पर्यटन
सिक्किम के सफ़र परमनीष कुमार

(1)

लाचुंग चू

र्मियां पूरे शबाब पर हैं। आखिर क्यों ना हों, मई का महिना जो ठहरा। ऐसे में भी सूर्य देव अपना रौद्र रूप हम सबको ना दिखा पाएं तो फिर लोग उन्हें देवताओं की श्रेणी से ही हटा दें। ऐसे दिनों में पिछले महीने तमाम ऊनी कपड़ो के बावजूद  हम सर्दी से ठिठुरते रहे। हमारा पहला पड़ाव गंगतोक था सिलीगु़डी से 30 किलोमीटर दूर निकलते ही सड़क के दोनों ओर का परिदृश्य बदलने लगता है, पहले आती हैं हरे भरे वृक्षों की कतारें जिनके खत्म होते ही ऊपर की चढ़ाई शुरू हो जाती है। सिलीगु़डी से निकलते ही तिस्ता हमारे साथ हो ली। 

तिस्ता की हरी भरी घाटी और घुमावदार रास्तों में चलते–चलते शाम हो गई और नदी के किनारे थोड़ी देर के लिए हम टहलने निकले। नीचे नदी की हल्की धारा थी तो दूर पहाड़ पर छोटे–छोटे घरों से निकलती उजले धुएं की लकीर। गंगतोक से अभी भी हम 60 किलोमीटर की दूरी पर थे। करीब 7.30 बजे ऊंचाई पर बसे शहर की जगमगाहट दूर से दिखने लगी। गंगतोक पहुंचते ही हमने होटल में अपना सामान रखा। दिन भर की घुमावदार यात्रा ने पेट में हलचल मचा रखी थी। सो अपनी क्षुधा शांत करने के लिए करीब 9 बजे मुख्य बाज़ार की ओर निकले। पर ये क्या एम .जी .रोड पर तो पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था। दुकानें तो बंद थीं ही, कोई रेस्तरां भी खुला नहीं दिख रहा था! पेट में उछल रहे चूहों ने इती जल्दी सो जाने वाले इस शहर को मन ही मन लानत भेजी। मुझे मसूरी की याद आई जहां रात 10 बजे के बाद भी बाज़ार में अच्छी खासी रौनक हुआ करती थी। खैर भगवान ने सुन ली और हमें एक बंगाली भोजनालय खुला मिला। भोजन यहां अन्य पर्वतीय स्थलों की तुलना में सस्ता था।

वह अनोखा स्वागत

सुबह हुई और निकल पड़े कैमरे को ले कर। होटल के ठीक बाहर जैसे ही सड़क पर कदम रखा सामने का दृश्य ऐसा था मानो कंचनजंघा की चोटियां बाहें खोल हमारा स्वागत कर रही हों। सुबह का गंगतोक शाम से भी ज्यादा प्यारा था। पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यहां मौसम बदलते देर नहीं लगती। सुबह की कंचनजंघा 10 बजे तक तक बादलों में विलुप्त हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद हम गंगतोक के ताशी विउ प्वाइंट (समुद्र तल से 5500 फुट की ऊंचाई पर) पर थे। यहां से दो मुख्य रास्ते कटते हैं। एक पूरब की तरफ जो नाथू ला जाता है और दूसरा उतर में सिक्किम की ओर, जिधर हमें जाना था।

हमने उतरी सिक्किम राजमार्ग की राह पकड़ी। बाप रे एक ओर खाई तो दूसरी ओर भू-स्खलन से जगह–जगह कटी–फटी सड़कें! बस एक चट्टान खिसकाने की देरी है कि सारी यात्रा का बेड़ा गर्क! और अगर इंद्र का कोप हो तो ऐसी बारिश करा दें कि चट्टान आगे खिसक भी रही हो तो भी गाड़ी की विंडस्क्रीन पर कुछ ना दिखाई दे! खैर हम लोग कबी और फेनसांग तक सड़क के हालात देख मन ही मन राम-राम जपते गए!

फेनसांग के पास एक जलप्रपात मिला।  यहां से मंगन तक का मार्ग सुगम था। इन रास्तों की विशेषता ये है कि एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने के लिए पहले आपको एकदम नीचे उतरना पड़ेगा और फिर चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी। मंगन पहुंचते पहुंचते ये प्रक्रिया हमने कई बार दोहराई। ऐसे में तिस्ता कभी बिलकुल करीब आ जाती तो कभी पहाड़ के शिखर से एक खूबसूरत लकीर की तरह बहती दिखती। शाम के 4:30 बजे तक हम चुंगथांग में थे। लाचेन और लाचुंग की तरफ से आती जल संधियां यहीं मिलकर तिस्ता को जन्म देती हैं। थोड़ा विश्राम करने के लिए हम सब गाड़ी से नीचे उतरे। चुंगथांग की हसीन वादियों और चाय की चुस्कियों के साथ सफ़र की थकान जाती रही। शाम ढलने लगी थी और मौसम का मिजाज़ भी कुछ बदलता–सा दिख रहा था।

हम शीघ्र ही लाचेन के लिए निकल पड़े जो हमारा अगला रात्रि पड़ाव था। लाचेन तक के रास्ते में रिहाइशी इलाके कम ही दिखे। रास्ता सुनसान था, बीच–बीच में एक–आध गाड़ियों की आवाजाही हमें ये विश्वास दिला जाती थी कि सही मार्ग पर ही जा रहे हैं। लाचेन के करीब 10 कि .मी .पहले मौसम बदल चुका था। घाटी पूरी तरह गाढ़ी सफेद धुंध की गिरफ्त में थी और वाहन की खिड़की से आती हल्की फुहारें मन को शीतल कर रहीं थीं। 6 बजने से कुछ समय पहले हम लगभग 9,000 फुट ऊंचाई पर स्थित इस गांव में प्रवेश कर चुके थे। पर हम तो मन ही मन रोमांचित हो रहे थे उस अगली सुबह के इंतज़ार में जो शायद हमें उस नीले आकाश के और पास ले जा सके। लाचेन की वह रात हमने एक छोटे से लॉज में गुज़ारी। 

दुर्गम रास्ते

लाचेन से आगे का रास्ता फिर थोड़ा पथरीला था। सड़क कटी-कटी सी थीं। कहीं–कहीं पहाड़ के ऊपरी हिस्से में भू-स्खलन होने की वजह से उसके ठीक नीचे के जंगल बिलकुल साफ़ हो गए थे। आगे की आबादी ना के बराबर थी। बीच-बीच में याकों का समूह ज़रूर दृष्टिगोचर हो जाता था। चढ़ाई के साथ–साथ पहाड़ों पर आक्सीजन कम होती जाती है। 14,000 फीट की ऊंचाई पर बसे थांगू में रूकना था, ताकि हम कम आक्सीज़न वाले वातावरण में अभ्यस्त हो सकें। चौड़ी पती वाले पेड़ों की जगह अब नुकीली पती वाले पेड़ो ने ले ली थी। पर ये क्या? थांगू पहुंचते–पहुंचते तो ये भी गायब होने लगे थे। रह गए थे, तो बस छोटे–छोटे झा़डीनुमा पौधे।

थांगू तक धूप नदारद थी। बादल के पुलिंदे अपनी मन मर्जी से इधर उधर तैर रहे थे। पर पहाड़ों के सफ़र में धूप के साथ नीला आकाश भी साथ हो तो क्या कहने! पहले तो कुछ देर धूप–छांव का खेल चलता रहा। पर आख़िरकार हमारी यह ख़्वाहिश नीली छतरी वाले ने जल्द ही पूरी की। नीला आसमान, नंगे पहाड़ और बर्फ आच्छादित चोटियां मिलकर ऐसा मंज़र प्रस्तुत कर रहे थे जैसे हम किसी दूसरी ही दुनिया में हों। 15,000 फीट की ऊंचाई पर हमें विक्टोरिया पठारी बटालियन का चेक पोस्ट मिला। दूर–दूर तक ना कोई परिंदा दिखाई पड़ता था और ना कोई वनस्पति! सच पूछिए तो इस बर्फीले पठारी रेगिस्तान में कुछ हो–हवा जाए तो सेना ही एकमात्र सहारा थी। थोड़ी दूर और बढ़े तो अचानक एक बर्फीला पहाड़ हमारे सामने आ गया! गुनगुनी धूप, गहरा नीला गगन और इतने पास इस पहाड़ को देख के गाड़ी से बाहर निकलने की इच्छा मन में कुलबुलाने लगी। पर उस इच्छा को फलीभूत करने पर हमारी जो हालत हुई उसकी एक अलग कहानी है। वैसे भी हम गुरूडांगमार के बेहद करीब थे! यही तो था इस यात्रा का पहला लक्ष्य!

गुरूडांगमार झील

दरअसल गुरूडांगमार एक झील का नाम है जो समुद्र तल से करीब 17,300 फुट पर है। ज़िंदगी में कितनी ही बार ऐसा होता है कि जो सामने स्पष्ट दिखता है उसका असली रंग पास जा के पता चलता है। अब इतनी बढ़िया धूप, स्वच्छ नीले आकाश को देख किसका मन बाहर विचरण करने को नहीं करता! सो निकल पड़े हम सब गाड़ी के बाहर। पर ये क्या बाहर प्रकृति का एक सेनापति तांडव मचा रहा था, सबके कदम बाहर पड़ते ही ल़डखड़ा गए, बच्चे रोने लगे, कैमरे को गले में लटकाकर मैं दस्ताने और मफलर लाने दौड़ा। जी हां, ये कहर वो मदमस्त हवा बरसा रही थी जिसकी तीव्रता को 16000 फीट की ठंड, पैनी धार प्रदान कर रही थी। हवा का ये घमंड जायज़ भी था। दूर–दूर तक उस पठारी समतल मैदान पर उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं था, फिर वो अपने इस खुले साम्राज्य में भला क्यों ना इतराए। 

खैर जल्दी-जल्दी हम सब ने कुछ तसवीरें खिंचवाई। इसके बाद नीचे उतरने की जुर्रत किसी ने नहीं की और हम गुरूडांगमार पहुंच कर ही अपनी सीट से खिसके। धार्मिक रूप से ये झील बौद्ध और सिख अनुयायियों के लिए बेहद मायने रखती है। कहते हैं कि गुरूनानक के चरण कमल इस झील पर पड़े थे जब वे तिब्बत की यात्रा पर थे। यह भी कहा जाता है कि उनके जल स्पर्श की वजह से झील का वह हिस्सा जाड़े में भी नहीं जमता। गनीमत थी कि 17,300 फीट की ऊंचाई पर हवा तेज़ नहीं थी। झील तक पहुंच तो गए थे पर इतनी चढ़ाई बहुतों के सर में दर्द पैदा करने के लिए काफी थी। मन ही मन इस बात का उत्साह भी था कि सकुशल इस ऊंचाई पर पहुंच गए। झील का दृश्य बेहद मनमोहक था। दूर–दूर तक फैला नीला जल और पार्श्व में बर्फ से लदी हुई श्वेत चोटियां गाहे-बगाहे आते जाते बादलों के झुंड से गुफ्तगू करती दिखाई पड़ रहीं थीं। दूर कोने में झील का एक हिस्सा जमा दिख रहा था। नज़दीक से देखने की इच्छा हुई, तो चल पड़े नीचे की ओर। बर्फ की परत वहां ज्यादा मोटी नहीं थी। हमने देखा कि एक ओर की बर्फ तो पिघल कर टूटती जा रही है!  झील के दूसरी ओर सुनहरे पत्थरों के पीछे गहरा नीला आकाश एक और खूबसूरत परिदृश्य उपस्थित कर रहा था।

वापसी की यात्रा लंबी थी इसलिए झील के किनारे दो घंटे बिताने के बाद हम वापस चल पडे़। नीचे उतरे थे तो ऊपर भी चढ़ना था पर इस बार ऊपर की ओर रखा हर कदम ज्यादा ही भारी महसूस हो रहा था। सीढ़ी चढ़ तो गए पर तुरंत फिर गाड़ी तक जाने की हिम्मत नहीं हुई। कुछ देर विश्राम के बाद सुस्त कदमों से गाड़ी तक पहुंचे तो अचानक याद आया कि एक दवा खानी तो भूल ही गए हैं। पानी के घूंट के साथ हाथ और पैर और फिर शरीर की ताकत जाती सी लगी। कुछ ही पलों में मैं सीट पर औंधे मुंह लेटा था। शरीर में आक्सीजन की कमी कब हो जाए इसका ज़रा भी पूर्वाभास नहीं होता। खैर मेरी ये अवस्था सिर्फ 2 मिनटों तक रही और फिर सब सामान्य हो गया। वापसी में हमें चोपटा घाटी होते हुए लाचुंग तक जाना था।  सुबह से 70 कि .मी .की यात्रा कर ही चुके थे। अब 120 कि .मी .की दुर्गम यात्रा के बारे में सोचकर ही मन में थकावट हो रही थी। इस पूरी यात्रा में दोपहर के बाद शायद ही कहीं धूप के दर्शन हुए थे। हवा ने फिर ज़ोर पकड़ लिया था। सामने दिख रहे एक पर्वत पर बारिश के बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था। 

चोपटा और चुंगथांग

हम थांगू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिए रूके। दो विशाल पर्वतों के बीच की इस घाटी में एक पतली नदी बहती है जो जाड़ों के दिनों में पूरी जम जाती है। लाचेन पहुंचते–पहुंचते बारिश शुरू हो चुकी थी। जैसे–जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी। गज़ब का नज़ारा था . . .थोड़ी–थोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से टकराती बारिश की मोटी–मोटी बूंदे, सड़क की काली लकीर के अगल बगल चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली . . .सफ़र के कुछ अदभुत दृश्यों में से ये भी एक था। करीब 6 बजे तक हम चुंगथांग पहुंच चुके थे। यही से लाचुंग के लिए रास्ता कटता है। चुंगथांग से लाचुंग का सफ़र डरे सहमे बीता। पूरे रास्ते चढ़ाई ही चढ़ाई थी। एक ओर बढ़ता हुआ अंधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से पैदा हुई सफेद धुंध! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक 60-70 कि .मी .प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हांक रहा था। रास्ते का हर एक यू–टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा रहा था। निगाहें मील के हर पत्थर पर अटकती थीं, आतुरता से इस बात की प्रतीक्षा करते हुए कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य की संख्या दिख जाए। 7:30 बजे लाचुंग पहुंच कर हमने चैन की सांस ली। बाहर होती मूसलाधार बारिश अगले दिन के हमारे कार्यक्रम पर कुठाराघात करती प्रतीत हो रही थी। थकान इतनी ज्यादा थी कि चुपचाप रजाई के अंदर दुबक लिए।

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