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 युवक 
– नमस्कार, सलाम गुड मॉर्निग दोस्तों, मैं डी डी माफ़ कीजिए धनादेश या डिमाँड 
ड्राफ़्ट नहीं, मेरा मतलब है धनेश देसाई एम कॉम, एलएल.बी, उम्र पच्चीस साल, कद– पाँच 
फुट ग्यारह इंच, वजन– सत्तर के जी, रंग– गोरा, कार्य अनुभव– नहीं, व्यवसाय यानि 
काम– बेरोज़गार याने नौकरी तलाश करना। सॉरी दोस्तों मेरी इन सब बातों से आप लोगों को 
शायद ऐसा लगने लगा होगा कि मैं यहाँ अपना सी वी पढ़ रहा हूँ या इंटरव्यू दे रहा हूँ। 
 लेकिन दोस्तों मेरा ये मक़सद नहीं है, बल्कि मेरा मक़सद है आप लोगों को अपनी आपबीती 
सुनाना, अपने चंद अनुभवों को आपके साथ बाँटना।
 
 मुंबई और दुबई में उतना ही फ़र्क है जितना कि मु और दु में। शब्दकोश के अनुसार 'दु' 
शब्द पहले आता है और 'मु' बाद में। चलिए तो शुरु करते हैं दुबई से।
 
 दुबई – सिटी ऑफ गोल्ड, पर्ल ऑफ गल्फ़, यू ए ई की व्यवसायिक राजधानी– ऐसे अनेक नाम इस 
शहर को बहाल किए गए हैं। भारतभर में शायद ही ऐसा कोई युवक होगा जिसने दुबई आने का 
सपना न देखा हो या मौका मिलने पर वो दुबई आना नहीं चाहता हो। हम भारतवासियों का तो 
यही मानना है कि साहब दुबई में पैसा पेड़ों पर उगता है, बस हाथ 
बढ़ाया, तोड़ लिया और इस्तेमाल कर लिया।
 
 लंबी और चौड़ी सड़कें, सुनहरे चौक, चौंका देनेवाले पुल, गगनचुंबी इमारतें, सोने हीरे 
मोतियों की चमक–दमक, अत्याधुनिक अस्पताल, शॉपिंग मॉल्स, सिनेमाघर और समुंदर के 
किनारे। लेकिन इन सबसे बढ़कर है यहाँ का शांतिपूर्ण वातावरण। न रेलगाड़ियों की आवाज़, 
न बसों की लंबी कतारें, न मोर्चे न आंदोलन, न चोर–जेबकतरों का डर, न भीड़–भाड़, न 
धक्का–बुक्की – अनुशासनबद्ध सामान्य जन। दुबई की विशेषताओं की गिनती यहाँ ख़त्म नहीं 
होती मगर समय के अभाव के कारण मैं अब सीधा 
मुख्य मुद्दे पर आ जाता हूँ।
 
 हाँ, तो दोस्तों, अपनी बात चल रही थी नौकरी–व्यवसाय की। दुबई आने का मेरा मुख्य 
उद्देश्य तो यही था– नौकरी हासिल करना– एक अच्छी नौकरी– मतलब अच्छी पोज़ीशन स्टेटस 
वाली नौकरी, अच्छी तनखा वाली नौकरी। खूबियाँ होने के बावजूद अपने देश में एक अच्छी 
नौकरी हासिल करना मेरे लिए आसमान से तारे तोड़ लाने के बराबर था। मेरे परिवार में 
माता–पिता, भाई–भाभी और एक छोटी बहन शामिल हैं। बाबूजी रेलवे में नौकरी करते थे, अब 
सेवानिवृत्त हो चुके हैं। भैया एक फ़ाइनेंस कंपनी में क्लर्क हैं। भाभी और माँ घरेलू 
महिलाएँ हैं। दोनों कढाई–बुनाई या कभी–कभार केटरिंग भी कर लेती हैं। बहन पढ़ाई–लिखाई 
में बहुत होशियार है, पच्चीस साल की हो चुकी है मगर सी ए फ़ाइनल के एग्ज़ैम में ११ 
बार फेल हो चुकी है। घरवाले उसे पढ़ाने पर ज़ोर देते हैं मगर उससे नौकरी कराने की कोई 
उम्मीद नहीं रखते। अच्छा–सा लड़का अगर मिल जाए 
तो उसके हाथ पीले करा दूँ – सबसे कहते रहते हैं। मुझसे काफ़ी उम्मीदें लगाए बैठे हैं 
सबके सब।
 
 दफ़्तरों के चक्कर लगाते–लगाते मैं ऊब गया था, थक गया था। जहाँ देखो वहाँ नो वेकेंसी 
की तख्.ती या फिर एप्लिकेशन भेजने पर नकारात्मक जवाब– आपका आवेदन मिला लेकिन खेद के 
साथ सूचित करना पड़ रहा है कि रिक्त स्थान की पूर्ति पहले ही हो चुकी है। इंटरव्यू 
में गया तो – आप इस पद के उपयुक्त नहीं है, आपके पास पर्याप्त अनुभव नहीं है . . . 
वगैरह–वगैरह। सच पूछिए तो तंग आ गया था मैं ये सब सुनते–पढ़ते। ज्योतिषियों को 
जनम–कुंडली दिखाई, कतारों में खड़े–खड़े पाँवों 
में बिवाई पड़ गई, झुके–झुके दिन का सूरज डूबा, हरेक सुबह शाम बन गई, उम्मीद हर 
नाउम्मेदी लाई।
 
 कहते हैं ईश्वर की गति ईश्वर ही जाने, ईश्वर के दरबार में देर है पर अंधेर नहीं और 
अचानक एक दिन अंधेरी स्टेशन पर पुल पार करते वक्त – के के – मेरा पुराना दोस्त मुझे 
मिला। के के का पूरा नाम– कमल खन्ना। एन एम कॉलेज में एक साथ ही पढ़ते थे दोनों। कमल 
आउटगोइंग था, देखने में सुंदर कद का ऊँचा सुडौल शरीर। पढ़ाई में भले ही कमज़ोर था पर 
खेल–कूद डान्स– ड्रामा आदि में चैंपियन। कमल खन्ना के पितामह इंडस्ट्रियलिस्ट थे। 
बडे. बाप का बड़ा बेटा केके – 'अबे डीडी तू', मुझे देखते ही खुशी से झूम उठा। 'क्या 
करता है आजकल? नौकरी ढूंढ़ रहा है? वो भी यहाँ? इंडिया में? अरे आजकल इंडिया में 
रहता कौन है? अब मुझे ही देख ले, पापा को गुज़रे तीन साल हो गए। धंधे में करोड़ों 
रुपयों के नुकसान की ख़बर सुनते ही स्वर्ग सिधार गए। अरे तू तो जानता है मैं उनका 
इकलौता बेटा हूँ। कर्ज़दारों से पिंड छुड़ाते–छुड़ाते अरे मेरी तो हवा निकल गई थी। 
लेकिन कहते हैं न कि हिम्मत के हिमायती राम। हिम्मत किए बिना कुछ नहीं मिलता। शादी 
का प्रपोज़ल आया और मैंने तुरंत हाँ कर दी। कालिंदी से मेरी शादी हो गई। उसके पापा 
आबूधाबी में नौकरी कर रहे थे, उन्होंने मेरे 
लिए दुबई में एक नौकरी का इंतज़ाम कर दिया और मैं पहुँच गया दुबई। गज़ब का शहर है 
यार।'
 
 'क्या कह रहा है तू? तू और दुबई में?' मैंने पूछा। 'हाँ यार, दुबई में। चार हज़ार 
दिरहम की नौकरी, फ़ैमिली अकोमोडेशन, कंपनी की फ़ोर व्हील ड्राइव – ऐश कर रहा हूँ यार। 
एक महीने की छुट्टियों पर आया हूँ यहाँ। बस दो दिन बाद वापस जा रहा हूँ। घर में सब 
कैसे हैं?' उसने पूछा।
 'बस ठीक ही हैं।' मैंने कहा।
 'क्या मतलब?' उसने पूछा।
 'क्या बताऊँ? मुझे नौकरी न मिलने की वजह से घर में सब परेशान हैं। बाबूजी रिटायर हो 
चुके हैं और भैया की आमदनी में सबका गुज़ारा मुश्किल से होता है। फ्लैट का किराया, 
बिजली–पानी, राशन इत्यादि का खर्चा उठाना कठिन हो गया है। पता नहीं कब मुझे अच्छी 
नौकरी मिलेगी और घर के हालात सुधरेंगे।' मैं उदास होकर बात कर रहा था। मेरी उदासी 
की वजह वह जल्दी भाँप गया।
 
 'मैं तेरे लिए दुबई में ट्राय करुँ? तेरी पासपोर्ट कॉपी और सीवी घर आकर दे जाना। घर 
का पता तो याद है ना?' उसने बड़े प्यार से पूछा। मैंने हामी भर दी।
 'ठीक है तो कल मिलते हैं – पक्का आज ज़रा जल्दी में हूँ। माफ़ करना यार।' कहकर वो कब 
चला गया इस बात का मुझे पता तब चला जब 'सेंग गरमा–गरम सेंग ले लो' मूँगफल्ली 
बेचनेवाला आकर मुझसे टकराया।
 
 मैं सोच रहा था अँधेरे के पाँव नहीं होते। अँधेरा उजाले का आँचल थामकर चलता है। 
मेरे मन को मैं समझा रहा था – मत निराश हो, फिर फूल खिलेगा, सूरज उगेगा, फिर दीप 
जलेगा और अंधेरा ढलेगा।
 •••
 
 मैं घर गया। किसीसे कुछ न कहा। परदेस जाने 
का मतलब था खर्चे को आमंत्रण देना। बाबूजी और भैया की बात चल रही थी निरुपमा (मेरी 
बहन) की शादी कराने की। दहेज नहीं हो ना सही लेकिन शादी के दूसरे खर्च करने के तो 
रुपए होने चाहिए जेब में। यहाँ तो कंगाली छाई हुई है और अपना छोटू (यानि मैं) 
नालायक निकम्मा ना काम का ना काज का, दुश्मन अनाज का। भाभी रो रही थी – 'देखना 
बाबूजी एक दिन वही लायक साबित होगा।' माँ कह रही थी – 'पता नहीं वो दिन कब आएगा मैं 
तो उम्मीद खो चुकी हूँ।' बाबूजी ऊँची आवाज़ में गरज रहे थे – 'कंबख्त पता नहीं दिन 
भर कहाँ गायब रहता है। शर्माजी बता रहे थे नुक्कड़ पर खड़े–खड़े सिगरेट के कश 
लेते–लेते बिल्डिंग के लोगों को ख़बरें देकर सबका मज़ाक उड़ाता रहता है। कम से कम 
जर्नलिस्ट ही बन जाता, प्यून बनने के लायक नहीं है वो।' माँ के रोने की आवाज़ सुनाई 
दी।
 
 एक–एक करके सब ड्राइंग रूम से चले गए। मैं वहाँ गया, अलमारी से कंबल निकालकर सोफे 
पर ही सो गया। वही जगह थी मेरे सोने की लेकिन वक्त नहीं हुआ था सोने का। भूख जो पेट 
में अंगार उगल रही थी। कंबल को सिर से पाँव तक ओढ़ लिया था ताकि मेरा चेहरा कोई देख 
न सके। आज मुझे अनुभव हुआ था कि अपने देश में पढ़ा–लिखा ग्रेज्यूएट बेरोज़गार अपने 
घरवालों का कितना बड़ा मुजरिम है। मुझे अपने बेरोज़गार होने पर शर्म आ रही थी। माँ 
बाबूजी की आवाज़ सुनाई दी – 'उस धन के ईश्वर से कह दो के आकर खाना खा ले, अभी तक 
उसका बाप ज़िंदा है, भूखे पेट सोने की ज़रूरत नहीं।' मेरी आँखों से आँसू छलक गए, 
मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। भाभी, माँ, निमा एक के बाद एक मेरे पास आए, मुझे 
जगाने की कोशिश करने लगे – 'धनेश, थोड़ा खालो देवरजी, कुछ खा ले बेटा, भैया उठो खाना 
खा लो!' पर मैंने खाना न खाने की कसम खा ली थी 
इसलिए मैंने अपनी बंद आँखें नहीं खोलीं।
 
 सुबह बाबूजी की आवाज़ ने मुझे जगा दिया। 'धनेश, कमल खन्ना का फ़ोन है तेरे लिए।' 
मैंने रिसिवर उठाया तो कमल ने कहा – 'चल मैं ही आ जाता हूँ तेरे यहाँ। याद है ना 
तेरी सीवी और पासपोर्ट कॉपी तैयार रखना। कालिंदी और केतन भी साथ ला रहा हूँ।' 
कालिंदी का तो मुझे उसने बताया था कि उसकी पत्नी थी पर ये केतन?
 'केतन कौन यार?' मैंने पूछा।
 
 'अरे हाँ उस दिन बताना ही भूल गया था। केतन मेरे बेटे का नाम है। पूरे एक साल का हो 
गया है। ठीक है . . .मिलते हैं, मैं फ़ोन रखता हूँ' कहकर उसने फ़ोन काट दिया। मैं सोच 
रहा था तीन साल – कैसे गुज़ारे थे मैंने पिछले तीन साल। मेरे बैचमेटस मेरे दोस्त सब 
तरक्की कर चुके थे और मैं वहीं नुक्कड़ पर खड़ा था सिगरेट के कश लेते, बिल्डिंग के 
लोगों का मज़ाक उड़ाते, शर्माजी को देखते और शर्माजी मुझे देखते बाबूजी से शिकायत 
करते। दोस्तों, कितना फ़र्क होता है ना दो इंसानों के नसीबों में – ज़मीन आसमान का 
फ़र्क, अमीरी–ग़रीबी का फ़र्क, मुंबई–दुबई का फ़र्क, रोज़गार–बेरोज़गार का फ़र्क। मुझे याद 
है बाबूजी – मेरे परिवार का हर्षोल्लास अपनी चरम सीमा पर था। कमल खन्ना से घर के 
सारे लोग बड़े प्यार से मिले। दुबई की बातें सुनकर खुशी के बारे में फूले नहीं समाए। 
उसकी पत्नी तथा बेटे पर प्रेम का हुआ वर्षाव देखकर 
मैं फिर सोच रहा – मेरा नंबर कब आएगा?
 
 कुछ दिन गुज़र गए। केके का न तो कोई फ़ोन आया और न ही कोई ख़त। 'अरे फ़ोन करके पूछ ले 
बेटा तेरे बाबूजी रोज़ पूछते रहते हैं।' माँ कहा करती थी। और मैं कहता था – 'माँ, 
बेकार पैसे बर्बाद हो जाएँगे। अगर कुछ होना होता या हुआ तो केके खुद ही फ़ोन करता।' 
मनीष भैया, चूXकि खानदान को पालने का बोझ अकेले उठाने की भावना रखते थे, कह देते – 
'माँ क्यों उसके पीछे पड़ी हो, आप तो जानती हो वो आलसी है अगर उसे कुछ करना होता तो 
यहीं पर कुछ करता, दुबई का टिकट कटाने की क्या ज़रूरत है।' उनकी बात सही थी जो करता 
है वही सुनाता है, मनीष भैया अपना अधिकार खोना नहीं चाहते थे और मौका पाते ही 
खरी–खोटी सुना देते। बाबूजी भी दिन भर घर बैठे वर्तमान–पत्र पढ़कर ऊब जाते और फिर 
भविष्य की सोच में पड़ जाते – निमा की शादी एक बार हो जाए तो सारी ज़िम्मेदारियों से 
मुक्त हो जाऊँगा, धनेश चाहे जिए या मरे मुझे उसकी कोई चिंता नहीं है।
 माँ कहती 
						– 'तंग आ गई हूँ मैं रोज़–रोज़ की किटकिट से, हे भगवान मुझे 
						अपने पास बुला ले।' एक भाभी ही थी दया की मूर्ति। घर पर 
						सारा दिन काम करते रहती कभी ज़रूरत पड़े तो अपने मैकेवालों 
						से रुपया, कपड़ा–लत्ता ले आती और मेरी झोली भर देती। शर्ट 
						पुरानी हो गई हो फट–कट गई हो पैंट की हालत माय गॉड हर मेरी 
						चीज़ का ध्यान देती। मुझे अपना बेटा मानती। शादी को पूछो तो 
						आठ साल हो गए थे मगर संतान का लोभ नहीं था उसे। कभी किसीने 
						उसे बांझ कह दिया तो लड़ने–झगड़नें में पीछे नहीं हटती – 
						'धनेश मेरा बेटा है, मुझे संतान की क्या ज़रूरत।' और हाँ 
						मनीष भैया के कंधे पर रखकर सिसकियाँ देते हुए कहती – 'धनेश 
						को बुरा–भला मत कहो, वो मेरा बेटा है। जब तक इस परिवार की
						हालत सुधर नहीं जाती 
						तब तक मैं माँ नहीं बनूँगी।'
 एक दिन फ़ोन की घंटी बजी। नीमा दौड़ी–दौड़ी नुक्कड़ तक आई – 
						'धनेश भैया केके का फ़ोन आया था, उसने तुम्हें फ़ोन करने को 
						कहा है, बाबूजी तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं।' मैं 
						दौड़ा–दौड़ा गया और फ़ोन किया केके को। केके! 'हाँ दोस्त कैसा 
						है, क्या हुआ, कुछ हुआ? क्या कहा तूने विज़िट वीसा अरेंज 
						किया है? नौकरी मैं खुद आकर ढूँढ़ लूँ? तू और भाभी मेरी 
						हेल्प करेंगे थैंक यू यार बी इन टच श्योर। अरे ये भी कोई 
						कहने की बात है आंटीजी से ज़रूर मिलकर आऊँगा। और सब ठीक है? 
						ओके यार जितनी जल्दी हो सके काम कर देना यार। यहाँ बहुत 
						बोअर हो रहा हूँ।' रिसीवर नीचे रखा ही था कि ओरल एक्ज़ाम 
						शुरू हो गए। क्या कह रहा था? बाबूजी – कुछ हुआ? माँ नीमा 
						तो बस बिल्डिंग में ख़बर देने ऐसे भागी जैसे मैंने कोई 
						चुनाव जीत लिया हो। भाभी मंदिर पहुँच गई गणेश जी को प्रसाद 
						चढ़ाने। रेडिओ पर पुरानी फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' का सुमधुर 
						गीत बज रहा था – दुख भरे दिन बीते रे भैया अब सुख आयो रे 
						रंग जीवन में नया लायो रे . . .
 
 (रेडियो के पास जाकर 
						रेडियो ऑन करने का अभिनय करता है। थोड़ी देर गीत बजने के 
						बाद)
 
 जब भी मैं बहुत खुश या उदास होता तो पहुँच जाता चिकी–चिकी 
						के घर। दोस्तों, आप पूछोगे ये चिकी–चिकी क्या है? चिकी 
						मेरी गर्ल फ्रेंड, उमर में मुझसे आठ साल बड़ी थी – तलाक़शुदा 
						थी। पर दिखने में जितनी सुंदर थी उससे भी कहीं ज़्यादा 
						सुंदर उसका दिल था। मेरे परिवारवालों की मुझसे नाराज़गी की 
						एक वजह, या यों कहिए प्रमुख वजह चिकी ही थी। मैं कितना ग़ैर 
						ज़िम्मेदार था इस बात का एहसास दिलाती थी वो मुझे। बाबूजी 
						पूछते थे ना कि ये लड़का दिनभर कहाँ गायब रहता है तो 
						दोस्तों, उनको भी पता था और आपको भी बता देता हूँ कि चिकी 
						के घर। चिकी स्वतंत्र विचारों वाली लड़की थी। इंटरकास्ट लव 
						मैरेज की थी उसने मगर लव सिर्फ़ बिफोर मैरेज तक ही रहा 
						आफ्टर मैरेज लड़ाई–झगड़े फिर तलाक। ये मॉडर्न विचारों वाली 
						लड़की नालायक या निकम्मी नहीं थी। होटल में नौकरी करती थी 
						रिसेप्शनिस्ट की। शादी के ग्यारह साल बाद उसके पति ने उसे 
						ये बताया कि वो उससे प्यार नहीं करता। तलाक लेकर अपनी छः 
						साल की मासूम बच्ची 
						को अपने माँ के घर छोड़कर मुंबई में अकेली फ्लैट लेकर रह 
						रही थी हमारी बिल्डिंग में।
 
 होटल से घर लौटते वक्त फ़ोन कर देती मुझे – 'आज फ़िल्म देखने 
						चलना है, टिकट बुक कर आई हूँ। साथ में डिनर करेंगे, पाँच 
						गार्डन चलेंगे, रेस कोर्स जाएँगे' वगैरह–वगैरह। मुझे 
						एँटरटेन करना उसे बहुत अच्छा लगता था। मैं भी इंतज़ार करता 
						रहता उसके फ़ोन का। उसकी बातें गुड़ या शहद से कम मीठी नहीं 
						थी। उसे गाना नहीं आता था और न ही संगीत का शौक। मैं उसे 
						गाकर सुनाता तो कहती – 'तुम यार प्लेबॅक सिंगर क्यों नहीं 
						बन जाते? वैसे हीरो भी बन सकते हो। मॉडेलिंग कर सकते हो। 
						देअर आर सो मेनी ऑप्शन्स यार। धनेश यू आर द बेस्ट तुम 
						कोशिश क्यों नहीं करते?' और हाँ अब 'कोशिश' करने का वक्त आ 
						गया था। मुंबई में नहीं बल्कि दुबई में अपनी किस्मत आज़माने 
						का मौका मुझे मिल गया था। आशा की एक किरण ने मुझपर अपनी 
						रोशनी बिखेरी थी अब पूरे सूरज को हासिल करना मेरा लक्ष्य 
						बन गया था।
 
 दुबई की उड़ान का समय क़रीब आ रहा था। हवाईअड्डे को रवाना 
						होने से पहले दोस्तों ने, घरवालों ने, पड़ौसियों ने मेरे 
						प्रति जिस प्रेम और विश्वास का प्रदर्शन किया उन सबसे मैं 
						बहुत ही प्रभावित हुआ। मेरा मन हर्ष और उल्लास से गदगद हो 
						उठा। ख़ास करके शर्माजी – जो हमेशा मेरी निंदा और शिकायत 
						करने में लगे रहते थे उन्होंने आकर मुझे गले लगाया और कहा 
						– 'जीवन में सदा सफल रहो।' बाबूजी ने एक सफ़ेद लिफ़ाफ़ा दिया 
						जिसमें कुछ रुपए और डॉलर्स थे। 'बेटा काम आएँगे। ज़रूरत 
						पड़ने पर और मंगा लेना अपने आप को किसी तकलीफ़ में मत 
						डालना।' उनका मेरे प्रति ये प्रेम मेरे बचपन की यादें दिला 
						गया, वे सारे पल जो मेरी सफलता के समय उन्होंने खुशी मना 
						कर बिताए थे वो मेरी आँखों के सामने आ कर खड़े हो गए और 
						कहने लगे – धनेश तुम्हें एक बार और सफल होना है और फिर 
						लगातार सफलता के मार्ग पर ही चलना है, पीछे मुड़कर कभी नहीं 
						देखना। मनीष भैया ने भी नम्र स्वर में कहा था – 'नीमा की 
						शादी के लिए जो रुपए बाबूजी ने जोड़े थे आज तुम्हारे 
						सुपुर्द कर रहे हैं। हम लोगों की न सही, कम से कम उन 
						रुपयों की लाज ज़रूर रखना।' मेरे पाँव तले की धरती खिसक गई 
						थी। जाते वक्त भी शब्दों के बाण।
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