मंचन के पीछे की
पीड़ा
योगेश विक्रांत
हिन्दी रंगमंच के उद्भव काल को स्मरण करें तो अब तक
एक दीर्घ अवधि बीत चुकी है। भारतेन्दू हरिश्चन्द्र
के युग में जो नाट्यान्दोलन हिन्दी क्षेत्र में आरंभ
हुआ उससे हिन्दी रंगमंच को एक निश्चित दिशा अवश्य
मिली परन्तु उसकी जड़ें स्थाई नहीं बन पाईं। 'सत्य
हरिश्चन्द्र', 'भारत दुर्दशा', 'अंधेर नगरी' आदि
नाटकों से हिन्दी रंगमंच को एक निश्चित स्वरूप की ओर
बढ़ने में सार्थक सहयोग प्राप्त हुआ। भारतेन्दु के
नाटक न सिर्फ शहरी बल्कि ग्रामीण जनजीवन को प्रभावित
करने की दिशा में कामयाब हुए। 'अंधेर नगरी' का मंचन तो
गांव-गांव में रामलीला के मंचों पर हुआ लेकिन अब भी
हिन्दी रंगमंच अपने पांवों पर मजबूती से खड़ा होने का
दावा नहीं कर सकता है। हम अगर इसके कारणों की पड़ताल
करें तो कुछ क्रूर सच्चाइयाँ सामने आती हैं।
भारतेन्दू ने जब संस्कृत नाटकों के अनुवाद के
साथ-साथ नए नाटकों की रचना आरंभ की थी तब उन्होंने
नाट्य लेखन एवं मंचन को अविच्छिन्न रूप में देखा था,
खुद उन्होंने अपने नाटकों के अनेकों मंचन किये। तब
नाट्य लेखन और मंचन दोनों बराबर महत्त्व रखते थे लेकिन
हिन्दी साहित्य के विकास की धारा में धीरे-धीरे
नाट्य लेखन एक विधा मात्र रह गया।
रंगमंच से ताल्लुक रखते हुए नाटक लिखने वालों में
मोहन राकेश का नाम अग्रिम पंक्ति में है।
लक्ष्मीनारायण लाल, धर्मवीर भारती, सत्यव्रत
सिन्हा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भीष्म साहनी,
स्वदेश दीपक, मन्नू भंडारी, नाग बोडस आदि के नाटकों
ने आज हिन्दी रंगमंच को थोड़ी ऊर्जा दी है परन्तु
इतना बहुत नहीं है। इस सत्य से पीछा नहीं छुड़ाया जा
सकता कि हिन्दी रंगमंच अपनी दरिद्रता को ढंकने के लिए
अनूदित नाटकों, कहानियों, उपन्यासों के नाट्य
रूपान्तरों का मंचन करता रहा है।
हिन्दी रंगमंच के दर्शकों की विश्वसनीयता घटने का एक
कारण यह भी है कि उन्हें अनुवाद या नए नाटक के नाम पर
अंट-शंट कुछ भी दिखाया जाता है। दूसरी महत्त्वपूर्ण
समस्या है - मंचन के समय, उसके स्थान और दर्शकों से
संपर्क न बन पाना। हिन्दी क्षेत्र में दर्शक बनाने की
कोई खास मुहिम नहीं चलाई गई। अधिकांश लोगों को पता ही
नहीं होता कि मंचन कहाँ होते हैं और कितने विकसित
संसाधनों के साथ। अभी भी नाटक देखने के नाम पर लोगों
के दिमाग़ में रामलीला का स्टेज ही याद आता है। तीसरी
समस्या है - फि़ल्म, टेलीविज़न के कार्यक्रमों में
प्रतिस्पर्धा के रूप में रंगमंच को खड़ा करना।
हिन्दी क्षेत्र के दर्शकों में रंगमंच की वास्तविक
संभावनाओं एवं अभिनय के अविरल-अविकल रूप को देखने,
महसूस करने की विकलता का जन्म ही नहीं हो पाया है।
हिन्दी रंगमंच के साथ यदा-कदा ही यह देखने के लिए
मिलेगा कि केवल पोस्टरिंग या अख़बारों में सूचना छपने
से प्रेक्षागृह पूरा भर जाये। साथ ही सामान्यत:
प्रेक्षागृहों में चार-पांच सौ से ज्यादा सीटें नहीं
होतीं। सामान्य नगरों में तो प्रेक्षागृह भी शायद ही
हो और जहाँ प्रेक्षागृह हैं भी तो उनका किराया बहुत
अधिक है - लाइट और साउन्ड का खर्च अतिरिक्त। मान लें
कि एक बार प्रेक्षागृह पूरा भर भी जाये तो दस रुपये
प्रति व्यक्ति टिकट शो करने पर पाँच हजार रुपये ही
इकट्ठा होंगे जबकि दस से पंद्रह कलाकारों वाले
सामान्य से सामान्य संसाधनों वाले नाटक में भी
प्रकाश व्यवस्था, ध्वनि प्रबंध, परिधान,
साज-सज्जा, मंच निर्माण एवं संगीत खरीदने में पंद्रह
से बीस हजार रुपये 'प्रति शो' खर्च होते हैं। यह
ताज्जुब की बात ही है कि नाटकों के मंचन हेतु कोश
कहाँ से आता है। अगर हम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय,
भारतेन्दु नाट्य एकेडमी, श्रीराम सेन्टर या मुम्बई
के नामी-गिरामी रंगमंडलों को छोड़ दें तो बाकी जगहों
पर प्रतिबद्ध लोगों के घर फूँक तमाशा देखने पर ही
रंगमंच टिका है।
मंचन
से पूर्व उसकी तैयारी में व्यस्त किसी
ग़ैरव्यवसायिक नाट्य निर्देशक से मिल लीजिए, तब
स्थितियाँ स्पष्ट हो जायेंगी। सुबह उठे नहीं कि
रिहर्सल का समय हो गया। पहले तो बड़ी मुश्किल से नगरों
में पूर्वाभ्यास की जगह मिल पाती है। आवाजों से
पड़ोसियों को तकलीफ भी तो होती है। पूर्वाभ्यास के ऐन
बीच याद आता है कि कुछ महत्त्वपूर्ण कलाकार अनुपस्थित
हैं। अनुपस्थित भी क्यों नहीं होंगे। उन्हें कोई
वेतन देता है क्या? प्रेक्षागृह की बुकींग के बाद
धीरे-धीरे नाटक मंचन के लिए तैयार हो जाता है और बारी
आती है - टिकट बेचने की। कई नौसिखिए तो टिकट देखते ही
हथियार डाल देते हैं - 'हम ना बेच पाउब'। कुछ हिम्मत
करके दोस्तों के बीच पहुंच जाते हैं पर दोस्त कहते
हैं - 'हमसे भी टिकट का पैसा मांगत अहै'। रंगकर्मी ठगा
सा महसूस करता है। 'पास' लेकर 'शो' देखने की आदी हो गई
है - हिन्दी बिरादरी। वे अपने परिचितों के नाट्य
प्रदर्शन में पैसा खर्च करना बेवकूफ़ी समझते हैं। फिर
क्या करे निर्देशक? वह शहर के बड़े-बड़े
प्रतिष्ठानों, दुकानों पर ब्रोशर के लिए विज्ञापन
बटोरने के लिए हाथ-पाँव मारता है दुकानदार भी यदा-कदा
द्रवित होकर हजार-पाँच सौ रुपये दयाभाव के साथ फेंक
देते हैं और कभी वह भी नहीं। कुछ भारी जेब वाले लोग
चंदा-वंदा में दे देते हैं। इतने से भी मंचन का पूरा
खर्च नहीं जुटा तब बाकी अपने जेब से। इस तरह एक
निर्देशक पूरे साल में किसी तरह एक या दो बार मंचन का
साहस बटोर पाता है और बाकी समय कर्ज़ भरता रहता है।
हिन्दी क्षेत्र में अभी यह स्थिति नहीं आई है कि किसी
नाटक का एक ही शहर के प्रेक्षागृह में लगातार दस-बीस
प्रदर्शन सम्भव हों। प्रस्तुतियों की गुणवत्ता में
कमी इसका बड़ा कारण है कुछ ऐसे लोग भी रंगमंच में घुस
आए हैं जिनका उद्देश्य न तो रंगमंच की प्रतिष्ठा है
और न ही विशाल दर्शक वर्ग तैयार करना। वे सरकारी
अनुदानों की जोड़तोड़ में पारंगत हैं, संस्कृतिकर्म
के लिए व्यय किए जा रहे सरकारी बजट को प्राप्त करने
की चाभी इन्हीं के पास है। इनकी प्राथमिकता किसी तरह
धन हथियाना है। ऐसे लोगों द्वारा रंगमंच के साथ हो रहा
खिलवाड़ और घटिया प्रदर्शन हिन्दी क्षेत्र के दर्शकों
को दिग्भ्रमित व निराश करने का कार्य कर रहा है बेहतर
तो यह हो कि ऐसे अनुदान व प्रतिष्ठान या तो बंद कर
दिए जायें या उसके लिए देशभर के वरिष्ठ, चुनिन्दा
रंगकर्मियों, कलाकारों एवं रचनाकारों के द्वारा लिस्ट
तैयार करायें तत्पश्चात कड़ी देखरेख में उपलब्ध
कराया जाये।
रंगकर्म में चूंकि आर्थिक भविष्य क्षीणतर है इसलिए
सहज ही कोई रंगकर्मी होने के लिए तैयार नहीं होता, और
अगर कोई तैयार होता है तो वही, जो हद दर्जे सिरफिरा हो
या घनघोर कैरियरिस्ट कि रंगकर्म को 'रव वे' बनाकर
'फिल्म-इंडस्ट्री' की ओर भाग खड़ा हो, बीच का कोई
रास्ता नहीं बचता। यही वजह है कि हर शो के बाद आधे
कलाकार नए लेने पड़ते हैं। स्त्री पात्रों की तो
पूछिए ही मत। दो-एक नाटकों में भागीदारी करती हैं - वह
भी काफी अनुरोध के बाद, अभिभावकों के दबाव अलग से
झेलने होते हैं और जब अभिनय क्षमता के विकास के लक्षण
सामने आते हैं तो उनका विवाह हो जाता है - साथ ही सब
कुछ स्वाहा....।
कस्बाई शहरों में तो और भी बुरी स्थिति है। कभी कोई
हिम्मती निर्देशक अपना नाटक मंचित करना चाहता है तब
दर्शकों की चेतना इतनी कम विकसित मिलती है कि या तो
उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता या समझना नहीं चाहते
इसलिए हूटिंग करना, सीटी बजाना उनका धर्म हो जाता है।
अच्छी 'स्क्रिप्ट' न होने की विपन्नता भी रंगमच के
साथ कम घात नहीं कर रही है। बड़े रचनाकारों से उनकी
रचनाओं के मंचन की लिखित अनुमति न लें तो अदालत में
घसीटे जायेंगे और लिखित अनुमति प्राप्त करनी है तो
पारिश्रमिक दीजिए। नतीजा यह होता है कि निर्देशक खुद
ही स्क्रिप्ट तैयार करने की कोशिश करते हैं। बहुधा जब
अच्छी स्क्रिप्ट नहीं बन पाती तब दर्शक नाराज़ होते
हैं।
आज
हिन्दी रंगमंच महानगरों में सांस ले रहा है और छोटे
शहरों या गांवों में लोकरंगमंच के सहारे उपस्थित मात्र
है। मंचन के पीछे की सारी पीड़ाओं से अगर किसी को एक
साथ गुज़रना पड़े तो वह घनघोर हताशा से घिर जायेगा।
उसे लगेगा कि आग की लपटों में वह पूरी तरह से घिर चुका
है। इतने कठिन काल में भी हिन्दी रंगकर्म बंद नहीं
हुआ है, अनवरत हो रहा है। कुछ लोग थक रहे हैं अगर, तब
नए रंगकर्मियों का जोश उन्हें उबार ले रहा है। बस एक
दु:ख है कि हिन्दी के साहित्यकार गफ़लत में रहने की
आदत अब तक नहीं छोड़ेंगे। उनके एजेन्डे में हिन्दी
क्षेत्र में पाठक और दर्शक गढ़ने की चिन्ता कब आएगी।
साथ ही रंगकर्मियों से भी प्रश्न करना उचित होगा कि
कब तक वे अपनी बेहतरी और महान कलाकार होने का डंका
पीटते रहेंगे। जब तक सभी रंगकर्मियों में संवाद नहीं
होगा और वे एकजुट होकर अपने उद्देश्यों पर आम सहमति
नहीं बनायेंगे - हिन्दी रंगकर्म एक मजबूत माध्यम
होने का सिर्फ दिखावा करता रहेगा।
२ अगस्त २०१० |