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                  बाढ़ की विभीषिका में डूबते उतराते मौसम पर 
					
					अनुपम मिश्र का आलेख-  
 
                  
                  		पानी के रास्ते में खड़े हम 
 हमारे 
							कलेंडर में और प्रकृति के कलेंडर में बहुत अंतर होता 
							है। इस अंतर को न समझ पाने के कारण किसी साल बरसात में 
							हम खुश होते हैं, तो किसी साल बहुत उदास हो जाते हैं। 
							लेकिन प्रकृति ऐसा नहीं सोचती। उसके लिए चार महीने की 
							बरसात एक वर्ष के शेष आठ महीने के हजारों-लाखों 
							छोटी-छोटी बातों पर निर्भर करती है। प्रकृति को इन सब 
							बातों का गुणा-भाग करके अपना फैसला लेना होता है। 
							प्रकृति को ऐसा नहीं लगता, लेकिन हमे जरूर लगता है कि 
							अरे, इस साल पानी कम गिरा या फिर, लो इस साल तो हद से 
							ज्यादा पानी बरस गया। 
 मौसम को जानने वाले हमें बताएँगे कि १५-२० वर्षो में 
							एक बार पानी का ज्यादा होना या ज्यादा बरसना प्रकृति 
							के कलेंडर का सहज अंग है। थोड़ी-सी नई पढ़ाई कर चुके, 
							पढ़-लिख गए हम लोग अपने कंप्यूटर, अपने उपग्रह और 
							संवेदनशील मौसम प्रणाली पर इतना ज्यादा भरोसा रखने 
							लगते हैं कि हमें बाकी बातें सूझती ही नहीं हैं। हमारे 
							पुरखे बताएँगे कि समाज ने ऐसे बहुत-से बड़े-बड़े काम 
							किए हैं पानी रोकने के लिए, ऐसे बड़े तालाब बनाए हैं, 
							जो सामान्य बारिश में भरते नहीं हैं, उन पर हर साल 
							वर्ष के मौसम में पानी की चादर नहीं चल पाती है। ऐसे 
							बड़े तालाबों के इर्दगिर्द बसे गाँवों में 
							रहने वाले बुजुर्गो से 
							पूछिए, तो वे सहज ही यह बताएँगे कि १५-२० सालों में 
							कभी ज्यादा पानी गिर जाए, तो उसको रोककर सहेजकर रखने 
							के लिए ही तालाबों को इतना बड़ा बनाया गया था।
 
 इसलिए इस साल यदि पानी पिछले १५ सालों से ज्यादा गिरा 
							है, तो यह प्रकृति की सोची-समझी प्रणाली का एक सुंदर 
							नमूना है। जहाँ तक समाज इस प्रणाली को समझता था, उसकी 
							पर्याप्त इज्जत करता था, वहाँ तक उसको इसका भरपूर लाभ 
							भी मिला है। अब अगर दो-तीन साल कोई तालाब भरता नहीं 
							है, तो लोगों को लगता है, तालाब का कोई मतलब नहीं है, 
							तालाब को भर देना चाहिए। लेकिन इसमे कोई दो राय नहीं 
							कि तालाब या जल भंडार की प्रणाली हमारे जीवन के लिए 
							बहुत जरूरी है।
 
 जब हमने इस प्रणाली की इज्जत करना छोड़ दिया, तो हम 
							पाते हैं कि कुछ घंटों की थोड़ी-सी भी ज्यादा बरसात 
							में हमारे सभी चमक-दमक वाले शहर दिल्ली, मुंबई, जयपुर, 
							अहमदाबाद, बेंगलुरू, भोपाल सब डूबने लगते हैं। पानी के 
							सड़कों पर जमा होने का हल्ला हो जाता है। हमारे इन सभी 
							आधुनिक बन गए शहरों में आज से ३०-४० साल पहले तक 
							सुंदर-सुंदर बड़े-बड़े तालाब हुआ करते थे और ये शहर 
							में होने वाली वर्षा के अतिरिक्त जल को अपने में रोककर 
							पहले उसको बाढ़ से बचाते थे और फिर छह महीने बाद आ 
							सकने वाले जल संकट को भी थामते थे, लेकिन जमीन के 
							प्रति हमारे लगातार बढ़ते लालच और हमारी नई राजनीति ने 
							इन सब जगहों पर कब्जा किया है और उन पर सुंदर जगमगाते 
							मॉल, बाजार, हाउसिंग सोसायटी आदि बना दिए हैं। इसलिए 
							दो घंटे की तेज बरसात भी इन इलाकों को डुबोकर हमें याद 
							दिलाती है कि हम 
							उसके रास्ते में खड़े हो रहे हैं।
 
 इस साल खूब अच्छा पानी गिरा है। समाज के जिन हिस्सों 
							में, जिलों में लोगों ने अपने इलाकों मे पानी के काम 
							को ठीक से बनाकर-सजाकर रखा है, वे लोग वरूण देवता के 
							इस प्रसाद को अपनी अंजुली में खूब अच्छे से भर सकेंगे 
							और उन्हें इसका भरपूर आशीर्वाद या लाभ आने वाले महीनों 
							में मिलने ही वाला है।
 
 जैसलमेर का उदाहरण बार-बार दिया जा सकता है। इसमें 
							पुनरोक्ति दोष नहीं है कि ऐसा मानकर एक बार फिर याद 
							करना चाहिए कि जहाँ देश की सबसे कम वर्षा होती है, कुल 
							१६ सेंटीमीटर, वहाँ भी इस बार वरूण देवता ने थोड़ा 
							ज्यादा खुश होकर ३२ सेंटीमीटर के करीब पानी गिराया है। 
							यहाँ पर कुछ जगह लोगों ने अपने चार सौ-पांच सौ साल 
							पुराने कामों की समझदारी को फिर से इज्जत दी है और 
							लोगों के साथ एकजुट होकर, कहीं-कहीं तो सचमुच "ल्हास 
							खेलकर" जल संग्रहण 
							के इंतजाम किए हैं। 
							"ल्हास खेलने" का मतलब है, स्वेच्छा से उत्सवपूर्वक 
							सामूहिक श्रमदान करना।
 
 रामगढ़ के बिप्रासर जैसे पुराने तालाबों को, ईसावल 
							मैती, गिरदुवाला जैसे इलाकों में नि:स्वार्थ भाव से 
							अपना पसीना बहाकर इस साल बरसे पानी को रोका गया है। आज 
							ये इलाके पानी का काम करने वाले सभी लोगों के लिए एक 
							सुंदर उदाहरण की तरह लबालब भरे खड़े हैं। इसी के साथ 
							नागौर, अलवर, जयपुर, सांभर झील सभी जगह अनेक लोगों ने 
							प्रचार से दूर रहकर जल संरक्षण का काम चुपचाप किया है। 
							लोगों के मिले-जुले प्रयासों का ही नतीजा है, आज उनके 
							तालाब नीले पानी से भरे लबालब दिखते हैं। लगता है जैसे 
							नीला आसमान तालाबों में अपना पानी लेकर उतर आया हो और 
							अब वो यहाँ लंबे समय तक आराम करना चाहेगा। हमें उसे 
							आराम करने देना चाहिए।
 
 दूसरी तरफ, हम में से जो लोग वर्षा जल के संचयन के काम 
							में इस बार पिछड़ गए हैं, उन्हें भी प्रकृति याद तो 
							दिला ही रही है कि अगली बार ऐसा मत होने देना।
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