| क्या 
                            वे अभिनेता-निर्देशक को पर्याप्त स्वतंत्रता नहीं देना 
                            चाहते? क्या वे 'इंप्रोवाइजेशन' के महत्व से अनभिज्ञ 
                            हैं? क्या वे दर्शकों के मनोविज्ञान से परिचित नहीं 
                            हैं? क्या वे देश-काल की समस्याओं में कोई रुचि नहीं 
                            देखते? क्या उन्होंने दुनिया के अच्छे नाटक नहीं पढ़े 
                            हैं? क्या उन्होंने अपनी 
                            ज़िंदगी में कोई ढंग का नाट्य प्रदर्शन नहीं देखा? अगर 
                            बड़बोलापन न समझा जाए तो कम-से-कम पचास नाटक इसी समय 
                            गिनाए जा सकते हैं, जो अच्छे भी हैं, अभिनेय भी, 
                            निर्देशक की कल्पना को आकाश देनेवाले भी और देश-काल के 
                            ज्वलंत प्रश्नों से जूझनेवाले भी। और यहाँ सेठ 
                            गोविंददास, उपेंद्रनाथ 'अश्क', हरिकृष्ण प्रेमी या 
                            रामकुमार वर्मा की बात नहीं की जा रही है। मोहन राकेश, 
                            भीष्म साहनी, मुद्राराक्षस, दूधनाथ सिंह, मणि मधुकर, 
                            असगर वजाहत, स्वदेश दीपक, हमीदुल्ला, रमेश उपाध्याय, 
                            भानु भारती और राजेश जोशी आदि की बात की जा रही है। 
                            क्या इनके नाटक ढंग से खेले गए? क्या इन्हें उचित 
                            सम्मान और सराहना मिली? क्यों ये लोग किसी रंग मंडली 
                            के साथ स्थायी रूप से नहीं जुड़ पाए? क्यों ये लोग 
                            दो-चार नाटक लिखकर नाट्यकर्म से विरत हो गए? मंच पर 
                            अंधेरा किसकी वजह से है? जब 
                            कहा जाता है कि हिंदी में अच्छे नाटक नहीं हैं तो पूछा 
                            जाना चाहिए कि क्या हिंदी नाटक की किसी को ज़रूरत भी 
                            है? क्या हिंदी में नाटक के प्रकाशक हैं? क्या हिंदी 
                            रंगकर्मी आज तक किसी नाटककार के पास गया कि आप मेरे 
                            लिए एक नाटक लिख दीजिए? क्या नाटक मिलने पर भी उसने 
                            उसे नाटक माना? या मात्र नाट्य आलेख जिसे नाटक वह 
                            बनाएगा? क्या उसके प्रदर्शन तक आते-आते इस तथाकथित 
                            नाट्य आलेख की भी आत्मा सुरक्षित रखी गई? क्या इसके 
                            प्रदर्शनों में नाटककार को उचित श्रेय और सम्मान दिया 
                            गया? रॉयल्टी की तो छोड़िए, क्या उसके नाटकों के मंचन 
                            के लिए उससे अनुमति भी ली गई? क्या उसे मंचन के बारे 
                            में सूचित तक करना ज़रूरी समझा गया? क्या उसे नाटक के 
                            पूर्वाभ्यास में बुलाया गया? क्या उसके सुझावों को कोई 
                            भी, कैसा भी महत्व दिया गया? तब लेखक की क्या मजबूरी 
                            है कि वह नाटक लिखे? जब 
                            भी कोई लेखक नाटक लिखेगा वह अपनी कल्पना, अपने विजन, 
                            अपनी विचारधारा औऱ अपनी समझ के हिसाब से लिखेगा। जब भी 
                            कोई रंगकर्मी या नाट्य-निर्देशक इस नाटक को पढ़ेगा, वह 
                            इसमें अपनी कल्पना, अपना विजन, अपनी विचारधारा और अपनी 
                            समझ ढूँढ़ना चाहेगा, जो कि उसे नहीं मिलेगी। इस सूरत 
                            में समझदारी का तकाज़ा यह होगा कि निर्देशक को यदि 
                            नाटक की मूल परिकल्पना अनुकूल लगी हो तो वह लेखक को 
                            आमंत्रित करे या स्वयं उसके पास जाए और मंचन के 
                            व्याकरण की दृष्टि से दोनों में या समूह में परस्पर 
                            विचार-विमर्श हो। लेकिन इसकी अनिवार्य शर्त यह है कि 
                            किसी का अहंकार इसमें आड़े नहीं आए- और बस, यही नहीं 
                            हो पाता। यहाँ 
                            यह महत्वपूर्ण सवाल है कि रंगमंच किसका माध्यम है? 
                            निर्देशक का, अभिनेता का या नाटककार का?एक समय था जब हर नाट्यमंडली के पास अपना एक नाटककार 
                            होता था और वह नाट्यलेखन के नाटकपाठ, पूर्वाभ्यास, 
                            मंचन, पुनर्मंचन और पुनर्पुनर्मंचन तक की पूरी 
                            प्रक्रिया से जुड़ा रहता था। यही आदर्श स्थिति भी है। 
                            क्योंकि नाटक अनिवार्यतः एक सामूहिक लेखन ही है। 
                            दुनिया के तमाम अच्छे नाटक इसी तरह बने हैं। लेकिन हम 
                            याद रखें कि इस हालात में नाटककार की हैसियत एक मुंशी 
                            से ज़्यादा कुछ नहीं होती थी। इसलिए कई बार तो इन 
                            नाटकों के आलेख तक सुरक्षित नहीं रह पाते थे और बाद 
                            में स्मृति से तैयार किए जाते थे।
 क्या आज का नाटककार मुंशी की भूमिका स्वीकार करने को 
                            तैयार है?
 
                            नहीं। और इसकी ज़रूरत भी नहीं है। यदि बुनियादी तौर पर 
                            नाटक के 'विचार' और 'संदेश' पर सहमति हो तो नाटककार 
                            रंगकर्मियों को व्याकरण संबंधी बहुत सारी छूट देने के 
                            लिए हमेशा तैयार रहता है।तब क्या निर्देशक के विचार ही इस गठबंधन के आड़े आ रहे 
                            हैं?
 
                            हिंदी में व्यावसायिक रंगमंच नहीं है। होगा- इसकी आशा 
                            भी दुष्कर है। ग़ैर-पेशेवर नाटकों में कमाई का कोई 
                            ज़रिया नहीं है। लेकिन उसके महत्व से इनकार नहीं किया 
                            जा सकता। विशेषकर बच्चों के रंगमंच और शिक्षा प्रविधि 
                            में नाटक के सार्थक इस्तेमाल के बाद तो इसके महत्व को 
                            नकारना हठधर्मिता ही होगी। लेकिन किसी भी दिशा से इसे 
                            पूरने का कोई प्रयास भी होता नज़र नहीं आ रहा है तो 
                            क्यों? 
                            इसलिए कि रंगकर्मी सोचता है कि नाटक लिखने में है 
                            क्या? वह खुद लिख लेगा, और नाटककार से अच्छा। क्योंकि 
                            रंगमंच के बारे में नाटककार क्या समझता है? मुझे तो 
                            इतने वर्षों का अनुभव है। यह दर्पोक्ति आप किसी भी 
                            निर्देशक के मुँह से सुन सकते हैं। लेकिन सच यह है कि 
                            इसके बावजूद आज तक कोई निर्देशक न नाटककार बन पाया, न 
                            कोई रंगमंडली अपना नाटककार पैदा कर पाई। 
                            विकल्प? विदेशी नाटकों के हिंदी रूपांतर। विकल्प? 
                            ऑफ-ऑफ ब्रॉ़डवे की शरण। विकल्प? जयशंकर प्रसाद और 
                            भारतेंदु। विकल्प? कहानियाँ-कविताओं का मंचीय 
                            प्रस्तुतिकरण। विकल्प? लोकप्रिय फ़िल्म अभिनेताओं 
                            द्वारा मंच पर कहानी पाठ।अब? अब हिंदी नाटक की किसे ज़रूरत है?
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                            शुरुआत इसकी हुई दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय 
                            (रानावि) का स्थापना से। मान लिया गया कि देश भर से 
                            चुनिंदा और होनहार प्रशिक्षु यहाँ आकर रंगमंच की 
                            अधुनातन प्रवृत्तियों का रचनात्मक प्रशिक्षण प्राप्त 
                            करेंगे और आधुनिक नाट्य विद्या में पारंगत होने के 
                            पश्चात अपने-अपने प्रांतों में जाकर रंगकर्मियों को 
                            प्रशिक्षित करेंगे और रंग चेतना फैलाएँगे। तो इस योजना 
                            में ग़लत क्या था? इस योजना में यह ग़लत था कि देश भर 
                            के लोक- ग़ैर पेशेवर-पेशेवर-पारंपारिक रंगकर्मियों को 
                            सिखाना-ही-सिखाना था। उनसे कुछ सीखना नहीं था। उनका 
                            कुछ अच्छा भी लगे तो अपनी सुविधानुसार बगैर आभार 
                            व्यक्त किए उठा लेना था। बस, सारे देश के रंगकर्म का 
                            मिज़ाज़ दिल्ली को ही तय करना था। एकदम औपनिवेशिक 
                            मानसिकता! 
                            परिणाम? आधुनिक रंग विधान, आधुनिक मंच सज्जा, आधुनिक 
                            प्रकाशव्यवस्था, आधुनिक भावाभिव्यक्ति, आधुनिक कथ्य, 
                            आधुनिक रंगमंचीय व्याकरण सब आ गया, लेकिन पश्चिम के 
                            अनुकरण में, 'रॉयल' के पैटर्न पर, प्रोसीनियम थिएटर के 
                            अंदाज़ में। इसमें भारतीय रंगकर्मी दीक्षित-प्रशिक्षित 
                            हुए- बहुत अच्छा हुआ, लेकिन इसे महानगरों से आगे ले 
                            जाया ही नहीं जा सकता था। इसे देश के छोटे-छोटे हलकों 
                            और अपने-अपने इलाकों तक उतारा नहीं जा सकता था, 
                            क्योंकि ये नए शास्त्री अब अपने सिवा सबको मूर्ख समझने 
                            लगे, जिन्हें थिएटर ये सिखाएँगे। और 
                            इससे हिंदी रंगमंच और नाटक का एक बहुत ही बड़ा नुकसान 
                            यह हुआ कि इसने हिंदी रंगमंच को भव्यता और आभिजात्य की 
                            चमकीली पन्नी में लपेट दिया और चुटकी भर होनहारों को 
                            दीक्षा देने के क्रम में देश की बहुसंख्यक छोटी और 
                            दूरस्थ जगहों के नाटककारों-रंगकर्मियों को एलिमनेट 
                            करने का काम भी किया। वैधता दिल्ली प्रदान करती है। 
                            बाकी सब- जिन पर दिल्ली का मोहर नहीं है- अवैध हैं। 
                            संयोग से तभी टेलीविजन आ गया और रानावि के छात्रों की 
                            एक ही मंज़िल हो गई- टेलीविजन और संभव हो तो फिर 
                            फ़िल्म। यानी मुंबई। जिन रानावि छात्रों ने पहले मुंबई 
                            में कदम जमा लिए, उन्होंने दिल्ली आकर वहाँ के ऐसे-ऐसे 
                            किस्से सुनाए कि किसी के मन में संशय की कोई गुंजाइश 
                            ही नहीं बची। अब किसी को जीवन भर थिएटर नहीं करना था। 
                            अब सबको मुंबई जाकर कुछ कर दिखाना था। अब 
                            तो हिंदी नाटक का ज़रूरत एकदम ही ख़त्म हो गई। क्योंकि 
                            मुंबई जाकर अगर आप कहते प्रेमचंद, तो वे कहते बुलाओ 
                            प्रेमचंद को। अकेली दिल्ली कितने नाटक झेलती? इसलिए 
                            प्रॉडक्शन महँगे होने लगे और दर्शक गायब। पता चला कि 
                            पचास हज़ार के प्रॉ़डक्शन में पचास दर्शक भी नहीं हैं। 
                            और फिर धीरे-धीरे यह नौबत आ गई कि नाटक के लिए दर्शक 
                            नहीं, प्रायोजक ढूँढे जाने लगे। इसी सबके प्रतिवाद 
                            में खड़ा हुआ नुक्कड़ नाटक और उसका समूह लेखन।लेकिन रंगमंच? हिंदी रंगमंच? हिंदी नाटक?
 मंच पर अंधेरा है और सन्नाटा। क्या अंधेरे और सन्नाटे 
                            का कोई भविष्य है?
 
                            २६ 
                            अक्तूबर २००९ |