स्कैन्डिनेविया की एक खूबसूरत शाम। हमारे पास स्औकहोम में पूरे
चार दिन थे, यहाँ की खूबसूरती के मजे लेने के लिए। हमने पहले
दिन पूरे शहर का टूर किया। दूसरे दिन दर्शनीय स्थल देखे। अगले
दिन हम काफी थक गए थे, किंतु घूमने की इच्छा खत्म नहीं हुई थी।
होटल आते ही हमने, होटल की रिसेप्शनिस्ट से पूछा कि अब हमें
तीसरे दिन का कोई प्रोग्राम बनाना है। वह हँसी उसने पूछा कि
हमारी रूचियाँ क्या हैं, कोई थियेटर, संगीत, नाटक म्यूजियम आदि
आदि। इनमें से हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगा।
उसने हमें कुछ नया सुझाया कि हम धरती के ऊपर तो बहुत घूम लिए।
अब जरा धरती के नीचे उतर लें। हाँ यह ठीक रहेगा। अब हम धरती के
नीचे जाने के लिए उत्तेजित थे। स्टौकहोम से चार घंटे के ट्रेन
के सफर पर ’फालून‘ नामक शहर है। अगले दिन सुबह हम वहाँ के लिए
चल पड़े। फालून एक तांबे की खदान के किनारे बसा एक छोटा सा शहर
है। शहर ऐतिहासिक रूप से करीब एक हजार वर्ष पुराना है। मगर आज
की तारीख में यह शहर, बाग बगीचों से सजा एक सुंदर आधुनिक नगर
है जो बरबस हमारा मन मोह लेता है। यहाँ पहुंच कर पता चला कि
खदान का दौरा केवल बारह बजे या एक बजे से पहले करना पड़ता है।
क्योंकि अंधेरा होने के पहले सब खान से बाहर निकल आते हैं।
यहाँ आकर इस सुरंग के बारे में पता चला कि धरती के गर्भ की
खोज के साथ ही साथ मनुष्यों ने नर्क की कल्पना की होगी,
अँधेरे, सीलन और नीरवता से घबराकर। यहाँ न रंग था, न जीवन, न
मानवता, न भावनाएँ। एक शून्य संसार। पत्थरों व चट्टानों से भरा
हुआ था यह स्थल।
अनेक
लंबी छोटी सुरंगों से होते हुए हम नीचे ही नीचे उतरते गए। करीब
३५० फुट यानि तकरीबन १०० मीटर। उस समय लगा था कि मीलों नीचे आ
गए हैं। संकरी संकरी गलियाँ लकड़ी के फट्टों से पाट दी गई थीं।
ताकि चलने वाले कीचड़ से बचे रहें। दोनों ओर की कच्ची दीवारों
से पानी रिस रहा था। फिर वह गड्ढे व खंदकें दिखीं जिनमें से
हजारों टन तांबे का चूरा खोद कर निकाला गया था। खदान का इतिहास
छठी शताब्दी तक मिलता है। ताम्र युग यूरोप में बहुत बाद में
आया। भारत और चीन में पहले से धातुओं का उत्खनन होता रहा है।
इस खदान से कई टन चांदी व सोना भी निकाला गया है। यूरोप के
वित्तीय इतिहास में इसका बेहद बड़ा योगदान है। स्कैन्डिनेविया
की आर्थिक व्यवस्था ऐसी ही खदानों पर खड़ी थी। हजारों की संख्या
में इसमें मजदूर खुदाई करते थे। उन्नीसवीं सदी तक आधुनिक
विद्युत संचालित उपकरणो का अभाव था। छेनी, हथौड़ी, कुल्हाड़ी,
फावड़ा और जहाँ इंसानी ताकत चुक जाए, वहाँ घोड़े। हमें नहीं
भूलना चाहिए कि आज भी ऊर्जा को नापने की इकाई ’हौर्स पावर‘ ही
है। अंदर जाने पर अनेक विपदाएँ मुंह बाए खड़ी होती थीं। इनमें
सबसे आकस्मिक होती थी भूस्खलन! कब कहाँ से कौन सी दीवार ढह
जाए, पता नहीं। कब कोई शिलाखंड खिसक जाए, पता नहीं। कब कोई
पत्थर सर फोड़ डाले, पता नहीं। पूरा शहर मजदूरों की विधवाओं से
भरा पड़ा था। असंख्य बाल बच्चों का पालन पोषण सरकार के लिए
सिरदर्द था।
यहाँ पर गहराई वाली खदानें भी थीं जो पानी से लबालब भरी हुई
थीं। उनके ऊपर लकड़ी के पुल बांधे हुए थे। खांई ऐसी थी कि देखते
ही दिल दहल जाए। पर इन पतले-पतले पुलों पर आप निश्चिंत चल सकते
हैं। ऐसी ही एकतरफा पथ की संकरी सीढ़ियाँ, जो सदियों से मजबूती
से जीम हैं। यहाँ सभी ने बैटरी बल्ब वाला हैट पहना हुआ था। अब
तो रोशनी की कोई समस्या नहीं है। पर उस समय यहाँ काफी समस्याएँ
आती थीं, जब यहाँ केवल मशाल और जानवर की चर्बी पर लोग निर्भर
थे। आज के हालात देखकर लगता है कि शायद प्रकृति पर विजय पाना
इसी को कहते हैं।
अनेक
छोटे बड़े कमरे तथा गुफाएँ पार करके हम एक ऐसी जगह पहुंचे जहाँ
से बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं नजर आ रहा था। यहाँ गाइड ने
सब बत्तियाँ बंद कर दीं और अंधेरा ही अंधेरा हो गया। इस अंधेरे
में हमें इस गुफा को महसूस करना था। एक मिनट के बाद बत्तियाँ
जला दी गई। हमें बत्ती जलने पर काफी आश्चर्य हुआ क्योंकि यहाँ
पर हमें क्रिसमस पेड़ दिखाई दिया। सबके मुंह से अनायास निकला,
अरे! यह क्या? खैर यह तो बत्तियों का खेल था। पहले उधर रोशनी
नहीं थी और वहीं से बाहर जाने का रास्ता था। गाइड ने हमें
बताया कि भूगर्भ की हवा में ’विट्रियोल‘ नामक रसायन की
प्रचुरता से कोई भी मृत देह सुरक्षित रह सकती है और फिर उसने
हमें सुनाई यह प्रेम कहानी। सन् १६७७ ई. में मैट इयराएलसन नाम
का एक खूबसूरत ताकतवर युवक खदान में काम करता था। उस सप्ताहाँत
में उसकी सगाई उसकी प्रियतमा मार्गरेटा ओल्सडोटर से सम्पन्न
हुई। अगले दिन दोनों मेले तमाशे में संग घूमते रहे। पुराने
जमाने में संग घूमने जाने की अनुमति लड़की के मां-बाप पक्की
सगाई हो जाने पर ही देते थे। जैसे कि हमारे यहाँ पर भारत में
होता है। शाम को विदा होते समय मैट ने आश्वासन दिया कि जैसे ही
उसकी महीने की तनख्वाह हाथ में आयेगी, वह पादरी से मिलकर शादी
की तारीख पक्की कर लेगा। मार्गरेटा की खुशियों का ठिकाना नहीं
था।
परंतु कहते हैं, ’सच्चे शुद्ध प्रेम पर देवता भी ईर्ष्या की
नजर रखते हैं।‘ अगले दिन जब मैट खदान में गया तो वहाँ अनहोनी
हो गई। रस्सियों से लटका कर युवकों को खदान में उतारा जाता था।
एक-एक करके सब आ गए। खनन शुरू हो गया। अचानक मैट ने देखा कि एक
ओर की दीवार दरकने लगी थी। मैट तुरंत सबको वह विशाल कक्ष छोड़
कर निकलने की आज्ञा दे दी। अफरा तफरी मच गई। सब अपना काम छोड़कर
भागे। सभी बाहर आ गए और मैट की सूझबूझ की प्रशंसा होने लगी।
मगर किसी ने नहीं देखा कि मैट स्वयं बाहर नहीं आया। अंत में,
मशाल लेकर रास्ता दिखाने वाला मैट वहीं दब गया। मिट्टी ने उसका
रास्ता रोक लिया। उस समय की लिखाई पढ़ाई मामूली सी थी। पता नहीं
किसी ने उसकी अनुपस्थिति दर्ज की या नहीं। लोगों की गिनाई
असंभव थी। खदान के कई हिस्सों में अभी काम चल रहा था।
आस
पास के गांव असंख्य विधवाओं से भरे पड़े थे। राजा ही उनका पोषक
था। खजाने से जो भी थोड़ा बहुत मिल जाता, वही जीवनधारा। कैथोलिक
धर्म था, अतः पुनर्विवाह को अधर्म माना जाता था। आर्थिक तंगी
के कारण बच्चे भी खदान में काम करने को मजबूर थे। गरीबी और
बीमारी अंत नहीं था। जो खदान से नहीं मरते थे, वे टीबी और दमा
से मर जाते थे। १८१९ ई. में एक नई योजना के अंतर्गत खदान की
खुदाई की दिशा बदल दी गई। एक बहुत बड़ी खंदक में पानी व कीचड़
भरा हुआ था। उसे खाली करके वहाँ उत्खनन करने की तथा सोना
निकालने की संभावना नजर आई। जब ढेंकलियों की सहायता से पानी
उलीचा गया तो गड्ढे में से एक शव निकला जो अभी अभी मरा हुआ
लगता था। इस समय तक कार्य प्रणाली काफी सुधर गई थी। तुरंत खदान
में काम कर रहे मजदूरों की जनगणना की गई (उपस्थिति-अनुपस्थिति)
दर्ज की गई। पर उस दिन कोई नहीं मरा था।
शव को ऊपर लाया गया और पहचान के लिए शहर के बीचों-बीच रख दिया
गया। मुनादी पिटवा दी गई कि जिनका कोई हाल में मरा हो, वह आकर
देख ले। सैकड़ों तमाशाई जुट गए पर सब एक एक करके वापस चले गए।
तभी किसी काम से बाजार का चक्कर लगाने आई एक सनई से सफेद बालों
वाली बुढ़िया उत्सुकता वश उसे देखने चली आई। देखते ही वह चीख कर
उससे लिपट गई और रो-रो कर उसे चूमने लगी। ’’अरे यह तो मेरा मैट
है। मैं जानती थी यह जरूर आएगा क्योंकि यह कभी अपना वादा नहीं
तोड़ता था। यह कहकर गया था कि शादी करने आयेगा। मैं आज तक इसका
इंतजार करती रही।‘‘
उसे फिर सबको बताया कैसे उसकी सगाई हुई थी और और वह लापता हो
गया था। पूरे बयालीस वर्ष बाद वह अपने प्रेमी के शव पर विलाप
कर रही थी। मैट का रंग रूप जैसा था वैसा ही रहा। पानी में
विट्रिओल की मात्रा अधिक होने से शव ज्यों का त्यों सुरक्षित
रहा। इतना बड़ा अजूबा! दूर-दूर तक
मार्गरेटा और मैट की दास्तां रोमिओ जूलियट की कहानी की तरह
प्रसिद्ध हो गई। मैट की वापसी एक अचंभा थी। उसका देह नाश न
होना एक अचंभा था और सबसे ज्यादा उसकी वीरता एक मिसाल बन गई।
मैट
का शव सभी के दर्शन के लिए शहर के बीचो-बीच रख दिया गया। परंतु
कुछ दिन बाद एक वैज्ञानिक परीक्षण के निष्कर्ष आए जिसमें बताया
गया कि हवा के संपर्क से ज्यों-ज्यों विट्रिओल वाष्प बनकर उड़
जायेगा, शव सड़ने लगेगा। अतः उसे चर्च में दफना दिया गया। मगर
1860 में चर्च के पुनरूत्थान के लिए शव फिर निकाला गया। देखा
तो शव वैसा का वैसा ही था। अंत में इसे प्रकृति का करिश्मा
जानकर पुनः शीशे के ताबूत में सजवा कर शहर के बीचो-बीच रख दिया
गया। यहाँ यह करीब सत्तर वर्ष तक रहा, मगर फिर 1930 में
धार्मिक कारणो से इसका अंतिम संस्कार करके चर्च के बगीचे में
दफन कर दिया गया और उस पर एक स्मारक बना दिया गया।
फालून की खदान से जुड़े म्यूजियम में मैट के शव का मोम का पुतला
बना कर दर्शनार्थ रखा गया है, जैसे पहले यह शहर के चौराहे पर
सजा रहता था। इस कहानी पर अनेक नाटक, नृत्य, नाटिकाएँ व ओपेरा
लिखे गए व काव्य भी, जिससे यह कहानी हमेशा के लिए अमर हो गई।