रचनाकार
कुँवर नारायण
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प्रकाशक
ज्ञानपीठ प्रकाशन,
दिल्ली
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पृष्ठ - १५९
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मूल्य : -- डॉलर
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प्राप्ति-स्थल
भारतीय साहित्य संग्रह
वेब पर
दुनिया के हर कोने में
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वाजश्रवा के
बहाने (खंड काव्य)
ज्ञानपीठ
द्वारा पुरस्कृत
वरिष्ठ कवि कुँवर
नारायण की नयी काव्य रचना 'वाजश्रवा के बहाने' को हम
हिंदी
भाषा का उपनिषद कह सकते हैं। स्थूल भौतिक रूपों के परे,
गोचर के पार, हर वस्तु का, हर विचार का एक अपना अनंत संसार
फैला हुआ होता है। जैसे दीपक का प्रकाश अनंत तक फैलता चला
जाता है, भले ही उसकी आभा मद्धम होते-होते हमारी आँखों से
अदृश्य हो जाए, वैसे ही वस्तुओं का विस्तार अनन्त और अनश्वर
होता है। इस तरह के अगणित विस्तार एक दूसरे को आच्छादित किये
हुए पसरे पड़े हैं। पर्त-दर-पर्त- इस पूर्णता को देखने की
चेष्टा 'वाजश्रवा के बहाने' में स्पष्ट देखने को मिलती है।
यह चेष्टा जिज्ञासा से कुछ बढ़कर है। संभवत: यह कवियों के
स्वभाव की मणि है, जिसके आलोक में कवि 'दृष्टा' बनता है। इस
संग्रह में हम कवि कुँवर नारायण जी के 'दृष्टा' रूप को बहुत
निकट से देख सकते हैं। उनके आत्मदीप की लौ की जगमगाहट '
अत्मजयी' की तुलना में 'वाजश्रवा के बहाने' में अधिक प्रखर
हो उठी है। इस काव्य में प्राय: दृष्टा, दृश्य और दृष्टि एक
दूसरे में समाहित होते चलते हैं।
'आत्मजयी' और 'वाजश्रवा' दोनों
में कथाभूमि कठोपनिषद की ही है। पिता वाजश्रवा, पुत्र
नचिकेता। वैसे तो वाजश्रवा का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो
अन्न्दानी के रूप में जाना जाता हो। किन्तु इस कथा के
वाजश्रवा वैदिक युग की लौकिकता, कर्मकांड, लेनदेन, (सात्विक) दुनियादारी में पगे हुए पिता हैं। यज्ञ की प्राविधि का
कर्मकांडी अनुपालन करते हुए जब पूर्णाहुति के लिए दान देने
का समय आता है तो वे कंजूस हो जाते है। बूढी-बीमार गायें दान
में निकाल देते हैं और अच्छी दुधारू अपनी गौशाला के लिए
बचा लेते हैं। यह देखकर किशोर नचिकेता को क्षोभ होता है।
उसे तो बताया गया था कि दान में अपनी प्रिय से प्रिय
मूल्यवान बस्तु का त्याग करना चाहिए। यही धर्म है। किन्तु
पिता ने ऐसा क्यों नहीं किया?
वाजश्रवा वेद है। नचिकेता
उपनिषद है। प्रश्नाकुल नचिकेता पिता से पूछता है कि मैं आपका
सबसे प्रिय हूँ, मुझे आप किसको दान में देंगे? कर्मकांड में
व्यस्त पिता अनसुनी करते हैं। नचिकेता दुर्निवार बार-बार
पूछता है। खीजकर क्रोध में वाजश्रवा कहते हैं- 'मृत्यवे त्वा
ददातीति'। पितुवचन मानकर नचिकेता यमलोक के द्वार पर पहुँच
जाता है।
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यमराज बाहर गये हैं। वह
प्रतीक्षा करता हैं, तीन दिन-तीन रात। निर्जल निराहार (
मृत्यु के बाद क्या जल और क्या आहार। ) यम आते हैं, बालक
का साहस और सत्व देखकर उन्हें वात्सल्य हो आता है। यम
नचिकाता से तीन मनचाहे वरदान माँगने और घर लौट जाने को
कहते हैं।
बड़ी मुश्किल से नचिकेता मानता है- तीन वरदान हैं, १) घर
वापसी और पिता का क्रोधशमन अर्थात पुनर्जीवन और सौमनस्य,
२) यज्ञानी और स्वर्ग-प्राप्ति की प्राविधि का ज्ञान
अर्थात भौतिक सफलताओं के गुर और तीसरा कठिन प्रश्न वह
पूछता है वृहत्तर सत्य के बारे में- ३) आत्मा, जन्म,
जीवन, मृत्यु के रहस्यों के बारे में। यम उसे प्रलोभन
देते हैं कि संसार की सारी संपदा ले लो पर यह गूढ़ ज्ञान
अभी छोड़ो। नचिकेता सारे प्रलोभन ठुकराता है। यम पसीजते
हैं। तीसरे प्रश्न का उत्तर नचिकेता को मिलता है। नचिकेता
इस नए आत्मज्ञान के साथ पिता के पास लौटता है।
वाजश्रवा-नचिकेता का युगल रूपक सनातन है। अपने पुत्र को
चाण्डाल को बेचते हुए सत्यहरिश्चंद्र, शिवि, रतिदेव, पुत्र
की बलि को उद्यत अब्राहम। याग रूपक भाँति-भाँति की
भूमिकाओं में हर काल में आता रहा है। कुँवर नारायण के
'वाजश्रवा' हमारे अपने समय के पिता हैं। वे अपनी
अपूर्णताओं को जानते हैं। अपनी सीमाओं से परिचित हैं।
दुनियादार होते हुए भी वे मानते हैं कि दुनिया
दुनियादारों के चलाए नहीं चलती। दुनिया की गति का नियमन
गैरदुनियादार नचिकेता ही करते हैं।
वही मनुष्य की चेतना के विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
यह नचिकेताओं के संघर्ष का ही परिणाम है कि आज हम सभ्यता
के उच्च सोपानों तक पहुच सके हैं। कुँवर नारायण ने एक सनातन
कथा को अपने युग के अर्थों से भरा है। उपनिषद तो अपने आप
में कविता हैं। 'वाजस्रवा के बहाने' में भी वैसा
ही
अर्थगौरव है जो उपनिषदों में जगह-जगह मणियों की तरह
जगमगाता रहता है। आज के जटिल हुआयामी और विस्फोटक युग की
कथा 'वाजश्रवा के बहाने' कहने का साहस वही कवि कर सकता है
जिसमें रूढ़ि और परम्परा के अंतर को पहचानने का विवेक हो;
जो तात्कालिकता के चालू मुहावरों के छद्म के आसपास फटकने
भी न दे; जो जानता हो कि हमीं नचिकेता हैं और हमीं
वाजश्रवा। 'वाजस्रवा के बहाने' का कवि विवेक जानता है कि
वाजश्रवा ( हमें ) को अपने युग के कर्मकांड की प्राविधि (
तकनीक) का प्रयोग करते हुए भी, लौकिकता का निर्वहन करते
हुए भी, स्वार्थ और 'स्व' की लौकिक लघुता से मुक्त होकर
नचिकेता बनना है। बल्कि उसको भी पार करना है।
प्राविधियाँ संगठन के लिए आवश्यक हैं किन्तु वे ही लघुताओं
को भी जन्म देती हैं। 'मन्वु' के मूल में वही हैं।
'वाजश्रवा के बहाने' में हम उन सूक्ष्मताओं को देख सकते
हैं जिनसे आज के वाजश्रवा का कलेवर बना है। रंगों की,
छायाओं की, कोमलताओं-कठोरताओं की उन परतों को हम इस किताब
में देख सकते हैं जिनसे हमारे अपने भवलोक का निर्माण हुआ
है। मृत्यु के द्वार पर ही जीवन का सही अर्थ प्रकट होता
है।
वाजश्रवा नचिकेता को पुनरूज्जीवित हो उठने आह्वान करते हैं। एक हूक-सी उठती है - " लौट आओ प्राण /
पुनः हम प्राणियों के बीच / तुम जहाँ कहीं भी चले गए हो /
हमसे बहुत दूर - / लोक में परलोक में / तम में आलोक में /
शोक में अ-शोक में..." वाजश्रवा के इस कातर स्वर में एक
स्वर 'सरोज स्मृति' के पिता 'निराला' का भी है। 'कामायनी'
के मनु का विराटता से आतंकित मौन भी इस पुकार में ध्वनित
हो रहा है। किसी भी क्लासिकी रचना की यही कसौटी है कि उसे
पढ़कर और भी बहुत कुछ आपके मानस में प्रतिध्वनित होने लगें।
संसार एक बहुत बड़ा रंगमंच है जिसके गर्भ में उठती
वाजश्रवा की पुकार पूरे ब्रह्माण्ड के गागर को पोर-पोर
भरती चली जाती है। यहाँ मृत्यु के मंच से जीवन का आह्वान
करता वाजश्रवा आपको कितना विराट लगता है, यह जब आप इस पूरे
बन्ध को पढेंगे तब जानेंगे। ' जीवन जीवन की पुकार है खेल
रहा है शीतलदाह' ( कामायनी ) जैसी अमर पंक्तियाँ 'वाजश्रवा
के बहाने' पढ़ते समय आपके भीतर गूँजने लगेंगी। यही कविता
की स्वायत्त शक्ति है। देखिए, फिर देखिए " वह लौट आया है,
आज / जो चला गया था कल / वही दिन नहाधोकर / फिर से शुरू हो
रहा है... और हम आश्चर्य करते / कहीं कुछ
भी तो मरा नहीं।"
कृति के रूप में 'वाजश्रवा के बहाने' एक नाट्य रूप भी
हो सकता था। किन्तु रचनाकार ने इसे काव्य रूप ही दिया है।
स्थूल तारतम्यता के बंधनों से मुक्त, चिंतन की ऊर्जा से
वेगवान ये काव्यरूप कई अर्थों में विशिष्ट है। अनुभव,
अनुमान, भ्रम, भय, विचार, संवेदना सभी को वहन करता हुआ
कवि एक साथ 'कई कई जीवनों' में एक साथ प्रवेश करता है।
"असंख्य नामों के ढेर में" वह ढूँढना चाहता है कोई संज्ञा
जो उसे सही सही व्यक्त कर सके। 'कवयो मनीषा' के प्रसंग में
कवि पूछता है -
"अपनी ही एक रचना को
संदेह से देखते हुए पूछता है रचनाकार
क्या तुम पहले कभी प्रकाशित हो चुकी हो?"
और फिर उत्तर आता है- "में संगृहीत हूँ रचनाओं के महाकोश
में"। भाई पाठक, याद आता क्या आपको भी 'कस्मै देवाय हविषा
विशेन' इस किताब की यही औपनिषदिक बुनावट इसे शिल्प के
स्टार पर आधुनिक हिंदी कविता में बिल्कुल अलग 'स्थान'
प्रदान करती है।
वाजश्रवा का पाठ समाजशास्त्री के लिए भले ही सरल और सपाट
हो, कवि के लिए यह रास्ता सुलभ नहीं है। समाजशास्त्री के
लिए यह कहना आसान है कि वैदिक युग लौकिकता से ओतप्रोत था,
कर्मकाण्डों के माध्यम से सामाजिक संबंधों का नियमन होता
था, वर्ग समाज की शुरुआत हो रही थी, मंत्रदृष्टाओं वाला
आरंभिक कबीलाई समाज समाप्त हो रहा था, घोर पित्रसत्ता की
स्थापना हो चुकी थी। इसके विरोध में वेदना के रूप में
उपनिषद के प्रगतिशील दर्शन का जन्म हुआ। प्रश्न-प्रतिप्रश्न
की परम्परा बढी। गार्गी और नचिकेता का युग आया। नए युग का
सूत्रपात हुआ। समाजशास्त्रीय विवेचना में वाजश्रवा जड़
रूढ थे और नचिकेता नए उन्मेष के प्रतीक। कवि के लिए युग
की ऐसी विवेचना असंभव होगी, संभवतः अनैतिक और असह्य भी।
'वाजश्रवा के बहाने' में कवि उद्भासित करता है कि काल भी
संष्लिष्ट है और मनुष्य भी। एक ही देशकाल में कई कई
देशकाल समाये रहते हैं। एक ही सभ्यता कई-कई सभ्यताओं की
उत्तराधिकारिणी होती है, एक ही व्यक्ति में अनेक व्यक्ति
होते हैं। 'भोक्ता और दृष्टा/ एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं- /कन्धों पर लबादा डाले तख्त पर बैठा वह वयोवृद्ध/ एक
ही पराजित सम्राट भी हो सकता है/ और एक विरक्त संन्यासी
भी/ एक कृतार्थ पिता भी हो सकता है वही / और एक पुत्र का
उदासी भी।" जो पिता है वही पुत्र। आप ही वाजश्रवा - आप ही
नचिकेता। नचिकेता भी नितान्त आत्म में ही नहीं रहता। वह
यमराज से मांगता है पुनर्जीवन और पिता का स्नेह और
यज्ञाग्नि के रहस्य जिससे उसे स्वर्ग की भौतिक सुख-संपदा
सुलभ हो सके। इन प्रथम और द्वितीय वरदानों को माँगता हुआ
नचिकेता इहलौकिक है लगभग अपने पिता जैसा ही। यह तो तीसरा
वरदान है जो नचिकेता को बिल्कुल नए लोक में ले जाता है- एक
वृहत्तर सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वभौतिक उदात्त लोक
में।
कुँवर नारायण जी का काव्य
'आत्मजयी' 'वाजश्रवा के बहाने' की पूर्वकथा
है। यद्यपि दोनों किताबें स्वायत्त हैं किन्तु हैं जुड़वाँ बच्चों की
तरह, 'आत्मजयी' में कठोपनिषद की कथाभूमि प्रत्यक्ष आती
है। काव्य में मूर्तन कई स्तरों पर एक साथ होता चलता है।
किन्तु 'वाजश्रवा के बहाने' में कथातत्व काफी पीछे चला गया
है। 'वाजश्रवा' की कविता अपनी जमीन और अपना आकाश स्वयं
रचती है। 'आत्मजयी' की तरह कविता रंगमंच पर नहीं चलती
बल्कि वह एक वृहत्तर आकाश में संचारित होती है। 'वाजश्रवा'
में काव्य तत्त्व की गति द्रुततर है- विलंबित से आगे धीरे
द्रुत की ओर बढ़ती हुई, शब्दों को के बीच से गुजरती हुई,
शब्दातीत होती हुई। 'आत्मजयी' की कविता का अनुनाद श्रवण की
परिधि में था। जबकि 'वाजश्रवा' का काव्य स्निग्ध आलोक की
तरह अनायास पाठक की भावकाया को भर देता है। कहीं कोई
चकाचौंध नहीं। मानो उषस् की देवी लाल सूर्य को अपने साथ
लिये चली आ रही हो- वह उदय हो रहा पुनः/ कल जो डूबा
था/.../ उसके चेहरे पर लौटते जीवन का सवेरा है... / उससे
परे / उसकी आँखों में / वह क्षितिज। जो अब उससे आलोकित
होगा।"
किताब की भूमिका में कुँवर नारायण जी मानते हैं कि " जीवन
का अपना सम्मोहन होता है जो मृत्यु संत्रास के बाबजूद हमें
जीने की शक्ति देता है" और " जीवन में संघर्ष है पर संघर्ष
ही संघर्ष नहीं है। उसमें मार्मिक समझौते और सुन्दर सुलहें
भी हैं।" अब ऐसे पाठक के रूप में मेरे सामने एक निजी
समस्या है- किन्तु इतनी निजी भी नहीं। यहाँ मुझे कवि गोरख
पांडे याद आ जाते हैं "कहाँ है वह जगह जहाँ नहीं है
संघर्ष/ इसलिए / तुम जहाँ भी हो मेरे दोस्त/ मेरे हाथ
स्वीकारो। "गोरख की इन पंक्तियों का स्वर, भारत की गरीब
होती, पिसती, बड़ी आबादी की उपेक्षा करती हुई सारी आवाजों
के ऊपर भारी पड़ता है। यद्यपि 'वाजश्रवा' का सन्दर्भ थोड़ा
अलग है। किन्तु दोनों में अधिक दूरी नहीं है। दोनों मानवीय
संवेदना को मुखरित करने बाले हैं। दोनों ही जीवन के पक्षधर
हैं। और दोनो में सच्ची कविता है। आप कह सकते हैं,
वाजश्रवा के शब्दों में -
" वे दो होते हुए भी एक ही थे / भिन्न होते हुए भी अभिन्न
/ जन्म से ही / .../ उवाच अलग-अलग/ सारवस्तु एक ही, ऊपर से
बहुरूपी / अन्तरंग एक ही।"
'वाजश्रवा के बहाने' की भूमिका में कुँवर नारायण जी इस
संग्रह की कविता के संगठन-संयोजन में 'जैविक संवेदना' की
बात करते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा है।
प्रबंध-काव्य या खंड काव्य में कवि को एक संगठन ( ढाँचा )
खडा करना पड़ता है। निराला जी की लम्बी कविताओं का
स्थापत्य इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इससे हटकर 'वाजश्रवा
के बहाने' का काव्य बँधा भी है और नहीं भी। इस काव्य को
किसी अन्विति या 'ढाँचे' में बांधते ही इसका औपनिषदिक
सौंदर्य नष्ट हो जाता। 'वाजश्रवा' का काव्य संयोजन आकाश
में उड़ते शारदीय पक्षियों के झुंड से मिलता-जुलता है।
जिसमें एक संरचना तो होती है पर वह लगातार बदलती रहती है।
यहाँ तक कि जो पक्षी अभी आगे थे वे आराम के लिए पीछे चले
जाते हैं। बिल्कुल उसी तरह यहाँ भी काव्य तत्त्व एक मुक्त
संरचना में संचार करते हैं। 'वाजश्रवा' के काव्य की यही
जैविक संचेतना इस काव्य के पाठ के साथ बोलती बतियाती चलती
है। हिंदी
कविता को इस किताब के माध्यम से वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण
ने बहुत कुछ दिया है।
दिनेश कुमार शुक्ल
६ जुलाई २००९ |