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							 देश 
                          के तालाबों को पुनर्जीवन देनेवाले अनुपम मिश्र के  
                          विषय में सुनील मिश्र का आलेख- 
 
                          तालों के 
							तारणहार 
							अनुपम 
							मिश्र 
 अनुपम 
                          मिश्र को समाज के सच्चे लोग बड़े आदर की दृष्टि से देखते 
                          हैं। वे जिस तरह का जीवन जी रहे हैं, जिस तरह की सच्चाई 
                          और साफगोई उनके व्यक्तित्व की पहचान है। देश के मरे, 
                          बाँझ और उदास तालाबों के लिए वे भागीरथ सिद्ध हुए हैं। 
                          यशस्वी कवि भवानीप्रसाद मिश्र के बेटे अनुपम ने राजनीति, 
                          सिनेमा, समाज सेवा और अन्य तमाम जगहों पर दिखायी पड़ने 
                          वाली, थोपी जाने वाली वंश परम्परा से बिल्कुल अलग जीवट 
                          के आदमी निकले। पिता के साहित्य प्रेम से वे पता नहीं 
                          कितने प्रभावित थे, मगर पिता के गांधीवाद ने उनको जीवन 
                          का सच्चा मार्ग दिखाया। बहुत से लोग उनका मध्यप्रदेश में 
                          जन्म मानते हैं जबकि उनका जन्म स्थान महाराष्ट्र का 
                          वर्धा शहर है। भवानी भाई जब सेवाग्राम में थे, तभी अनुपम 
                          का जन्म हुआ। नौकरी वे दिल्ली में कर रहे हैं और सेवा 
                          मध्य प्रदेश और राजस्थान की। 
 अब तक तकरीबन अठारह किताबों के लेखक अनुपम मिश्र की जीवन 
                          यात्रा एक सच्चे पुरुषार्थी की जीवन यात्रा रही है। 
                          सत्तर के दशक में जब आचार्य विनोबा भावे ने चंबल के 
                          दस्युओं से बीहड़ का रास्ता त्याग देने का आह्वान किया 
                          था, तब उन्होंने इस बात की प्रेरणा दी थी कि डाकू बुराई 
                          का रास्ता अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर छोड़ें। वे सरकार 
                          पर माफी, सजा से बचाव, जमीन-जायदाद, मुआवजा और खेती जैसी 
                          सौदेबाजी के बजाय अपने जीवन को आने वाली पीढ़ियों और 
                          समाज के लिए तब्दील करें। अनुपम बताते हैं कि उस वक्त 
                          प्रभाष जोशी, मैं और श्रवण गर्ग इस अनुष्ठान में तमाम 
                          जोखिमों के साथ १९७२ में चम्बल के बीहड़ों में काम करने 
                          गए थे। उस समय चम्बल की बन्दूकें गांधी जी के चरणों में, 
                          अभियान को हमने चलाया था। उस समय वहाँ के पूरे वातावरण 
                          का अध्ययन करके चार दिन में एक किताब हमने तैयार की थी 
                          जिसमें चम्बल के स्वभाव का विवरण था, किस तरह विनोबा ने 
                          बागियों के जीवन में इस रास्ते को त्याग करने का बीज 
                          बोया, इस बात के लिए तैयार किया कि आकांक्षा मत रखो, 
                          जयप्रकाश नारायण ने जो पौधा रोपा उसमें विनम्रतापूर्वक 
                          पानी देने का काम हम तीनों ने किया। तभी उस वक्त ५४८ 
                          बागियों का समर्पण सम्भव हो सका था। बाद का आपातकाल का 
                          समय भी हम सबके लिए कड़ी परीक्षा का समय था, मगर हम सब 
                          जिस भावना से काम कर रहे थे, उसमें भय का कोई स्थान न 
                          था।
 
 इन कार्यों के बाद का समय अनुपम मिश्र का प्रजानीति और 
                          इण्डियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों में थोड़े-थोड़े समय काम 
                          करके बीता। उसके बाद गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में आए। 
                          साढ़े तीन सौ रुपए माहवार की प्रूफ रीडिंग की नौकरी से 
                          शुरूआत की और फिर बाद में १९७७ से मिट्टी बचाओ आन्दोलन, 
                          बांधों की गल्तियों को रेखांकित करने का काम और नर्मदा 
                          के काम से जुड़े। अनुपम चार दशकों से समाज को उन सारे 
                          खतरों से आगाह करने का काम कर रहे हैं जो आज बाढ़ और 
                          सूखे के रूप में हमारे सामने भयावह रूप लिए बैठे हैं। 
                          हाल में जिस तरह से बिहार के बाद उड़ीसा में बीस साल लोग 
                          तबाह हो गए हैं वह सब लाचार प्रशासन व्यवस्था का परिणाम 
                          है, ऐसा अनुपम का मानना है। वे कहते हैं कि प्राकृतिक 
                          अस्मिता के प्रति जिस तरह का उपेक्षा भाव हमारे देश में 
                          पिछली आधी सदी में देखने में आया है उसी का यह परिणाम है 
                          कि आपदाएँ हमारे सिरहाने खड़ी हैं और हमें होश नहीं है।
 
 १९९३ में उनकी किताब
                          आज भी 
                          खरे हैं तालाब आई। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान ने 
                          प्रारम्भ में इसकी तीन हजार प्रतियाँ छापी थीं। यह किताब 
                          अपनी सार्थकता और तालाबों की अस्मिता को बहाल करने के 
                          सार्थक जतन की वजह से इतनी लोकप्रिय हुई कि अब तक इसकी न 
                          सिर्फ सवा लाख प्रतियाँ मुद्रित होकर बिक चुकी हैं बल्कि 
                          इस किताब का गुजराती, मराठी, उर्दू, कन्नड़, तमिल, 
                          असमिया, उड़िया, अंग्रेजी, बंगला और गुरुमुखी में भी 
                          अनुवाद हो चुका है। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान ही इसके 
                          पाँच संस्करण अब तक निकाल चुका है। वैसे अब तक इसके कुल 
                          सोलह-सत्रह संस्करण निकल चुके हैं। यह किताब अनुपम के एक 
                          दशक के गहन अनुभवों के आधार पर लिखी गयी है। मध्यप्रदेश 
                          सरकार ने इस किताब का पुनर्मुद्रण कर पच्चीस हजार 
                          प्रतियाँ गाँवों में निशुल्क वितरण के लिए छापकर बटवायीं 
                          हैं। अनुपम कहते हैं कि इस किताब पर किसी का कॉपीराइट 
                          नहीं है। उन्होंने मानवीय अस्मिता के बचाव के लिए यह काम 
                          किया है, यह जितना सम्प्रेषित हो सके उतनी ही इसकी 
                          सार्थकता भी है। इस किताब के दो साल बाद ही राजस्थान की 
                          रजत बूँदें किताब भी उनकी अत्यन्त चर्चित रही जिसमें 
                          राजस्थान के जीर्ण-शीर्ण तालों को एक-एक करके देखा गया 
                          था। यह किताब पहले हिन्दी में आयी फिर बाद में उसका 
                          फ्रांसीसी में अनुवाद हुआ और उसके बाद अंग्रेजी और अरबी 
                          में हो रहा है तथा जर्मन में प्रस्तावित है। साफ माथे का 
                          समाज उनकी एक और किताब है जो पेंग्विन से आयी है और 
                          हिन्दी में है जिसमें समय-समय पर अनुपम के लिखे 
                          महत्त्वपूर्ण सचेत लेखों का चयन है। अनुपम मिश्र को 
                          ताल-तलैयों के तारणहार कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न 
                          होगी।
 
 अनुपम मिश्र लोभ, लालच, मोह, माया और तमाम आडंबर-पाखंड 
                          से परे एक सादे इन्सान हैं। आज भी उनका गुजारा साढ़े सात 
                          हजार मासिक वेतन पर होता है। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान की 
                          पत्रिका गांधी मार्ग के ये सम्पादक अपने घर से दफ्तर 
                          पैदल आते-जाते हैं। किसी तरह का कोई कर्ज भी उन पर नहीं 
                          है। देश में अनेक राय और शहर का प्रशासन अपने अधिकारियों 
                          और लोगों को उन तमाम विधियों को समझाने और व्याख्यायित 
                          करने के लिए आमंत्रित करते हैं जो अनुपम के चार दशक के 
                          गहरे अध्ययन और पुरुषार्थी जीवन का निचोड हैं। अनुपम 
                          कहते हैं कि जिस तरह देश में जल स्तर गिरा है, राजनीति 
                          की गिरावट की तरह, इससे सावधान होना चाहिए।
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