आज
की दुनिया में अच्छे कला संग्रहालयों की कमी नहीं हैं। लेकिन
दुनिया भर की मास्टरपीस कलाकृतियों के, वास्तविक अर्थों में,
'शाही खज़ाने' को देखने के लिए लूव्र (पेरिस), द प्रादो (मैडि्रड),
पिनाकोठेक (म्युनिख), उफ्फीज़ी (फ्लोरेंस) और हर्मिटाज (सेंट
पीटर्सबर्ग) का ही हमें सहारा लेना पड़ता है। इस सूची में पेरिस
स्थित लूव्र संग्रहालय को कला का सर्वश्रेष्ठ तीर्थ माना जाता है।
कला के इतिहास की सबसे मशहूर पेंटिंग 'मोनालीसा' इसी
संग्रहालय में मौजूद हैं। पेरिस एक अद्भुत सांस्कृतिक नगरी हैं
जहां नब्बे से भी अधिक संग्रहालय हैं। पर किसी सच्चे
कलाप्रेमी ने लूव्र और 'मोनालीसा' की रहस्यमय मुस्कान को
नहीं देखा, तो उसने क्या देखा!
महान इतालवी कलाकार, वैज्ञानिक,
लेखक और चिंतक लियोनार्दो द विंची को 'रेनेसां' (पुनर्जागरण)
की जीनियस प्रतिभा के रूप में पहचाना जाता है। 15035 ई के
दौरान फ्लोरेंस में रहते हुए लियोनार्दो ने 'मोनालीसा' को
पूरा किया था। इतालवी रेनेसां में पोटर््रेट (व्यक्तिचित्र)
बनाने की कला को मनोवैज्ञानिक सत्य चित्रित करने का एक नया
विस्तार दिया गया था, जिसके लिए कलाकार मुख्य शारीरिक
मुद्राओं के अलावा लाइट ऐंड शेड की कला पर अतिरिक्त ज़ोर देता
था। इस दृष्टि से लियोनार्दो को अद्वितीय माना गया है।
दास्तान मोनालीसा की
लियोनार्दो ने
'मोनालीसा' पेंटिंग की मॉडल के रूप में फ्लोरेंस की एक 24
साला युवती को चुना था। प्रसिद्ध इतालवी इतिहासकार वासारी के
अनुसार यह महिला फ्रांचेस्को देल जार्कोदा नाम के व्यापारी की
दूसरी पत्नी थी। इसीलिए इस पेंटिंग को 'ला जार्कोदा' के नाम से
भी पहचाना जाता है।
|
यह एक
दिलचस्प बात है कि किसी भी महान पोप, राजा या राजकुमारी
का पोट्रेट बनाने से इन्कार कर देने वाले कलाकार ने अपनी
सबसे प्रसिद्ध पेंटिंग की मॉडल के रूप में आखिर एक लगभग
अज्ञात व्यापारी की पत्नी को क्यों चुना? लियोनार्दो ने
इस महिला के सौंदर्य में एक रहस्य को पहचाना था। वह
उसमें साधारण सौंदर्य को नहीं देख रहे थे। कई साल की
मेहनत के बात लियोनार्दो ने जब अपनी पेंटिंग में इस
'त्रिपुर सुंदरी' के रहस्य को उतारा, तो वह अपनी कला के
परिणाम से संतुष्ट थे।
लियोनार्दो जब अपने जीवन
के अंतिम वर्षों में फ्रांस गए, तो इस पेंटिंग को भी
अपने साथ ही ले गए। सन् 1519 ई में फ्रांस में ही उनका
निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद 'मोनालीसा' फ्रांस के
राजा फ्रांसिस प्रथम के निजी संग्र्रह में पहुंच गई।
उन्नीसवीं शताब्दी में नेपोलियन ने इस पेंटिंग को अपने
शयन कक्ष में टांग कर प्रेरणा प्राप्त की थी। बाद में लूव्र
संग्रहालय का यह केंद्रीय आकर्षण बन गई। इस पेंटिंग की
पृष्ठभूमि का पहाड़ी लैंडस्केप भी बहुत सुंदर और दिव्य है। |
लियोनार्दो की जीनियस प्रतिभा को
फ्रांस में कितना सम्मान प्राप्त था इसका पता हमें उन्नीसवीं
शताब्दी के मास्टर चित्रकार इंग्रे की एक पेंटिंग से चलता है। सढ़सठ
वर्षीय लियोनार्दो, राजा फ्रांसिस प्रथम की बाहों में अपनी
अंतिम सांसे गिन रहे हैं। लूव्र संग्रहालय में लियानार्दो की
दो अन्य अद्भुत कलाकृतियां भी हैं 'वर्जिन ऑफ द रॉक्स' तथा
'द चाइल्ड, द वर्जिन ऐंड सेंट एने'। इन कलाकृतियों को उनकी
रहस्यमय कविता, प्रतीकात्मकता और अध्यात्मिकता के कारण कला के
इतिहास में विशिष्ट चर्चा प्राप्त है।
कहानी लूव्र की
लूव्र्र संग्रहालय की इमारत मूल रूप
से एक मध्यकालीन किला थी। फिलिप अगस्त ने सन् 1200 ई में
इसे बनवाया था। सुरक्षा की दृष्टि से पेरिस की सबसे कमज़ोर
जगह लुपारा पर यह किला बनाया गया था। लुपारा को ही बाद
में लूव्र नाम मिल गया। चार्ल्स पंचम ने चौदहवी शती में
लूव्र को एक शाही महल में बदल दिया। लेकिन बाद में 'सौ
साल के युद्ध' के उतारचढ़ाव, सुखदुख और अस्थिरता ने लूव्र
को अप्रासंगिक स्थल बना दिया। डेढ़ सौ साल तक यह जगह लगभग
उपेक्षित रही। पेरिस में जब योद्धा वापस आए, तो इस किले को
नया रूप मिलने की लंबी प्रक्रिया शुरू हुई। फ्रांसिस प्रथम ने
1546 ई में लूव्र की इमारत को 'रेनेसां' शैली में रूपांतरित
करना शुरू किया। कई शताब्दियों तक इस महल को बदला जाता रहा।
1871 ई के एक अग्निकांड में लूव्र के कुछ हिस्सों को भारी
नुकसान भी उठाना पड़ा था।
जहां तक लूव्र संग्रहालय की बात है,
उसका जन्म अठ्ठारहवीं शताब्दी के अंत में ही हुआ। फ्रांसीसी क्रांति के
दौरान इस संग्रहालय को अपनी पहचान मिली। लेकिन ऐतिहासिक
दस्तावेज़ हमें यह बताते हैं कि चालीस साल पहले ही लूव्र
संग्रहालय की रूपरेखा पर काम शुरू हो गया था।
|