देवेंद्र राज अंकुर की
स्थापनाओं से सहमत-असहमत हुआ जा सकता है, पर रंगमंच को
लेकर उनकी चिंता, रचनात्मक विमर्श के लिए उनकी
उत्सुकता और हिंदी रंगमंच के लिए बौद्धिक पर्यावरण
रचने की उनकी ललक को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
अंकुर जब अपनी रंगपरंपरा को विश्लेषित कर रहे होते हैं
या फिर अपनी रंगपरंपरा के भीतर बहुत गहरे उतरकर अपने
समय और अपने समाज के रंगमंच के लिए उत्प्रेरक तत्त्वों
को ढूँढ़ रहे होते हैं- सर्वाधिक बेचैन दिखाई पड़ते
हैं। उनकी यह बेचैनी ही उन्हें उत्सुक और जिज्ञासु
बनाती है। इसी क्रम में वह बार-बार हर उस रंगरूढ़ि को
परखने की कोशिश करते हैं, जिसने समय का अंतराल पाटते
हुए हमारे समकालीन रंगमंच तक की यात्रा तय की है। इस
प्रक्रिया से गुज़रते हुए वह कोशिश करते हैं कि उनकी
सजगता और तर्क बुद्धि किसी भावनात्मक आवेग का शिकार न
बन जाए। 'भरत की लोकधर्मिता' पर चर्चा करते हुए अंकुर
लोकधर्मिता और नाट्यधर्मिता के फ़र्क को लेकर
नाट्यचिंतकों के बीच चले आ रहे मतभेदों को सामने रखते
हैं और लोकधर्मिता की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
नाट्यधर्मिता को लेकर कहीं कोई विवाद नहीं है। अंकुर
भी मानते हैं-
''...एक ऐसी शैली जो अपने रूपायन में निश्चित नियमों,
रूढ़ियों और व्याकरण पर आधारित हो जिसे निरंतर अभ्यास
और परिश्रम से अर्जित करना पडे और इस प्रक्रिया में
धीरे-धीरे वह अपना एक शास्त्रीय स्वरूप प्राप्त कर ले
ताकि परवर्ती युगों में भी रंगकर्मी उसको अपने प्रयोग
में ला सकें।'' भरत की लोकधर्मिता को वह भरत मौलिक
अवधारणा मानते हैं। अंकुर लिखते हैं- यह अवधारणा विश्व
रंगमंच के संदर्भ में भी अत्यंत मौलिक परिकल्पना है और
अब तक के लिखे गए रंग-इतिहास को झुठला देती है। यह
अवधारणा है नाट्यधर्मी के समानांतर लोकधर्मी के रूप
में एक ऐसी प्रस्तुति-शैली की ओर संकेत करना जो अपने
मूल स्वरूप, स्वभाव और प्रकृति में यथार्थवादी हो। यदि
यथार्थवादी शब्द बहुत ही आज का, आधुनिक और समकालीन
लगता है तो सुविधा के लिए सहज, सरल अथवा स्वाभाविक
शैली जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है।
अंग्रेज़ी के 'फोक'
के अनुवाद के रूप में लोक को स्वीकारने की भूल अक्सरही
होती रही है। भरत की लोकधर्मिता को समझने के क्रम में
भी यह ग़लती दुहराई गई है। भरत की लोकधर्मिता को समझने
के लिए लोक की व्यापकता को समझना होगा और भारतीय
संदर्भों में उसकी अर्थछवियों की तलाश करनी होगी। भरत
की लोकधर्मी प्रस्तुति शैली का आधार लोक के स्वभाव,
प्रकृति और व्यवहार की रंगमंच पर पुनर्रचना है। अंकुर
इस लोकधर्मिता को यथार्थवाद का पर्याय मानते हैं। इसे
वह पश्चिम से आए यथार्थवाद की नकल नहीं मानते। उनका यह
मानना है कि इब्सन और चेखव से सैंकड़ों वर्ष पूर्व
भारतीय रंग परंपरा में यथार्थवाद ठोस रूप में उपलब्ध
है। नाट्यधर्मिता को वह लोकधर्मिता से 'आगे की स्थिति'
मानते हैं। शैलीबद्ध रंगकर्मी यानी रंगमंच की शैलियों
को वह नाट्यधर्मी श्रेणी में रखते हैं। दोनों को
एक-दूसरे का पूरक मानते हुए अंकुर यह रेखांकित करते
हैं कि ''लोकनाटक और नाट्यधर्मी प्रस्तुति शैली में
कोई विरोध नहीं है।''
अपनी नाट्य परंपरा से
टकराने का रचनात्मक दबाव देवेंद्र राज अंकुर के लेखन
एवं चिंतन में साफ-साफ झलकता है। इस क्रम में वह भरत
और उनके नाट्यशास्त्र से लगातार टकराते हैं। इस टकराव
से उत्पन्न ध्वनियाँ उनके चिंतन की अनुगूँज बनती हैं।
वह नाट्यशास्त्र की ऐसी व्याख्या प्रस्तुत करना चाहते
हैं जो समकालीन रंगमंच और रंगकर्मियों के लिए ग्राह्य
हो। 'दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज' की प्रक्रिया में वह
नाट्यशास्त्र की मिथकीय उत्पत्ति तक की व्याख्या
प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। उन्हें लगता है कि
नाट्यशास्त्र की रचना से पूर्व हमारा रंगमंच विकास के
शिखर पर पहुँचकर पतनोन्मुख हुआ होगा और तब भरत ने
रंगमंच को अनुशासन देने के लिए इस शास्त्र की रचना की
होगी। इसकी पुष्टि के लिए वह 'दशरूपक' जैसे नाट्यविधान
को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत करते हैं। भरत द्वारा
प्रतिपादित रंगप्रविधियों, मंच विधान या अभिनय
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए अक्सर कुछ रंग
चिंतक
या प्राध्यापक अपने ज्ञान का आतंक फैलाकर जटिलताएँ
पैदा करते हैं जबकि अंकुर बिना किसी पूर्वाग्रह के
अपने रंगमंच के लिए नए अर्थ खोजते हुए नज़र आते हैं।
भरत के अलावा
भारतेंदु और प्रसाद की रंग अवधारणाओं और रंगचिंतन के
प्रति अंकुर के मन में गहरी ललक है। वह इन दोनों से
अधिकाधिक ग्रहण करने के पक्षधर हैं। भारतेंदु के लेख
'नाटक अथवा दृश्य-काव्य सिद्धांत विवेचन' को वह अपनी
विवेचना का केंद्र बनाकर इस बात की पुरज़ोर वकालत करते
हैं कि... ''आज के भारतीय रंगमंच में जिस प्रकार से
प्राचीन और आधुनिक पूर्वी और पश्चिमी नाट्य-परंपराओं
और रंगशैलियों के आपसी मेलजोल से जिस नए, ताज़े भारतीय
रंगमंच की खोज का काम पूरे ज़ोर-शोर से किया जा रहा
है, उसकी ठोस ज़मीन भारतेंदु अपने इस निबंध के माध्यम
से आज से एक सौ अट्ठारह वर्ष पूर्व ही तैयार कर देते
हैं।'' प्रसाद के रंगचिंतन से देवेंद्र राज अंकुर
आलोचनात्मक विवेक ग्रहण करते हैं। भाषा के विकास में
नाटक की भूमिका भारतेंदु के नाटकों से यथार्थ के
रिश्ते, कला की अवधारणा को लेकर भारतीय और पाश्चात्य
दृष्टि के मौलिक अंतर तथा रस की अवधारणा जैसे मुद्दों
पर प्रसाद के चिंतन को विश्लेषित करते हुए अंकुर
समकालीन रंगमंच के लिए कई नए विचार-सूत्र सौंपते हैं।
प्रसाद द्वारा
संस्कृत नाटकों के वाचिक और आंगिक पक्ष को अनदेखा करने
जैसे मुद्दों पर वह अपनी गहरी असहमति भी प्रकट करते
हैं। असहमतियों के साथ प्रसाद के प्रति उनकी उत्सुकता
ठीक वैसे ही प्रभावित करती है जैसे, भारतेंदु के
अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए उनके सकारात्मक तर्क
प्रभावित करते हैं।
'साहित्य और रंगमंच
में दूरी का सवाल' पर चर्चा करते हुए देवेंद्र राज
अंकुर की दुविधा साफ-साफ झलकती है। वह साहित्य से
रंगमंच के ज़रूरी रिश्ते को स्वीकार करते हुए ही बात
शुरू करते हैं और इस रिश्ते के सघन होने की पुष्टि
करते हुए कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। पर वह
समकालीन हिंदी रंगमंच के वर्तमान परिदृश्य पर मची हुई
अफरा-तफरी या अराजकता का ज़िक्र करने में जाने क्यों
संकोच कर जाते हैं। अगर समकालीन हिंदी रंगमंच का
रिश्ता साहित्य से उतना गहरा होता, जितना होना चाहिए,
तो शायद अफरा-तफरी नहीं मची होती। रंगमंच की
नाट्य-धर्मिता को विवेक और लोकधर्मिता का संवेदना से
पूरित करने के लिए साहित्य सबसे संपन्न स्रोत हो सकता
है, जिसकी आज के रंगमंच को सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
स्वयं देवेंद्र राज अंकुर का 'कहानी का रंगमंच' इसका
ठोस प्रमाण है कि कहानियों के मंचन से हिंदी रंगमंच को
कई नई रंग-युक्तियाँ और नई रंग-भाषा मिली है।
नाटकों के साहित्यिक
मूल्य और रंग-मूल्य को लेकर बातचीत करते हुए देवेंद्र
राज अंकुर बेहद साफगोई से तथ्यों को सामने रखते हैं।
यह सच है कि नाटकों के साहित्यिक मूल्य को ही उनकी
आलोचना का आधार बनाया जाता रहा है। दूसरी तरफ़ कई
नाट्यलेखों के मात्र सफल मंचन को आधार मानकर ही उन्हें
नाट्य साहित्य में स्थापित करने के प्रयास हुए हैं।
हालाँकि मंचन की सफलता के अन्य कारण रहे हैं।
नाट्यालोचना की ये
दोनों पद्धतियाँ दोषपूर्ण हैं। भ्रमित करने वाली ऐसी
आलोचना से ही प्रसाद की नाट्य-कृतियों के प्रति ग़लत
धारणा लंबे समय तक बनी रही। इन नाटकों के साहित्यिक
मूल्य को स्वीकार तो किया गया, पर इनके रंग-मूल्यों की
पड़ताल और विवेचना नहीं की जा सकी। इनकी तब तक उपेक्षा
की गई, जब तक कारंत जैसे रंगकर्मी ने इनका सफल मंचन
नहीं किया। कुछ ऐसे नाटक, जो सिर्फ़ अभिनेताओं की
अभिनय क्षमता या निर्देशकों की जादूगरी के बल पर सफल
मंचन से लोकप्रिय हुए, अच्छे नाटकों की सूची में स्थान
पा गए। नाटकों की आलोचना के उपकरण वही नहीं हो सकते,
जो कविता, कहानी या उपन्यास की आलोचना के हों। नाटक की
यात्रा अपेक्षाकृत लंबी होती है। उसे पूर्णता प्राप्त
करने के लिए आलेख से प्रस्तुति तक की यात्रा करनी
पड़ती है। उसका अंतिम रूप हर प्रदर्शन में अलग हो सकता
है। अंकुर कहते हैं, ''जहाँ अपने लिखित रूप में
साहित्य की अन्य विधाएँ अपनी पूर्णता प्राप्त कर लेती
हैं, वहाँ नाटक के लिए उसका लिखित रूप एक कच्चे माल की
तरह से है, जहाँ से अपने अंतिम स्वरूप तक पहुँचने की
उसकी यात्रा शुरू होती है और एक निश्चित और अंतिम
परिणति तक तो कभी भी नहीं पहुँच पाती। यह दोहरी यात्रा
नाटक की एक ऐसी निजी संपत्ति है, जो साहित्य की किसी
विधा में तो क्या, किसी दूसरी कला और माध्यम में भी
नहीं मिलती।''
अंकुर एक ऐसी रंग
आलोचना को विकसित करने के पक्षधर हैं, जहाँ नाटक के
साहित्यिक और रंग -दोनों पक्ष उजागर हो सकें। इसके लिए
वह नाटकों की रंगभाषा का एक ज़रूरी उपकरण की तरह उपयोग
करना चाहते हैं। इस रंग-भाषा को वह उस नाटक के प्रदर्शन
की संभावना के भीतर छिपा हुआ देखते हैं। समर्थ रंग
आलोचना की पद्धतियों के विकास के प्रति देवेंद्र राज
अंकुर की उत्सुकता समकालीन रंगमंच के लिए एक शुभ संकेत
है।
''नाटक और रंगमंच दो
ऐसे अनिवार्य तत्व हैं जिनके सामने कोई भी संचार
माध्यम अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद कोई मायने नहीं
रखता। और वह है नाटक का शब्द और उसको बोलने वाला एक
जीवंत अभिनेता। जब तक मंच पर इन दोनों तत्वों की
उपस्थिति बराबर बनी रहेगी तब तक रंगमंच जैसे माध्यम के
भावी स्वरूप को लेकर ऊहापोह में पड़ने की ज़रूरत नहीं
है।'' अंकुर का यह कथन रंगमंच के प्रति उनकी गहन आस्था
को रेखांकित ही नहीं करता बल्कि, इस तरफ़ भी संकेत
करता है कि नाट्यालेख के शब्द और अभिनेता दोनों मिलकर
रंगमंच बनाते हैं, जिसका दूसरा पक्ष दर्शक होते हैं।
रंगमंच की दुनिया के समाप्त होने का खतरा सूँघने वाले
ज्ञानियों को अंकुर की यह आस्था चुनौती देती है।
देवेंद्र राज अंकुर की रंग अवधारणाएँ मात्र बौद्धिक
विलास नहीं है बल्कि, अपने सहज अंतर्विरोधियों के साथ
अनुभवजनित साक्ष्यों पर आधारित हैं। उनका रंग चिंतन
उनके रंगकर्म के गर्भ से उपजा है।
२ फरवरी
२००९ |