विलक्षण है कश्मीरियों की शिवरात्रि
-
अग्निशेखर
शिवरात्रि को कश्मीरी भट्टों की लोक परंपरा में 'हेरथ'
कहते हैं। हेरथ यानी 'हर रात्रि' का अथवा शिव द्वारा
पार्वती के लिये 'हे, रति!' संबोधन का अपभ्रंश, ऐसी
लोक मान्यता है। लोक मानस संभवतः इसीलिये 'हेरथ' को
माँ कहकर लोकगीत में ऐसे याद करता है-
"हेरथ मॉअज आए
दारि किन्य च़आए
दरवाज़ किन्य द्राए ..."
अर्थात् हेरथ माता आई रे
खिड़की से भीतर आई रे
दरवाजे से हुई विदाई रे
इस लोकगीत के अंश में देवी हेरथ के दरवाजे से घर भीतर
आने का जो प्रसंग है वह शिवरात्रि के अखरोटों से भरे
मांगलिक कलश को नदी या सरोवर से जल भरकर लाए जाने से
संबंधित है। इसकी प्रसंगानुकूल विस्तार से आगे चर्चा
करेंगे। बात कश्मीर की शिवरात्रि पर्व के अनुष्ठानिक
संदर्भ से शुरू हुई है, इसलिये उसकी क्रमबद्धता समझनी
होगी। शिवरात्रि का दार्शनिक और आध्यात्मिक पहलू, वो
भी कश्मीर शैवदर्शन की पृष्ठभूमि में, जितना गहन और
गूढ है वह देखा जाए तो उतना ही इहलौकिक है। सामाजिक और
प्रासंगिक है, लोकमंगलकारी
है। प्रत्येक मनुष्य 'चैतन्यम्-आत्मा' होने से
सह-अस्तित्व और सम-अस्तित्व की अवस्था से परे एकात्म
यानी अभेद की स्थिति में अवस्थित करने वाला है। इस
पहलू पर भी आगे बात करेंगे। कश्मीर में हेरथ अर्थात्
शिवरात्रि का पर्व प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णपक्ष की
त्रयोदशी को मनाया जाता है। जबकि शेष भारत में अगले
दिन चतुर्दशी को महाशिवरात्रि मनाई जाती है। कश्मीर
में फाल्गुन मास की कृष्ण त्रयोदशी ही को क्यों हेरथ
मनाई जाती है, इसका अपना एक कारण है।
यह पर्व फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की पहली तिथि से
अमावस्या तक और कभी कभार तिथियों के हेरफेर के कारण
दूसरे पक्ष की प्रतिपदा तक भी फैल जाता है। कश्मीर की
शैवी परंपरा में शिवरात्रि के अवसर पर प्रमुख रूप से
'वटुक भैरव' की पूजा होती है। वटुक भैरव के साथ साथ
शक्ति और अन्य भैरवों की पूजा त्रयोदशी से विसर्जन तक
चार दिनों तक नियमित रूप से चलती है। फाल्गुन मास की
इन विशेष तिथियों का शिव के 'हर' रूप से जोड़कर नाम
लिया जाता है। जैसे 'हुर्य ओकदोह' यानी हर संबंधी
प्रतिपदा, 'हुर्य द्वितीया, हुर्य तृतीया इसी तरह हर
तिथि के साथ 'हुर्य' उपसर्ग लगता है। यों इस 'हुर्य'
शब्द के और भी अर्थ गिनाए जाते हैं। जैसे इसे संस्कृत
के 'होरा' शब्द से निकला बताया जाता है जो समय से
जोड़ता है। यह शब्द जन्म -उत्सव के देवता 'हुर्य
राज़ॅ' से भी संबंधित है। मुझे तो यह हर से ही साम्य
रखने वाला पद लगता है।
इस शब्दावली में कहें तो हुर्य प्रतिपदा से हुर्य
अष्टमी तक का समय हर कश्मीरी घर के लिये लिपाई -
पुताई, हर सदस्य के कपड़े लत्ते धोने, कमरा कमरा
बुहारने सजाने का होता है। घर की स्त्रियों को तो साँस
लेने की भी फुर्सत न मिलती। अष्टमी के दिन शाम को घरों
में और मंदिरों में रातभर शिव का भजन- कीर्तन होता। यह
हुर्य अष्टमी श्रीनगर में 'हारी पर्बत' (श्री शारिका
पर्वत) और लगभग पाँच किलोमीटर दूर उसी पर्वत
प्रदक्षिणा छोर पर स्थित राज्ञा भवानी के पवित्र कुण्ड
'पोखरिबल' में पूरी रात संकीर्तन के साथ मनाई जाती।
'नीलमतपुराण' (श्लोक ५१७,५२२-५३३) में अष्टमी से
चतुर्दशी तक साफ निर्देश है किसी दिन किसकी पूजा और
उसकी विधि भी बताई गयी है जो कालांतर में बदल भी गयी
है। फिर दो दिन के बाद दशमी को बेटियाँ अपने मायके चली
आतीं। रात रहतीं, नहाती धोतीं, अगले दिन सगन लेकर
उन्हें विदा किया जाता। इसे बेटियों के मायके की घटना
से जोड़कर 'द्यार दहम्' कहते हैं।
इस बीच कुम्हार या कुम्हारिन सिर पर बहुत बड़े 'फोत
'(टोकरा) में हेरथ के घड़े, मटके, डुलिजियाँ, सकोरे,
ऊँचे कपनुमा वारियाँ तथा सनिवारियाँ ले आते। यह लोग
अक्सर मुसलमान होते थे। मजेदार बात यह होती थी किन्तु
इन मुसलमान कुम्हारों की आदर तथा कृतज्ञता भाव के साथ
आरती उतारी जाती। अब तीसरे दिन यानी द्वादशी को हेरथ
(शिवरात्रि ) का शुभारंभ घर में 'वागुर भैरव' के आगमन
से होता है। घर की गृहिणी ठाकुरद्वारे या किसी कमरे
अथवा रसोई में एक लिपी पुती जगह पर मिट्टी का या पीतल
का मांगलिक घड़ा या दो घड़े सजाकर घास की 'आरी' (आसन)
पर स्थापित करती है। इस वागुर स्वरूप घड़े को या घड़ों
को मौलि, फूलों से सजा जाता है। उसपर सिंदूर का तिलक
लगाया जाता है। पूजा होती है। फिर प्रायः मछली और भात
का भोग या जैसी जिस परिवार की पारंपरिक प्रथा हो,
चढ़ाया जाता है। प्रसंगवश कहना ज़रूरी है कि दार्शनिक
और आध्यात्मिक आयामों की प्रतीकरूप पूजा के समांतर
कश्मीरी घरों में यह शिव-पार्वती के विवाह का भी
समारोह होता है। इसलिये वागुर भैरव शिव का दूत बनकर
आता है। वह आपको, मान लीजिए, विवाह की तैयारियों के
बारे में बताता है। कब शिव दुल्हा बनकर पहुँचेंगे। आदि
इत्यादि। दूसरी सुबह वागुर भैरव को विधिवत रूप से विदा
किया जाता है।
अब त्रयोदशी के दिन निश्चित मुहूर्त पर विशेष कर
प्रदोषकाल अर्थात् सन्ध्या के समय वटुक भैरव की
विस्तृत पूजा शुरू की जाती है। पूरे भारत में
महाशिवरात्रि पर प्रमुखता से देवी पुत्र वटुकनाथ भैरव
की पूजा शायद कश्मीरी पंडित ही करते होंगे। इसे समझने
के लिये यहाँ हमें मोटे रूप से कश्मीर शैवदर्शन के उस
सिद्धांत के बारे में जानना होगा जिसके अंतर्गत
कश्मीरी शैवाचार्यों ने ६४ भैरवतंत्र रचे बताए जाते
हैं। ये ग्रन्थ मुख्यतः शिव-पार्वती यानी भैरव और
भैरवी के बीच परस्पर संवादात्मक शैली में विरचित हैं।
कश्मीर में तांत्रिक विधि से यह भैरव पूजा प्राचीनकाल
से चली आ रही लगती है। हम यहाँ मोहन जोदड़ो, हड़प्पा
(प्राचीन हरयूपा) से लेकर कश्मीर में हॉअरवन तथा
बुर्ज़होम की खुदाई में निकले शिवशिल्पों के साक्ष्यों
की बात न भी करें, हमें कश्मीर के स्थानीय दुर्लभ
ग्रंथ 'नीलमतपुराण' में फाल्गुन मास में शिवरात्रि
मनाए जाने के नियम, पदार्थ और विधि के बारे में
जानकारी मिलती है। शिवरात्रि के अवसर पर उपवास, पूजा
और भक्तिपूर्वक रात्रि जागरण में गीत, नृत्य व संगीत
से इसे भरपूर उत्सव की तरह मनाने के स्पष्ट निर्देश
हैं। एक जगह (श्लोक ५३१-५३३) तो यहाँ तक लिखा है कि
भले ही सालभर आप अपनी इच्छानुसार महादेव शंकर की पूजा
करें या न करें, फाल्गुन की कृष्ण चतुर्दशी को उनकी
पूजा अवश्य करे। ''तस्मिन् मासे ध्रुवं पूज्यो देवः
चतुर्दशीम्" (श्लोक ५३२)
कश्मीर शैवदर्शन के अनुसार भैरव साक्षात् परम शिव है।
यों कश्मीर में शैवागमों का विपुल भंडार समय समय पर
रचा जाता रहा है। आज से एक हजार वर्ष पहले आचार्य
अभिनवगुप्त ने अपने शैव एन्साइक्लोपीडिया सरीखे
'तंत्रालोक ' को लिखने से पूर्व कोई ९५५ ग्रंथों का
गहन अध्ययन किया था। इन अत्यंत प्राचीन उल्लिखित
ग्रंथों में मालिनीविजय तंत्र, विज्ञान भैरव, आनंद
भैरव, स्वच्छंद तंत्र, रुद्रयामलतंत्र जैसे दस बारह ही
तंत्र बचे हैं। इसी तरह कश्मीर शैवदर्शन के अंतर्गत
उसके कई प्राचीनकालिक सिद्धांत भी यहाँ प्रचलन में
रहें हैं, जैसे क्रम, कुल, स्पन्द, प्रत्यभिज्ञा आदि।
इनमें क्रम और कुल सिद्धांत ये दो काफी पुराने
सिद्धांत माने जाते हैं। इनमें कुल और क्रम सिद्धांत
के अंतर्गत ऐसी कई तंत्र साधना पद्धतियाँ हैं जिनमें
मांसाहार, मत्स्य, मदिरा और संभोग जैसे पंच मकारों को
भी शास्त्र निर्दिष्ट माध्यमों से अभेदत्व को पाया जा
सकता है। कश्मीर की शैव तांत्रिक परंपरा चैतन्य भाव से
इंद्रिय सुखों का आनंद लेने से साधक को वंचित नहीं
करती।
इसी पृष्ठभूमि में हेरथ पूजा में देवी पुत्र वटुक भैरव
की पूजा का प्राधान्य है। पूजा स्थल पर वटुक भैरव का
मांगलिक कलश सजता है। पूजा के दौरान इस वटुकराज भैरव
कलश में जल, अखरोट, मिश्री, दूध और फूल चढाए जाते हैं।
फिर ''रामगोंड'' (शिव ही का रूप) छोटे घड़े को स्थापित
किया जाता है। इसी तरह एक 'डुल' चौड़े खुले मुँह वाले
तसलेनुमा पात्र कोई समस्त शिव बारातियों के प्रतीक्षा
स्वरूप स्थापित किया जाता है। इसी क्रम में वैष्णव
ऋषियों के रूप में एक पात्र 'डुलिज' तथा दिया और
रतनदीप आदि कई पात्र अपने अपने निश्चित स्थान पर रखे
जाते हैं। प्रत्येक पात्र गेंदे की फूलमालाओं से,
सिन्दूर के तिलक से, मौली और बेलपत्र से श्रद्धा से
सजाए जाते हैं। इसमें भी कोई डेढ़ दो घंटे लगते हैं।
जब तक पूजा के लिये कुल पुरोहित आएँ या आप स्वयं पूजा
करने के लिये तैयार होते हैं तब तक घर की गृहिणी रसोई
में रीति अनुसार सामिष या निरामिष पकवान बनाती रहती
हैं। अधिकांश घरों में चूँकि शैव तांत्रिक पद्धति की
पूजा संपन्न होती है इसलिये सामिष पदार्थ ही प्रायः
बनते हैं। जैसे रोगनजोश, कलिया, यखनी, मछ(कीमा), च़ओक
च़रवन (खट्टी कलेजी) आदि। घर की उत्सव धर्मिता में
धूप, अगरबत्ती और ताजा पुष्पों की गंध तथा सामिष
पकवानों की गंध आपस में घुलमिलकर एक आह्लादकारी
वातावरण तैयार करती हैं। इन मांगलिक कलशों में वटुक
भैरव कलश की तरह ही अखरोट और भोग चढता है। ढाई तीन
घंटे की लंबी पूजा के पश्चात दिनभर के उपवास के बाद घर
के सभी सदस्य एकसाथ बैठकर हेरथ का भोज करते हैं। एक
ज़माना था कि तमाम बच्चे और बड़े इन दिनों घरों में
कौड़ियाँ खेलते थे। बच्चे अपने फिरन की गहरी जेबों में
कौड़ियाँ छनकाते हुए सीढ़ियाँ उतरते। उल्लसित होते।
घरों में रोज़ सुबह शाम चार दिन तक वटुक पूजा होती है।
इस पूजा में वटुक भैरव के कलश में अखरोट डालने की
क्रिया से मुहावरा ही बनाया है -'वटुक बरुन'। जब हम
किसी से कहते हैं कि क्या आप लोग वटुक भरते हो तो हम
उससे यह पूछ रहे होते हैं कि क्या आप हेरथ पर वटुक
भैरव के कलश सजाकर उनकी पूजा करते हो।
फाल्गुन की त्रयोदशी को शाम को इस तरह देर रात तक हर
घर में हेरथ की पूजा चलती रहती है। दूसरे दिन
महशिवरात्रि होती है जिसे हम 'सलाम' कहते थे। इस दिन
हमारे यहाँ मुसलमान यार दोस्त, अड़ोसी -पड़ोसी और
जोगी, भिखारी, सफाई कर्मचारी आदि घर चले आते और 'सलाम'
कहकर हमें शिवरात्रि की शुभकामनाएँ देते। यह क्रम
हमारे भी ईद के दूसरे दिन बड़ी ईद पर मुसलमान यार
दोस्तों और अड़ोसी पड़ोसियों आदि के यहां जाकर उन्हें
'सलाम' कह ईद मुबारक कहते। हेरथ के दूसरे दिन सलाम पर
प्रायः घरों में आमंत्रित मेहमानों को प्रीतिभोज पर
बुलाया जाता। इस तरह चौथे दिन पूजा संपन्न होती हैं
जिसे 'वटुक परमूजुन' कहते हैं। हेरथ के दूसरे दिन सलाम
पर प्रायः घरों में आमंत्रित मेहमानों को प्रीतिभोज पर
बुलाया जाता। इस तरह चौथे दिन पूजा संपन्न होती हैं
जिसे 'वटुक परमूजुन' कहते हैं। सभी कलशों में रोज़
रोज़ जल बदला जाता है। अब यह क्रम संपन्न होने पर सभी
घड़े और अन्य पात्र खाली किये जाते हैं। कभी यह
विसर्जन का काम नदी घाट पर जाकर किया जाता था। क्या
आह्लादकारी दृश्य बनता था घाट पर !
पूजा के पुष्पों के साथ सतीरूप वितस्ता नदी में
दस-बारह अखरोट भी जल में दूर फेंककर विसर्जित किये
जाते। अनेक नाविक अपनी अपनी नौकाएँ खे कर अखरोट झपटने
लगते। उनमें परस्पर एक चहक होती। होड़ लग जाती उनमें
नदी से अखरोट उठा लेने की।
"भाभी, इधर फेंको..!"
"ओ हमशीरा, इधर फेंको ..मेरी तरफ!"
"इधर ..भाभी! इधर ..इधर!"
घर लौटने पर चावल की सूखी रोटी और अखरोट की गिरियाँ
प्रसाद के रूप में खाई जातीं। फिर क्रम शुरू होता है
मुहल्ले भर में अखरोट और चावल की रोटी कांग्रेस प्रसाद
वितरित करने का। संबंधियों को भेजने का। विशेष कर
विवाहित बहनों और बेटियों को अनिवार्य रूप से भेजने
का। चाहे वे दूर दराज़ शहरों में क्यों न हों। उन्हें
पार्सल करके डाक से भेजते हैं पूजित अखरोट। शिवरात्रि
वास्तव में कश्मीरी भट्टों का सबसे बड़ा पर्व है। यह
पर्व इनके दार्शनिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और
सांस्कृतिक डीएनए का हिस्सा है। पारंपरिक दृष्टि से वे
इसे विषम से विषमतर स्थिति में भी मनाते आए हैं और आज
भी उसी श्रद्धानत भाव से मनाते हैं। इसे वे 'रीथ
पालुन" कहते हैं अर्थात् घर में चाहे किसी की मृत्यु
तक क्यों न हो, वे अविच्छिन्न रूप से रीति का पालन
करेंगे ही करेंगे। वटुक भरेंगे। क्योंकि हेरथ सृष्टि
के कल्याण की रात्रि है। इसलिये शिवरात्रि है। शिव और
शक्ति के सम्मिलन की रात्रि है। विवाह की रात्रि है।
प्राण और अपान की सन्धि यानी दो सांसों के मध्य शून्य
की वेला में सृष्टि के निर्माण और उसी में विलय होने
की ब्रह्मांडीय घटना है, इसलिये भी कल्याणप्रद रात्रि
है।
हेरथ कालरात्रि भी है। क्योंकि शिव काल हैं। महाकाल
हैं। चेतना हैं। सृष्टि का समस्त कार्य कलाप उसमें
उठने वाले स्पंदन हैं, तरंगें हैं। हेरथ तालरात्रि भी
है। क्योंकि 'नर्तक आत्मा' हैं हम। नर्तकात्मा हैं शिव
जो 'भारतीय लोकसाहित्य कोश' के लेखक डॉ. सुरेश गौतम के
शब्दों में ''ताल द्वारा नियंत्रित होने होने पर भी
बार बार एक निश्चित लय में परावर्तित नृत्य वस्तुतः
जन्म और मृत्यु से व्यवहित फिर भी अविच्छिन्न भाव में
निरंतर गतिशील जीवन ही व्यंजना है।" हेरथ है हररात्रि।
इसलिये मनानी ही मनानी है। यह शिवचेतना हमारे देखे
बुज़र्गों की साँस साँस में होती थी। वे छींक आने पर
'सत सदाशिव' बोलते। भूकंप का झटका आता तो 'ओम नमः
शिवाय' जपने लगते। जन्मोत्सव देवता को 'हुर्यराज़ॅ'
कहते। शवयात्रा के समय 'रामनाम सत है' के बदले आज भी
'क्षणतव्यो मेअपराधः शिव शिव शिव भोः श्री महादेव
शंभो' का उच्चार करते श्मशान जाते हैं। वर वधु का
विवाह 'शिव और पार्वती जानकर करते हैं। वे शिवचेतना को
जीने वाले लोग थे। यह भाव ही अविभाजित और अखंड
ब्रह्मांडीय चेतना है जो हमें सब कुछ से जोड़कर
'सर्वम् सर्वात्मकम्' की अनुभूति कराती है।
यही हेरथ का संदेश है कि शिव अद्वैत वेदांतियों का
निष्क्रिय ब्रह्म नहीं है। वह ज्ञान मात्र नहीं है।
शिव में ज्ञान और क्रिया का समन्वय है। उसमें
स्वातंत्र्य है। माया उसकी शक्ति है। यह जगत मिथ्या न
होकर उसका विस्तार है। इसलिये सत्य है। सबसे सबकुछ वही
है तो कोई वर्ण भेद नहीं। कोई जातिभेद नहीं। कोई
ब्राह्मण होकर श्रेष्ठ नहीं, कोई शूद्र होकर नीच नहीं।
इसी रचनात्मक ऊर्जा की पूजा है हेरथ। यह ऊर्जा है
स्वातंत्र्य। विमर्श। स्पन्द और पूर्णता। इन्हें
कश्मीर शैवदर्शन शिव की शक्ति कहता है। इस शक्ति के
अन्यथा रूप हैं -ज्ञान, क्रिया, इच्छा, चित्त और आनंद।
यही पाँच शक्तियाँ स्वच्छंद भैरव के पाँच मुख हैं। इसी
शिव और शक्ति के अभेद का नाम है हेरथ।
१ फरवरी २०१८ |