विश्व
व्यापार पर छाई मंदी के कारण मीडिया पर मंडराते संकट का
खुलासा करता संजय द्विवेदी का आलेख-
मीडिया की मंडी में
मीडिया की
मंडी में
मीडिया
में आकर, कुछ पैसे लगाकर अपना रूतबा जमाने का शौक काफी
पुराना है किंतु पिछले कुछ समय से टीवी चैनल खोलने का
चलन जिस तरह चला है उसने एक अराजकता की स्थिति पैदा कर
दी है। हर वह आदमी जिसके पास नाजायज तरीके से कुछ पैसे आ
गए हैं वह टीवी चैनल खोलने या किसी बड़े टीवी चैनल की
फ्रेंचाइजी लेने को आतुर है। पिछले कुछ महीनों में इन
शौकीनों के चैनलों की जैसी गति हुई है और उसके कर्मचारी-
पत्रकार जैसी यातना भोगने को विवश हुए हैं, उससे सरकार
ही नहीं सारा मीडिया जगत हैरत में है। एक टीवी चैनल में
लगने वाली पूँजी और ताकत साधारण नहीं होती किंतु मीडिया
में घुसने के आतुर नए सेठ कुछ भी करने को आमादा दिखते
हैं।
अब
इनकी हरकतों की पोल एक-एक कर खुल रही है। रंगीन चैनलों
की काली कथाएँ और करतूतें लोगों के सामने हैं, उनके
कर्मचारी सड़क पर हैं। भारतीय टेलीविजन बाजार का यह
अचानक उठाव कई तरह की चिंताएँ साथ लिए आया है। जिसमें
मीडिया की प्रामणिकता, विश्वसनीयता की चिंताएँ तो हैं ही
साथ ही उन पत्रकारों का जीवन भी एक अहम मुद्दा है जो
अपना कैरियर इन नए-नवेले चैनलों के लिए दाँव पर लगा देते
हैं। चैनलों की बाढ़ ने न सिर्फ उनकी साख गिराई है वरन
मीडिया के क्षेत्र को एक अराजक कुरुक्षेत्र में बदल दिया
है। ऐसे समय में केंद्र सरकार की यह चिंता बहुत
स्वाभाविक है कि कैसे इस क्षेत्र में मचे धमाल को रोका
जाए। दिसंबर, २००८ तक देश में कुल ४१७ चैनल थे जिसमें
१९७ न्यूज चैनल काम कर रहे थे। सितंबर, २००९ तक सरकार
४९८ चैनलों के लिए अनुमति दे चुकी है और १५० चैनलों के
नए आवेदन विचाराधीन हैं। टीवी मीडिया के क्षेत्र में
जाहिर तौर पर यह एक बड़ी छलांग है। कितु क्या इस देश को
इतने सेटलाइट चैनलों की जरूरत है। क्या ये सिर्फ धाक
बनाने और निहित स्वार्थों के चलते खड़ी हो रही भीड़ नहीं
है। जिसका पत्रकार नाम के प्राणी के जीवन और पत्रकारिता
के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। जिस दौर में
दिल्ली जैसी जगह में हजारों पत्रकार अकारण बेरोजगार बना
दिए गए हों और तमाम चैनलों में लोग अपनी तनख्वाह का
इंतजार कर रहे हों इस अराजकता पर रोक लगनी ही चाहिए।
यह
बहुत बेहतर है कि सरकार इस दिशा में कुछ नियमन करने के
लिए सोच रही है। चैनल अनुमति नीति में बदलाव बहुत जरूरी
हैं। यह सामयिक है कि सरकार अपने अनुमति देने के नियमों
की समीक्षा करे और कड़े नियम बनाए जिसमें कर्मचारी का
हित प्रधान हो। ताकि लूट-खसोट के इरादे से आ रहे चैनलों
को हतोत्साहित किया जा सके। सरकार ने ट्राइ को लिखा है
कि वह उसे इसके लिए सुझाव दे कि और कितने चैनलों की
गुंजाइश इस देश में है और चैनलों की बढ़ती संख्या पर
अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। अपने पत्र में मंत्रालय की
चिंता वास्तव में देश की भी चिंता है। पत्र में इस बात
पर भी चिंता जताई गई है कि नए चैनल शुरू करने वालों में
बिल्डर, ठेकेदार, शिक्षा क्षेत्र में व्यापार करने वाले,
स्टील व्यापारी समेत तमाम ऐसे लोग हैं जिनका मीडिया
उद्योग से कोई लेना देना या पूर्व अनुभव नहीं है। सूचना
एवं प्रसारण मंत्रालय को यह भी शिकायत मिली है चैनल शुरू
करवाने को लेकर दलाली का एक पूरा कारोबार जोर पकड़ चुका
है। उल्लेखनीय है कि चैनल शुरू करने के लिए सूचना
प्रसारण मंत्रालय के अलावा गृह मंत्रालय, विदेश
मंत्रालय, वित्त मंत्रालय की अनुमति भी लेनी होती है।
हालाँकि कुछ आलोचक यह कह कर इन कदमों की आलोचना कर सकते
हैं कि यह कदम लोकतंत्र विरोधी होगा कि नए चैनल आने में
अड़चनें लगाई जाएँ। किंतु जिस तरह के हालात हैं और
पत्रकारों व कर्मियों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा
रहा है उसमें नियमन जरूरी है। चैनल का लाइसेंस पाकर कभी
भी चैनल पर ताला डालने का प्रवृत्ति से आम पत्रकारों को
गहरा झटका लगता है। उनके परिवार सड़क पर आ जाते हैं।
नौकरियों को लेकर कोई सुरक्षा न होना और पत्रकारों से
अपने संपर्कों के आधार पर पैसै या व्यावसायिक मदद लेने
की प्रवृत्ति भी उफान पर है। चैनल खोलने के शौकीनों से
सरकार को यह जानने का हक है कि आखिर वे ऐसा क्या प्रमाण
दे रहे हैं कि जिसके आधार पर यह माना जा सके कि आपके पास
तीन या पाँच साल तक चैनल चलाने की पूँजी मौजूद है।
वित्तीय क्षमता के अभाव या मीडिया के दुरुपयोग से पैसे
कमाने की रुचि से आने वालों को निश्चित ही रोका जाना
चाहिए। चैनल में नियुक्त कर्मियों के रोजगार गारंटी के
लिए कड़े नियमों के आधार पर ही नए नियोक्ताओं को इस
क्षेत्र में आने की अनुमति मिलनी चाहिए। मीडिया जिस तरह
के उद्योग में बदल रहा है उसे नियमों से बाँधे बिना
कर्मियों के हितों की रक्षा असंभव है। पैसे लेकर खबरें
छापने या दिखाने के कलंकों के बाद अब मीडिया को और छूट
नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हर तरह की छूट दरअसल
पत्रकारिता या मीडिया के लिए नहीं होती, ना ही वह उसके
कर्मचारियों के लिए होती है, यह सारी छूट होती है
मालिकों के लिए। सो नियम ऐसे हों जिससे मीडिया कर्मी
निर्भय होकर, प्रतिबद्धता के साथ अपना काम कर सकें।
केंद्र सरकार अगर चैनलों की भीड़ रोकने और उन्हें नियमों
में बांधने के लिए आगे आ रही है तो उसका स्वागत होना
चाहिए। ध्यान रहे यह मामला सेंसरशिप का नहीं हैं।
पत्रकारों के कल्याण, उनके जीवन से भी जुड़ा है, सो इस
मुद्दे पर एलर्जिक होना ठीक नहीं है।
१८ जनवरी
२०१० |