पर्यटन | ||
सिक्किम के सफ़र पर मनीष कुमार |
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कंचनजंघा को कंचनजंघा क्यों कहते हैं यह इस फ़ोटो को देख कर ही जाना जा सकता है। |
लाचुंग की वह सुबह अनोखी थी। दूरदूर तक बारिश का नामोनिशान नहीं था। गहरे नीचे आकाश के नीचे लाचुंग का पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था। पहाड़ के बीचोंबीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। पर असली नज़ारा तो दूसरी ओर था। पर्वतों और सूरज के बीच की ऐसी आंखमिचौनी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। पहाड़ के ठीक सामने का हिस्सा जिधर हमारा होटल था अभी भी अंधकार में डूबा था। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाए खड़ा था। उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं। थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यों प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवान ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक यह दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे। अपने सफ़र के इस यादगार लमहे को मैं अपने कैमरे में कैद कर सका ये मेरी खुशकिस्मती है। कंचनजंघा को कंचनजंघा क्यों कहते हैं यह इस फ़ोटो को देख कर ही जाना जा सकता है। यूमथांग घाटी अगला पड़ाव यूमथांग घाटी था। ये घाटी लॉचुंग से करीब 25 कि .मी .दूर है और यहां के लोग इसे फूलों की घाटी के नाम से भी बुलाते हैं। दरअसल यह घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की 24 अलगअलग प्रजातियों के लिए मशहूर है। सुबह की धूप का आनंद लेते हुए हम यूमथांग की ओर चल पड़े। सारा रास्ता बैंगनी रंग के इन छोटेछोटे फूलों से अटा पड़ा था। करीब डेढ़ घंटे के सफ़र के बाद हम यूमथांग में थे। रास्ते में ही हमें रोडोडेन्ड्रोन्स के जंगल दिखने शुरू हो गए थे। मार्च अप्रैल से इनके पौधों में कलियां लगने लगती हैं। पर पूरी तरह से ये खिलते हैं मई के महीने में, जब पूरी घाटी इनके लाल और गुलाबी रंगों से रंग जाती है। चूंकि यह घाटी 12,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है यहां गुरूडांगमार की तरह हरियाली की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस आसमान की उस नीली छत की जो सुबह में दिखने के बाद यहां पहुंचते ही गायब हो गई थी। घाटी के बीच पत्थरों पे उछलती कूदती नदी बह रही थी। जाड़े में ये पत्थर बर्फ के अंदर दब जाते हैं। इन गोल मटोल पत्थरों के ढेर के साथसाथ हम सब काफ़ी देर तक चलते रहे। किसी ने कहा रात में बारिश हुई है तो साथ में बर्फ़ भी गिरी होगी। फिर क्या था नदी का पाट छोड़ हम किनारे पर दिख रहे वृक्षों की झुरमुटों की ओर चल पड़े। पेड़ों के बीच हमें बर्फ गिरी दिख ही गई। पास में ही सल्फर युक्त पानी का सोता था पर वहां तक पहुंचने के लिए इस पहाड़ी नदी यानि यहां की भाषा में कहें तो लाचुंग चू को पार करना था। वहीं से इस ठुमकती चू को कैमरे से छू लिया। गर्म पानी का स्पर्श कर हम वापस लाचुंग लौट चले। भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। गंगतोक के रास्ते में तिस्ता घाटी की अंतिम झलक पाने के लिए हम गाड़ी से उतरे। काफी ऊंचाई से ली गई इस तसवीर में घुमावदार रास्तों के जाल के साथ नीचे बहती हुई तिस्ता को आप देख सकते हैं। तिस्ता से ये इस सफ़र की आखिरी मुलाकात तो नहीं पर उसकी अंतिम तसवीर ये ज़रूर थी। सांझ ढ़लतेढ़लते हम गंगतोक में कदम रख चुके थे।अपना अगला दिन नाम था सिक्किम के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिए जहां प्रकृति अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। छान्गू झील, नाथू ला और बाबा मंदिर अगली सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से नाथू-ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुए कि इतने पास आकर भी भारत-चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएंगें पर बारिश ने जहां नाथू-ला जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली वादियां के पहली बार दर्शन हो ही जाएंगे। इसी खुशी को मन में संजोए हुए हम छान्गू (या तसेम्ग् अब इसका उच्चारण मेरे वश के बाहर है, वैसे भूतिया भाषा में टसेम्गे का मतलब झील का उदगम स्थल है) की ओर चल पड़े। 3780 मीटर यानि करीब 12000 फीट की ऊंचाई पर स्थित छान्गू झील गंगतोक से मात्र 40 कि .मी .की दूरी पर है। गंगतोक से निकलते ही हरे भरे देवदार के जंगलो ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप में वही निखार था। कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर ज़बरदस्त चढ़ाई थी। 30 कि .मी .पार करने के बाद रास्ते के दोनों ओर बर्फ के ढ़ेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे लोगों के लिए बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी पर ये तो अभी शुरूआत थी। छान्गू झील के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला करने के लिए घुटनों तक लंबे जूतों और दस्तानों से लैस होना पड़ा। दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर तक जाना था जो कि नाथू-ला और जेलेप-ला के बीच स्थित है। ये मंदिर 23 वीं पंजाब रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो डयूटी के दौरान इन्हीं वादियों में गुम हो गया था। बाबा मंदिर की भी अपनी एक रोचक कहानी है जिसकी चर्चा हाल-फिलहाल में हमारे मीडिया ने भी की थी। छान्गू से 10 कि .मी .दूर हम नाथू ला के इस प्रवेश द्वार की बगल से गुज़रे। हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था। थोड़ी ही देर में हम बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की ज़बरदस्त भीड़ वहां पहले से ही मौजूद थी। मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही बर्फ थी। उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, ज़मीं पर बर्फ की दूधिया चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमें। विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुंचे। हमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई। ऊंचाई तक गिरते पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली। कपड़ो की कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि पिघलती बर्फ धीरे-धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी क्या हालत रही वो आप समझ ही गए होंगे। खैर वापसी में भोजन के लिए छान्गू में पुनः रूके। भोजन में यहां के लोकप्रिय आहार मोमो का स्वाद चखा। भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये सुसज्जित याक अपने साथ तसवीर लेने के लिए पलकें बिछाए हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस याक का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियां कर। नतीजा आपके सामने है। अगला दिन गंगतोक में बिताया हमारा आखरी दिन था। सिक्किम प्रवास के आखिरी दिन हमारे पास दिन के 3 बजे तक ही घूमने का वक्त था। तो सबने सोचा क्यों ना गंगतोक में ही चहलकदमी की जाए। सुबह जलपान करने के बाद सीधे जा पहुंचे फूलों की प्रदर्शनी देखने। वहां पता चला कि इतने छोटे से राज्य में भी ऑर्किड की 500 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं जिसमें से कई तो बेहद दुर्लभ किस्म ही हैं। इन फूलों की एक झलक हमें चकित करने के लिए काफी थी। भांतिभांति के रंग और रूप लिए इन फूलों से नज़रें हटाने को जी नहीं चाहता था। ऐसा खूबसूरत रंग संयोजन विधाता के अलावा भला कौन कर सकता है। फूलों की दीर्घा से निकल हमने रोपवे की राह पकड़ी। ऊंचाई से दिखते गंगतोक की खूबसूरती और बढ़ गई थी। हरे भरे पहाड़ सीढ़ीनुमा खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर चलती चौकोर पीले डिब्बों जैसी दिखती टैक्सियां। रोपवे से आगे बढ़े तो सिक्किम विधानसभा भी नज़र आई। रोपवे से उतरने के बाद बौद्ध स्तूप की ओर जाना था। स्तूप की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम पसीने से नहा गए। इस स्तूप के चारों ओर 108 पूजा चक्र हैं जिन्हे बौद्ध भक्त मंत्रोच्चार के साथ घुमाते हैं। वापसी का सफ़र 3 की बजाय 4 बजे शुरू हुआ। गंगतोक से सिलीगु़डी का सफ़र चार घंटे मे पूरा होता है। इस बार हमारा ड्राइवर बातूनी ज़्यादा था और घाघ भी। टाटा सूमो में सिक्किम में 10 से ज्यादा लोगों को बैठाने की इजाजत नहीं है पर ये जनाब 12 लोगों को उस में बैठाने पर आमादा थे। खैर हमारे सतत विरोध की वजह से ये संख्या 12 से ज़्यादा नहीं बढ़ पाई। सिक्किम में कायदा कानून चलता है और लोग बनाए गए नियमों का सम्मान करते हैं पर जैसे ही सिक्किम की सीमा खत्म होती है कायदे-कानून धरे के धरे रह जाते हैं। बंगाल आते ही ड्राइवर की खुशी देखते ही बनती थी। पहले तो सवारियों की संख्या 10 से 12 की और फिर एक जगह रोक कर सूमो के ऊपर लोगों को बैठाने लगा पर इस बार सब यात्रियों ने मिलकर ऐसी झाड़ पिलाई की वो मन मार के चुप हो गया। उतरी
बंगाल में घुसते ही चांद निकल आया था। पहाड़ियों
के बीच से छन कर आती उसकी रोशनी तिस्ता नदी को
प्रकाशमान कर रही थी। वैसे भी रात में होने
वाली बारिश की वजह से चांद हमसे लाचेन और
लाचुंग दोनों जगह नज़रों से ओझल ही रहा
था, जिसका मुझे बेहद मलाल था। शायद यही
वजह थी कि चांदनी रात की इस खूबसूरती को देख
मन में एतबार साजिद की ये पंक्तियां याद आ
रही थीं चंद
दिनों की मधुर स्मृतियों को लिए हमारा समूह
वापस लौट रहा था कुछ अविस्मरणीय छवियों के
साथ। उनमें एक छवि इस बच्चे की भी थी जिसे
हमने चुन्गथांग में खेलते देखा था! सिक्किम के
सफ़र का पटाक्षेप करने से पहले तहे दिल से सलाम
हमारे ट्रेवेल एजेन्ट प्रधान को जिसने बंध
गोभी की सब्जी खिलाखिला कर ना केवल 15,000
फीट पर भी हमारे खून में गर्मी बनाए रखी बल्कि
रास्ते भर अपने हंसोड़ स्वभाव से माहौल को भी
हल्काफुल्का बनाए रखा। |
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1 अगस्त 2006 |