर नदियों का जाल बिछा।
ये सरपट दौड़ती हुई आती हैं- सीधी उतरती हैं। इससे उनकी ताकत और
बढ़ जाती है।
जब हिमालय बना तब कहते हैं कि उसके तीन पुड़े थे। तीन तहें
थीं। जैसे मध्यप्रदेश के हिस्से में सतपुड़ा है वैसे यहाँ तीन
पुड़े थे- आंतरिक, मध्य और बाह्य। बाह्य हिस्सा शिवालिक सबसे
कमजोर माना जाता है। वैसे भी भूगोल की परिभाषा में हिमालय के
लिए कहा जाता है कि यह अरावली, विंध्य और सतपुड़ा के मुकाबले
बच्चा है। महीनों के बारह पन्ने पलटने से हमारे सभी तरह के
कैलेंडर दीवार पर से उतर आते हैं। लेकिन प्रकृति के कैलेंडर
में लाखों वर्षों का एक पन्ना होता है। उस कैलेंडर से देखें तो
शायद अरावली की उम्र नब्बे वर्ष होगी और हिमालय, अभी चार-पांच
बरस का शैतान बच्चा है। वह अभी उलछता-कूदता है, खेलता-डोलता
है। टूट-फूट उसमें बहुत होती रहती है। अभी उसमें प्रौढ़ता या
वयस्क वाला संयम, शांत, धीरज वाला गुण नहीं आया है। इसलिए
हिमालय की ये नदियाँ सिर्फ पानी नहीं बहाती हैं वे साद,
मिट्टी, पत्थर और बड़ी-बड़ी चट्टानें भी साथ लाती हैं। उत्तर
बिहार का समाज अपनी स्मृति में इन बातों को दर्ज कर चुका था।
एक तो चंचल बच्चा हिमालय, फिर कच्चा और तिस पर भूकंप वाला
क्षेत्र भी- क्या कसर बाकी है? हिमालय के इसी क्षेत्र से भूकंप
की एक बड़ी और प्रमुख पट्टी गुजरती है। दूसरी पट्टी इस पट्टी से
थोड़े ऊपर के भाग के मध्य हिमालय में आती है। सारा भाग लाखों
बरस पहले के अस्थिर मलबे के ढेर से बना है और फिर भूकंप इसे जब
चाहे और अस्थिर बना देते है। भू- विज्ञान बताता है कि इस उत्तर
बिहार में और नेपाल के क्षेत्र में धरती में समुद्र की तरह
लहरें उठी थीं और फिर वे एक-दूसरे से टकरा कर ऊपर ही ऊपर उठती
चली गई और फिर कुछ समय के लिए स्थिर हो गई, यह 'स्थिरता' तांडव
नृत्य की तरह है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में लाखों वर्ष पहले
'मियोसिन' काल में घटी इस घटना को उत्तरी बिहार के समाज ने
अपनी स्मृति में वराह अवतार के रूप में जमा किया है। जिस डूबती
पृथ्वी को वराह ने अपने थूथनों से ऊपर उठाया था, वह आज भी कभी
भी कांप जाती है। १९३४ में जो भूकंप आया था, उसे अभी भी लोग
भूले नहीं हैं।
लेकिन यहाँ के समाज ने इन सब परिस्थितियों को अपनी जीवन शैली
में, जीवन दर्शन में धीरे-धीरे आत्मसात किया था। प्रकृति के इस
विराट रूप में वह एक छोटी सी बूँद की तरह शामिल हुआ। उसमें कोई
घमंड नहीं था। वह इस प्रकृति से खेल लेगा, लड़ लेगा। वह उसकी
गोद में कैसे रह सकता है- इसका उसने अभ्यास करके रखा था।
क्षणभंगुर समाज ने करोड़ वर्ष की इस लीला में अपने को प्रौढ़ बना
लिया और फिर अपनी प्रौढ़ता को हिमालय के लड़कपन की गोद में डाल
दिया था। लेकिन पिछले सौ- डेढ़ सौ साल में हमारे समाज ने ऐसी
बहुत सारी चीजें की हैं जिनसे उसका विनम्र स्वभाव बदला है और
उसके मन में थोड़ा घमंड भी आया है। समाज के मन में न सही तो
उसके नेताओं, के योजनाकारों के मन में यह घमंड आया है।
समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से, यहाँ फिसलगुंडी की तरह
फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी,
बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़
में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे
मिटती जा रही है। उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों
की संख्या अनंत है। कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने
उनकी गिनती की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहाँ पर इन नदियों
ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो
इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई
पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा
देवियों के रूप में देखा है। लेकिन हम उनके विशेषण दूसरी तरह
से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह-तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे जो
उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से
होंगे। कुछ गुणों पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं।
इन नदियों के विशेषणों में सबसे अधिक संख्या है- आभूषणों की।
और ये आभूषण हंसुली, और चंद्रहार जैसे गहनों के नाम पर हैं। हम
सभी जानते हैं कि ये आभूषण गोल आकार के होते हैं- यानी यहाँ पर
नदियाँ उतरते समय इधर- उधर सीधी बहने के बदले आड़ी, तिरछी, गोल
आकार में क्षेत्र को बाँधती हैं- गाँवों को लपेटती हैं और उन
गाँवों को आभूषणों की तरह श्रृंगार करती हैं। उत्तर बिहार के
कई गाँव इन 'आभूषणों' से ऐसे सजे हुए थे कि बिना पैर धोए आप इन
गाँवों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। इनमें रहने वाले आपको गर्व
से बताएँगे कि हमारे गाँव की पवित्र धूल गाँव से बाहर नहीं जा
सकती, और आप अपनी (शायद अपवित्र) धूल गाँव में ला नहीं सकते।
कहीं-कहीं बहुत व्यावहारिक नाम भी मिलेंगे। एक नदी का नाम
गोमूत्रिका है- जैसे कोई गाय चलते-चलते पेशाब करती है तो जमीन
पर आड़े तिरछे निशान पड़ जाते हैं इतनी आड़ी तिरछी बहने वाली यह
नदी है। इसमें एक-एक नदी का स्वभाव देखकर लोगों ने इसको अपनी
स्मृति में रखा है।
एक तो इन नदियों का स्वभाव और ऊपर से पानी के साथ आने वाली साद
के कारण ये अपना रास्ता बदलती रहती हैं। कोसी के बारे में कहा
जाता है कि पिछले कुछ सौ साल में १४८ किलोमीटर के क्षेत्र में
अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी
कोसी ने नहीं छोड़ी है जहाँ से वह बही न हो। ऐसी नदियों को हम
किसी तरह के तटबंध या बाँध से बाँध सकते हैं, यह कल्पना करना
भी अपने आप में विचित्र है। समाज ने इन नदियों को अभिशाप की
तरह नहीं देखा। उसने इनके वरदान को कृतज्ञता से देखा। उसने यह
माना कि इन नदियों ने हिमालय की कीमती मिट्टी इस क्षेत्र के
दलदल में पटक कर बहुत बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन निकाली
है। इसलिए वह इन नदियों को बहुत आदर के साथ देखता रहा है। कहा
जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो सका तो इन्हीं
नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण ही। लेकिन इनमें भी समाज
ने उन नदियों को छाँटा है जो अपेक्षाकृत कम साद वाले इलाकों से
आती हैं।
ऐसी नदियों में एक है- खिरोदी। कहा जाता है कि इसका नामकरण
क्षीर अर्थात दूध से हुआ है, क्योंकि इसमें साफ पानी बहता है।
एक नदी जीवछ है, जो शायद जीवात्मा या जीव इच्छा से बनी होगी।
सोनबरसा भी है। इन नदियों के नामों में गुणों का वर्णन देखेंगे
तो किसी में भी बाढ़ से लाचारी की झलक नहीं मिलेगी। कई जगह
ललित्य है इन नदियों के स्वभाव में। सुंदर कहानी है मैथिली के
कवि विद्यापति की। कवि जब अस्वस्थ हो गए तो उन्होंने अपने
प्राण नदी में छोड़ने का प्रण किया। कवि प्राण छोड़ने नदी की तरफ
चल पड़े, मगर बहुत अस्वस्थ होने के कारण नदी किनारे तक नहीं
पहुँच सके। कुछ दूरी पर ही रह गए तो नदी से प्रार्थना की कि हे
मां, मेरे साहित्य में कोई शक्ति हो, मेरे कुछ पुण्य हों तो
मुझे ले जाओ। कहते हैं कि नदी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली
और कवि को बहा ले गई।
नदियाँ विहार करती हैं, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कूदती
हैं। यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएँ उसे जगह
बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक दर्पण
साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियाँ थीं। इन असंख्य
नदियों में वहाँ का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के
चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से देह में, अपने मन और अपने
विचारों में उतारता था। इसलिए कभी वहाँ कवि विद्यापति जैसे
सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएँ रेत में उकेरी
जातीं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं
थीं- हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख
इतिहास में मिलें न मिलें, लोगों के मन में, लोक स्मृति में
मिलते थे। फुलपरास का किस्सा यहाँ दोहराने लायक है।
कभी भुतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदलकर कहीं
और भटक गई। तब भुतही को वापस बुलाने के लिए अनुष्ठान किया गया।
नदी ने मनुहार स्वीकार की और अगले वर्ष वापस चली आई ! ये
कहानियाँ समाज इसलिए याद रखवाना चाहता है कि लोगों को मालूम
रहे कि यहाँ की नदियाँ कवि के कहने से भी रास्ता बदल लेती हैं
और साधारण लोगों का आग्रह स्वीकार कर अपना बदला हुआ रास्ता फिर
से सुधार लेती हैं। इसलिए इन नदियों के स्वभाव को ध्यान में
रखकर जीवन चलाओ। ये चीजें हम लोगों को इस तरफ ले जाती हैं कि
जिन बातों को भूल गए हैं उन्हें फिर से याद करें।
कुछ नदियों के बहुत विचित्र नाम भी समाज ने हजारों साल के
अनुभव से रखे थे। इनमें से एक विचित्र नाम है- अमरबेल। कहीं से
आकाशबेल भी कहते हैं। इस नदी का उद्भव और संगम कहीं नहीं दिखाई
देता है। कहाँ से निकलती है, किस नदी में मिलती है- ऐसी कोई
पक्की जानकारी नहीं है। बरसात के दिनों में अचानक प्रकट होती
है और जैसे पेड़ पर अमरबेल छा जाती है वैसे ही एक बड़े इलाके में
इसकी कई धाराएँ दिखाई देती हैं। फिर ये गायब भी हो जाती हैं।
यह भी जरूरी नहीं कि वह अगले साल इन्हीं धाराओं में से बहे। तब
यह अपना कोई दूसरा नया जाल खोल लेती है। एक नदी का नाम है
दस्यु नदी। यह दस्यु की तरह दूसरी नदियों की 'कमाई' हुई जलराशि
का, उनके वैभव का हरण कर लेती है। इसलिए पुराने साहित्य में
इसका एक विशेषण वैभवहरण भी मिलता है।
फिर बिल्कुल चालू बोलियों में भी नदियों के नाम मिलते हैं। एक
नदी का नाम मरने है। इसी तरह एक नदी मरगंगा है। भुतहा या भुतही
का किस्सा तो ऊपर आ ही गया है। जहाँ ढेर सारी नदिया हर कभी हर
कहीं से बहती हों सारे नियम तोड़ कर, वहाँ समाज ने एक ऐसी भी
नदी खोज ली थी जो टस से मस नहीं होती थी। उसका नाम रखा गया-
धर्ममूला। ऐसे भूगोलविद समझदार समाज के आज टुकड़े-टुकड़े हो गए
हैं। ये सब बताते हैं कि नदियाँ यहाँ जीवंत भी हैं और कभी- कभी
वे गायब भी हो जाती हैं, भूत भी बन जाती हैं, मर भी जाती हैं।
यह सब इसलिए होता है कि ऊपर से आने वाली साद उनमें -भरान और
धसान- ये दो गतिविधियाँ इतनी तेजी से चलाती हैं कि उनके रूप हर
बार बदलते जाते हैं।
बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलता है कि इनमें ऐसे
भंवर उठते हैं कि हाथियों को भी डुबो दे। इनमें चट्टानें और
पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब वे आपस में टकराते हैं
तो ऐसी आवाज आती है कि दिशाएँ बहरी हो जाएँ! ऐसा भी उल्लेख
मिलता है कि कुछ नदियों में बरसात के दिनों में मगरमच्छों का
आना इतना अधिक हो जाता है कि उनके सिर या थूथने गोबर के कंडे
की तरह तैरते हुए दिखाई देते हैं। ये नदियाँ एक-दूसरे से बहुत
मिलती हैं, एक-दूसरे का पानी लेती हैं और देती भी हैं। इस
आदान-प्रदान में जो खेल होता है उसे हमने एक हद तक अब बाढ़ में
बदल दिया है। नहीं तो यहाँ के लोग इस खेल को दूसरे ढंग से
देखते थे। वे बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे।
इन्हीं नदियों की बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों
में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना
पद मिलता है- 'चार कोसी झाड़ी।' इसके बारे में नए लोगों को अब
ज्यादा कुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर
यहाँ के इलाकों का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ
हिस्सा शायद चम्पारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय
की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया
था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह- बारह सौ किलोमीटर तक
चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था।
चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज
के खर्चीले, अव्यावहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन-बंध बाढ़
में आने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती
रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी।
ढाइ हजार साल पहले एक संवाद में बाढ़ का कुछ वर्णन मिलता है।
संवाद भगवान बुध्द और एक ग्वाले के बीच है। ग्वाले के घर में
किसी दिन भगवान बुध्द पहुँचे हैं। काली घटाएँ छाई हुई हैं।
ग्वाला बुध्द से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय
को मजबूती से खूंटे में बाँध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़
का कोई डर नहीं बचा है। आराम से चाहे जितना पानी बरसे। नदी
देवी दर्शन देकर चली जाएँगी। इसके बाद भगवान बुध्द ग्वाले से
कह रहे हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे
बाढ़ का कोई डर नहीं है। युगपुरुष साधारण ग्वाले की झोपड़ी में
नदी किनारे रात बिताएँगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी
भी बाढ़ आ जाएगी? पर दोनों निश्चिंत हैं। आज क्या ऐसा संवाद बाढ़
से ठीक पहले हो पाएगा?
ये सारी चीजें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना
जानते थे। यहाँ का समाज इस बाढ़ में तैरना जानता था। इस बाढ़ में
तरना भी जानता है। इस पूरे इलाके में ह्रद और चौरा या चौर दो
शब्द बड़े तालाबों के लिए हैं। इस इलाके में पुराने और बड़े
तालाबों का वर्णन खूब मिलता है। दरभंगा का एक तालाब इतना बड़ा
था कि उसका वर्णन करने वाले उसे अतिशयोक्ति तक ले गए। उसे
बनाने वाले लोगों ने अगस्त्य मुनि तक को चुनौती दी कि तुमने
समुद्र का पानी पीकर उसे सुखा दिया था, अब हमारे इस तालाब का
पानी पीकर सुखा दो तब जानें। वैसे समुद्र जितना बड़ा कुछ भी न
होगा- यह वहाँ के लोगों को भी पता था। पर यह खेल है कि हम इतना
बड़ा तालाब बनाना जानते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी तक वहाँ के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े
किस्से चलते थे। चौर में भी बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया
जाता था। परिहारपुर, भरवारा और आलापुर आदि क्षेत्रों में
दो-तीन मील लंबे-चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों के
मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की
जगह घेरते हैं- इनका पानी सुखाकर जमीन लोगों को खेती के लिए
उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत जरूर बढ़ा लिए, लेकिन
दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। ये
बड़े-बड़े तालाब वहाँ बाढ़ का पानी रोकने का काम करते थे।
आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिंग शब्द है। इस तरह का पूरा
ढांचा उत्तर बिहार के लोगों ने बनाया था। वह ‘फ्लड वॉटर
हारवेस्टिंग सिस्टम' था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था। तब
भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम से कम करना जानते
थे। तालाब का एक विशेषण यहाँ मिलता है- नदिया ताल। मतलब है- वह
वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे
देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहाँ
हिमालय से उतरने वाला तालाब बनाना ज्यादा व्यावहारिक होता था।
नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक
क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाया जाता था।
आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे
दंभी हैं। उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते
हुए बाँग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाजा है कि बाँग्लादेश
में कुल जो जलराशि इकट्ठा होती है, उसका केवल दस प्रतिशत उसे
बादलों से मिलता है। नब्बे फीसदी उसे बिहार, नेपाल और दूसरी
तरफ से आने वाली नदियों से मिलता है। वहाँ तीन बड़ी नदियाँ
गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियाँ नब्बे फीसदी
पानी उस देश में लेकर आती हैं और कुल दस फीसदी वर्षा से मिलता
है। बाँग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे इनके
संगम के किनारे रहना जानता था। वहाँ नदी अनेक मीलों फैल जाती
है। हमारी जैसी नदियाँ नहीं होतीं कि एक तट से दूसरा तट दिखाई
दे। वहाँ की नदियाँ क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के
किनारे भी वह न सिर्फ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने
लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फसल
निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसीलिए सोनार बाँग्ला
कहलाता था।
लेकिन धीरे- धीरे चार कोसी झाड़ी गई। ह्रद और चौर चले गए। कम
हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसको लालच में थोड़े बड़े हिस्से
में फैलाकर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं।
बस्तियाँ कहाँ बनेंगी, कहाँ नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन
होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं
बसेगी- ऐसे नियम टूट चुके हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़ने लगी
है। उसे भी धीरे-धीरे भूलकर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य
अनियंत्रित विकास के कारण- अब हम नदियों के बाढ़ के रास्ते में
सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का
दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंजिल तक पानी भरता है तो इसका एक
बड़ा कारण उसके रास्ते में विकास करना है।
एक और बहुत बड़ी चीज पिछले दो-एक सौ साल में हुई है। वे हैं
तटबंध और बाँध। छोटे से लेकर बड़े बाँध इस इलाके में बनाए गए
हैं, बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से
उधर न भटके यह मानकर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई
है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बाँग्लादेश में भी बने हैं और
इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। और उसके बाद आज पता चलता है
कि इनसे बाढ़ रुकने के बजाय बढ़ी है, नुकसान ही ज्यादा हुआ है।
अभी तो कहीं-कहीं ये एकमात्र उपकार यह करते हैं कि एक बड़े
इलाके की आबादी जब डूब से प्रभावित होती है, बाढ़ से प्रभावित
होती है तो लोग इन तटबंधों पर ही शरण लेने आ जाते हैं। जो बाढ़
से बचाने वाली योजना थी वह केवल शरणस्थली में बदल गई है। इन सब
चीजों के बारे में सोचना चाहिए। बहुत पहले से लोग कह रहे हैं
कि तटबंध व्यावहारिक नहीं हैं। लेकिन हमने देखा है कि पिछले
डेढ़ सौ साल में हम लोगों ने तटबंधों के सिवाय और किसी चीज में
पैसा नहीं लगाया है, ध्यान नहीं लगाया है।
बाढ़ अगले साल भी आएगी। यह अतिथि नहीं है। इसकी तिथियाँ तय हैं
और हमारा समाज इससे खेलना जानता था। लेकिन अब हम जैसे- जैसे
ज्यादा विकसित होते जा रहे हैं, इसकी तिथियाँ और इसका स्वभाव
भूल रहे हैं। इस साल कहा जाता है कि बाढ़ राहत में खाना बाँटने
में, खाने के पैकेट गिराने में हेलीकाप्टर का जो इस्तेमाल किया
गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लागत से
सिर्फ दो करोड़ की रोटी- सब्जी बाँटी गई थी। ज्यादा अच्छा होता
कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलीकाप्टर के बदले हम कम से कम
बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को
सम्मान के साथ इस काम में लगाते। यह नदियों की गोदी में
पला-बढ़ा समाज है। इसे बाढ़ भयानक नहीं दिखती। अपने घर की,
परिवार की सदस्य की तरह दिखती है- उसके हाथ में हमने बीस हजार
नावें छोडी होतीं। इस साल नहीं छोड़ी गईं तो अगले साल इस तरह की
योजना बन सकती है। नावें तैयार रखी जाएँ- उनके नाविक तैयार
हों, उनका रजिस्टर तैयार हो, जो वहाँ के जिलाधिकारी या इलाके
की किसी प्रमुख संस्था या संगठन के पास हो, उसमें किसी राहत की
सामग्री कहाँ- कहाँ से रखी जाएगी, यह सब तय हो। और हरेक नाव को
निश्चित गाँवों की संख्या दी जाए। डूब के प्रभाव को देखते हुए,
पुराने अनुभव को देखते हुए, उनको सबसे पहले कहाँ- कहाँ अनाज या
बना-बनाया खाना पहुँचाना है- इसकी तैयारी हो। तब हम पाएँगे कि
चौबीस करोड़ के हेलीकाप्टर के बदले शायद यह काम एक या दो करोड़
में कर सकेंगे और इस राशि की एक-एक पाई उन लोगों तक जाएगी जिन
तक बाढ़ के दिनों में उसे जाना चाहिए।
बाढ़ आज से नहीं आ रही है। अगर आप बहुत पहले का साहित्य न भी
देखें तो देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू की आत्मकथा में
देखेंगे कि उसमें छपरा की भयानक बाढ़ का उल्लेख मिलेगा। उस समय
कहा जाता है कि एक ही घंटे में छत्तीस इंच वर्षा हुई थी और
पूरा छपरा जिला पानी में डूब गया था। तब भी राहत का काम हुआ और
तब पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सरकार से आगे बढ़कर काम किया था।
उस समय भी आरोप लगे थे कि प्रशासन ने इसमें कोई खास मदद नहीं
दी। आज भी ऐसे आरोप लगते हैं, ऐसी ही बाढ़ आती है। तो चित्र
बदलेगा नहीं। बड़े नेताओं की आत्मकथाओं में इसी तरह की लाइनें
लिखी जाएँगी और अखबारों में भी इसी तरह की चीजें छपेंगी। लेकिन
हमें कुछ विशेष करके दिखाना है तो हम लोगों को नेपाल, बिहार,
बंगाल और बाँग्लादेश- सभी को मिलकर बात करनी होगी। पुरानी
स्मृतियों में बाढ़ से निपटने के क्या तरीके थे, उनका फिर से
आदान-प्रदान करना होगा। उन्हें समझना होगा और उन्हें नई
व्यवस्था में हम किस तरह से ज्यों का त्यों या कुछ सुधार कर
अपना सकते हैं, इस पर ध्यान देना होगा।
जब शुरू- शुरू में अंग्रेजों ने इस इलाके में नहरों का, पानी
का काम किया, तटबंधों का काम किया तब भी उनके बीच में एक-दो
ऐसे सहृदहय समझदार और यहाँ की मिट्टी को जानने- समझने वाले
अधिकारी रहे जिन्होंने ऐसा माना था कि जो कुछ किया गया है उससे
यह इलाका सुधरने के बदले और अधिक बिगड़ा है। इस तरह की चीजें
हमारे पुराने दस्तावेजों में हैं। इन सबको एक साथ समझना-बूझना
चाहिए और इसमें से फिर कोई रास्ता निकालना चाहिए। नहीं तो
उत्तर बिहार की बाढ़ का प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहेगा। हम
उसका उत्तर नहीं खोज पाएँगे। (लेखक की
पुस्तक साफ़ माथे का समाज से)
२६ सितंबर २०११ |