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प्रिंसिपल- कालिज का काम छोड़ कर आया हूँ, इसे शाम के लिए रखा जाय।
वैद्य जी- संध्या काल पुन: पी लीजिएगा।
प्रिंसिपल- कालिज छोड़ कर आया हूँ।
सनीचर- कालिज को तो आप हमेशा छोड़े रहते हैं। वह तो कालिज ही है जो आपको नहीं छोड़ता है। लीजिए चढ़ा जाइये एक गिलास।

प्रिंसिपल- ( पीने के बाद) सचमुच ही बड़े-बड़े माल पड़े हैं।
वैद्य जी- भंग तो नाममात्र को है। वास्तविक द्रव्य तो बादाम, मुनक्का और पिस्ता हैं। इसका प्रभाव शीतल होता है।
दूसरी ओर से लंगड़ के गाने की आवाज।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय । कबीरा, मैं रौंदूगी तोय ।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय । कबीरा, साधु ना भूखा जाय ।
रंगनाथ-
यह लंगड़ गा रहा है न? अरे, वही तो है, देखो आ रहा है।

लंगड़ का प्रवेश।
माथे पर कबीरपंथी तिलक, गले में तुलसी की कण्ठी, दढ़ियल चेहरा, दुबली पतली देह। मिर्जई पहने हुए। एक पैर घुटने के पास कटा हुआ है और लाठी का सहारा है। चेहरे पर ईसाई संतों का भाव।


सनीचर-
लंगड़ का क्या है, मस्त रहता है। जहाँ चाहा वहीं लंगर डाल दिया। मौजी आदमी है।
छोटे पहलवान- मौजी आदमी! साला सूली पर चढ़ा बैठा है। परसों तहसीलदार से तू-तड़ाक कर आया है। मौज कहाँ से करेगा?
सनीचर-
आओ लंगड़। लो तुम भी पिओ ठंडई। इसमें बहुत माल पड़े हैं।
लंगड़ आँख मूँद कर इनकार करता है।
पीना है तो सटाक से गटक जाओ, न पीना हो तो हमारे ठेंगे से!
लंगड़ जोर की साँस खींच कर फिर आँखें मूँद लेता है।

प्रिंसिपल- कहो लंगड़, नकल मिली?
लंगड़- कहाँ मिली बाबू? इधर इस रास्ते नकल की दरख्वास्त सदर के दफ्तर भेजी गई और उधर उस रास्ते से फाइल वहाँ से यहाँ लौट आई। अब फिर गया मामला पंद्रह दिन को।

सनीचर-
सुना है तहसीलदार से तू-तड़ाकवाली बात हो गई है।
लंगड़- कैसी बात बाबू? जहाँ कानून की बात है वहाँ तू-तड़ाक से क्या होता है?
छोटे पहलवान- बात के बताशे फोड़ने से क्या होगा? साला जा कर नकलनवीस को पाँच रुपये टिका क्यों नहीं देता?
लंगड़- तुम यह नहीं समझोगे छोटे पहलवान! यह सिद्धांत की बात है।
छोटे पहलवान- वह बात है तो खाते रहो चकरघिन्नी।

लंगड़- (बहुत दीन भाव से वैद्य जी से) तो जाता हूँ बापू।
वैद्य जी- जाओ भई। तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो। उसमें मैं क्या सहायता कर सकता हूँ।
लंगड़- ठीक ही है बापू। ऐसी लड़ाई में तुम क्या करोगे। जब कोई सिफारिश - विफारिश की बात होगी तब आ कर तुम्हारे चौखट पर ही सिर रगड़ूँगा।
वैद्यजी हँसते हैं।
रंगनाथ- यह कैसी लड़ाई लड़ रहा है।
वैद्य जी- यह धरम की लड़ाई लड़ रहा है। (जोर जोर से हँसते हैं)
रंगनाथ- धरम की लड़ाई है तो अच्छी बात है न। आप इतना हँस क्यों रहे हैं।
प्रिंसिपल- रंगनाथ बाबू, बात ही ऐसी है। श्रीमान लंगड़ जी को तहसील से एक दस्तावेज की नकल लेनी है। और उसने कसम खा रखी है - मैं रिश्वत नहीं दूँगा और कायदे से ही नकल लूँगा। उधर नकल बाबू ने कसम खाई है कि मैं रिश्वत नहीं लूँगा। बिना रिश्वत लिये कायदे से नकल दूँगा। बस इसी की लड़ाई चल रही है।

सनीचर-
अरे यह शिवपाल गंज है।
रंगनाथ- रुको सनीचर। प्रिंसिपल साहब इसे मुझे ठीक से समझने दीजिए।
प्रिंसिपल- अरे इसमें समझना क्या है रंगनाथ बाबू।
रंगनाथ- लंगड़ को तहसील से किसी दस्तावेज की नकल चाहिए।
प्रिंसिपल- वही, यानी उसे मुकदमे के एक पुराने फैसले की कॉपी चाहिए।
रंगनाथ- मैं भी वही समझा था। अब तहसील का नकल बाबू कहता है कि बिना रिश्वत लिये वह पुराने फैसले की कॉपी निकाल कर दे देगा।
सनीचर-
वही।
रंगनाथ- और लंगड़ कहता है कि वह रिश्वत नहीं देगा।
सनीचर-
वही।
रंगनाथ- और यह काम कायदे कानून से होगा।
सनीचर- वही।
रंगनाथ- फिर यह लड़ाई कैसी है भाई। मैंने इतिहास में कई लड़ाइयों के बारे में पढ़ा है। सिकंदर ने भारत में कब्जा करने के लिये आक्रमण किया था। पुरु ने , उसका कब्जा न होने पाये, इसलिए प्रतिरोध किया था। इसी कारण लड़ाई हुई थी। अलाउद्दीन ने कहा था मैं पद्मिनी को लूँगा, राणा ने कहा कि मैं पद्मिनी को नहीं दूँगा। इसलिए लड़ाई हुई थी। सभी लड़ाइयों की जड़ में यही बात थी। एक पक्ष कहता था, लूँगा। दूसरा पक्ष कहता था, नहीं दूँगा। इसी पर लड़ाई होती थी। पर यहाँ लंगड़ कहता है कि धरम से नकल लूँगा। बाबू कहता है, धरम से नकल दूँगा। फिर भी लड़ाई चल रही है!

प्रिंसिपल- यह सरकारी दफ्तरों की दुनिया है। हाथी आते हैं, घोड़े जाते हैं, बेचारे ऊँट गोते खाते हैं।
रंगनाथ- माने? ... मैं कह रहा था कि लंगड़ और नकल बाबू के बीच चलने वाले धर्मयुद्ध का डिजाइन समझ नहीं पा रहा हूँ।
सनीचर-
कह तो रहे हैं कि यह शिवपाल गंज है। और यह सब गँजहों के चोंचले हैं जो मुश्किल से समझ में आते हैं।
प्रिंसिपल- लंगड़ यहाँ से पाँच कोस दूर एक गाँव का रहने वाला है। बीवी मर चुकी है। लड़कों से यह नाराज है और उन्हें अपने लिये मरा हुआ समझ चुका है। समझे न। भगत आदमी है। कबीर के भजन गाया करता है। बस बैठे-ठाले एक दीवानी का मुकदमा दायर कर बैठा। मुकदमे के लिए इसको एक पुराने फैसले की नकल चाहिए थी। उसके लिए उसने तहसील में दरख्वास्त दी। दरख्वास्त में कुछ कमी रह गई इसलिए वह खारिज हो गई यानी रिजेक्ट हो गई। इस पर लंगड़ ने दूसरी दरख्वास्त दी। यहाँ तक समझ में आया।
रंगनाथ- हाँ यहाँ तक ठीक है।
प्रिंसिपल- अब आगे सुनिए। कुछ दिन बाद यह तहसील में नकल लेने गया। नकलनवीस चिड़ीमार निकला। उसने पाँच रुपये माँगे। लंगड़ बोला कि रेट दो रुपये का है। इस पर बहस हो गई। दो-चार वकील वहाँ खड़े थे, उन्होंने पहले नकलनवीस से कहा कि भाई दो रुपये में ही मान जाओ। यह बेचारा लंगड़ा है। नकल ले कर तुम्हारे गुन गायेगा। पर वह अपनी बात से बाल बराबर भी नहीं खिसका। एकदम से मर्द बन गया और बोला कि मर्द की बात एक होती है। जो कह दिया वही लूँगा। तब वकीलों ने लंगड़ को समझाया। बोले कि नकलबाबू भी घर-गिरिस्तीदार आदमी है।लड़कियाँ ब्याहनी हैं। इसलिए रेट बढ़ा दिया है। मान जाओ और पाँच रुपये दे दो। पर हमारा पट्ठा लंगड़ भी ऐंठ गया।

लंगड़- बाबू, अब यही तो होता है। तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं।
वैद्य जी- सच तो यह है रंगनाथ, कि लंगड़ ने गलत नहीं कहा था। इस देश में लड़कियाँ ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है। एक रिश्वत लेता है तो दूसरा कहता है कि क्या करे बेचारा! बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं। सारी बदमाशी का तोड़ लड़कियों के ब्याह पर होता है।
प्रिंसिपल- जो भी हो नकल बाबू बिगड़ गया। गुर्रा कर बोला कि जाओ, हम इसी बात पर घूस नहीं लेंगे। जो करना होगा कायदे से करेंगे। वकीलों ने बहुत समझाया कि ऐसी बात न करो, लंगड़ भगत आदमी है, उसकी बात का बुरा न मानो। पर उसका गुस्सा एक बार चढ़ा तो फिर नहीं उतरा। लंगड़ और नकल बाबू में बड़ी हुज्जत हुई।
लंगड़- बाबू, अब घूस के मामले में बात-बात पर हुज्जत होती ही है। पहले सधा काम होता था। पुराने आदमी बात के पक्के होते थे। एक रुपिया टिका दो, दूसरे दिन नकल तैयार। अब नये-नये स्कूली लड़के दफ्तर में घुस आते हैं और लेन देन का रेट बिगाड़ते हैं। इन्हीं की देखादेखी पुराने आदमी भी मनमानी करते हैं। अब रिश्वत का देना और रिश्वत का लेना, दोनों बड़े झंझट के काम हो गए हैं। बहुत हुज्जत हुई बाबू। हमको भी गुस्सा आ गया हमने अपनी कण्ठी छू कर कहा कि जाओ बाबू, तुम कायदे से काम करोगे तो हम भी कायदे से ही काम करेंगे। अब तुमको एक कानी कौड़ी न मिलेगी। हमने दरख्वास्त लगा दी है, कभी न कभी तो नंबर आयेगा ही।

प्रिंसिपल- उसके बाद लंगड़ ने जा कर तहसीलदार को सब हाल बताया। तहसीलदार बहुत हँसा और बोला शाबास लंगड़, तुमने ठीक ही किया। तुम्हें इस लेन-देन में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। नंबर आने पर तुम्हें नकल मिल जाएगी। उसने पेशकार से कहा, देखो, बेचारा लंगड़ चार महीने से हैरान है। अब कायदे से काम होना चाहिए, इन्हें कोई परेशान न करे। इस पर पेशकार बोला कि सरकार, यह लंगड़ा तो झक्की है। आप इसके झमेले में न पड़ें। तब लंगड़ पेशकार पर बिगड़ गया। झाँय-झाँय होने लगी। किसी तरह तहसीलदार ने दोनों में सुलह कराई।
लंगड़- बापू अब हम जानते हैं कि नकल बाबू हमारी दरखवास्त किसी न किसी तरह खारिज करा देगा।
वैद्य जी- दरख्वास्त बेचारी तो चींटी की जान जैसी है।उसे लेने के लिए कोई बड़ी ताकत नहीं न चाहिए।
प्रिंसिपल- हाँ वैद्य जी, आप सही कर रहे हैं। दरख्वास्त को किसी भी समय खारिज कराया जा सकता है। फीस का टिकट कम लगा है। फाइल का पता गलत लिखा है। एक खाना अधूरा पड़ा है। ऐसी ही कोई बात पहले नोटिसबोर्ड पर लिख दी जाती है, अब उसे दी गई तारीख तक ठीक न किया जाए तो दरख्वास्त खारिज कर दी जाती है।
लंगड़- इसलिए अब हमने भी पूरी तैयारी कर ली है। अपना गाँव छोड़ के यहाँ चले आये हैं। अपने घर में ताला लगा दिया है। खेत-पात,फसल, बैल-बधिया, सब भगवान के भरोसे छोड़ आये हैं। यहाँ अपने एक रिश्तेदार के यहाँ डेरा डाल दिया है और सबेरे से शाम तक तहसील के नोटिस बोर्ड के आसपास चक्कर काटा करते हैं। कहीं ऐसा न हो कि नोटिस बोर्ड पर दरख्वास्त की कोई खबर निकले और हमें पता ही न चले। चूके नहीं कि दरख्वास्त खारिज हुई। एक बार ऐसा हो भी चुका है।

प्रिंसिपल- पट्ठे ने नकल लेने के सब कायदे रट डाले हैं। फीस का पूरा चार्ट याद कर लिया है।
वैद्य जी- आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है। लंगड़ का भी करम फूट गया है। (हँसता है)
प्रिंसिपल- पर इस बार जिस तरह से वह तहसील पर टूटा है, उससे लगता है कि पट्ठा नकल ले कर ही रहेगा।
वैद्य जी- प्रिंसिपल साहब आपने पुनर्जन्मे के बारे में आपने सुना होगा।
प्रिंसिपल- कैसी बात करते है वैद्य जी। क्यों नहीं जानूँगा पुनर्जन्म के बारे में।
वैद्य जी- यह मेरा विश्वास है कि हमारी अदालतों में ही पुनर्जन्म के सिद्धांत का आविष्कार हुआ होगा। ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफसोस को ले कर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पड़ा रहा। इस पूर्वजन्म के सिद्धांत के सहारे वे चैन से मर सकते हैं क्योंकि मुकदमे का फैसला इस जन्म में नहीं तो हुआ तो क्या हुआ? अभी अगला जनम तो पड़ा ही है। हा हा हा...

लंगड़- (दीन भाव से वैद्य जी से) जाता हूँ बापू। (जाता है)
रंगनाथ- (अपने से ) कुछ करना चाहिए.... (जोर से) यह सब गलत है। कुछ करना चाहिए।
सनीचर-
क्या कर सकते हो रंगनाथ बाबू। कोई क्या कर सकता है? जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता है। लोग अपना ही दुख-दर्द ढो लें, यही बहुत है। दूसरे का बोझा कौन उठा सकता है? अब तो वही है भैया कि तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलायें।



लंगड पाँव ऊपर की ओर मोड़ कर जमीन में बैठा हुआ है। गमछे को कमर से घुमा कर पाँव से बँधा हुआ है। पास ही रंगनाथ बैठा हुआ है।

लंगड़- समझे न बापू
धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय। कबीरा, ॠतु आए फल होय।

सनीचर और प्रिंसिपल आते हैं।
सनीचर-
रंगनाथ बाबू, यहाँ लंगड़ के साथ क्या कर रहे हो?
रंगनाथ- लंगड़ मुझे अपने जीवन का अनुभव सुना रहा है।
प्रिंसिपल- उसका सिर्फ एक जीवन है और उसमें सिर्फ एक अनुभव है। सुनने वाला मिल जाये तो उसी को काफी विस्तार से बताता रहता है। इनके क्या हाल हैं?
सनीचर-
(फूहड़ हँसी हँसता है) जो बैल दुहने जाता है उसका क्या हाल होगा?
प्रिंसिपल- (लंगड़ से ऊँची आवाज में) क्या हुआ नकल मिल गई?
लंगड़- हाँ बाबू, अब मिली ही समझो। सदर से दरख्वास्त वापस लौट आई है। वैसे सदर जाने वाली दरख्वास्तें वहीं खो जाती हैं, पर मेरी खोयी नहीं। आप लोगों के चरणों का प्रताप है।
सनीचर-
बहुत अच्छा लच्छन है। दरख्वास्त वापस लौट आयी है तो अब नकल मिल जायेगी।
रंगनाथ- कब मिलेगी?

लंगड़- नकल बाबू कहते थे कि तुम्हारा नंबर अब आने ही वाला है। (रंगनाथ की ओर घूम कर ) ... तो बाबू, इतने दिन बाद, पूरा एक साल तीन महीना बीत जाने पर, अब मामला ठीक हुआ है। नकल की दरख्वास्त में अब कोई कमी नहीं रही। फाइल भी सदर से तहसील वापस पहुँच गई है। कल तहसील गया था तो पता लगा, नकल बाबू ने अब हमारा काम हाथ में ले लिया है। आज तैयारी हो रही होगी। फिर उसका असल से मुकाबला होगा। ... बस अब तीन चार दिन की कसर है।
प्रिंसिपल- इत्ते दिन मारे-मारे फिरे। किसी भी वकील के पास चले गये होते तो तीन दिन में यह काम हो गया होता।
लंगड़- वकील की दरकार नहीं थी बाबू। यह सत्त की लड़ाई थी। पाँच रुपया बाबू को दे दिया होता तो नकल तीन दिन नहीं, तीन ही घण्टे में मिल जाती। पर उस तरह न तो उसे लेना था, न मुझे देना था।
प्रिंसिपल- उसे लेना क्यों नहीं था? रुपिया दिया और उसने लिया नहीं?
लंगड़- सत्त की लड़ाई थी बापू तुम नहीं समझोगे।
लंगड़ गमछा बिछा कर लेट जाता है। कराहता है।

सनीचर-
क्या मामला है लंगड़ ठंडे पड़ रहे हो। (लंगड़ का माथा छू कर) बुखार जैसा जान पड़ता है।



अखाड़े में छोटे पहलवान कसरत कर रहे हैं। साथ में हैं सनीचर और रंगनाथ। लंगड़ उधर से गुजर रहा है।
लंगड़- माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
कबीरा मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।
कबीरा, कह गए दास कबीर ।
छोटे पहलवान- ओ लंगड़, क्या हो रहा है जी तुम्हारे मामले में?
लंगड़- आज तो छुट्टी है बाबू। पता नहीं चल पाया। वैसे नकल तो अब बन ही गयी होगी। बन तो तभी गयी थी, पर मैं लेने नहीं जा पाया। मुझे मियादी बुखार आ गया था। उस दिन सदर की कचहरी में गिरा तो फिर उठ नहीं पाया। फिर सोचा मरना ही है तो अपने गाँव में ही मरें।

गाँव पहुँचे तो वहाँ लोगों ने बताया कि मियादी बुखार है। एक दिन गॉव में कई लोग मोटर पर आए। गाँव भर की दीवारों पर न जाने क्या क्या अँग्रेजी में लिख गये। उसके बाद बापू, उन्होंने हमारा खून निकाला और मशीन में डाल कर देखा। अब देखो बापू कैसा अचम्भा है इस कलयुग का कि आदमी तो हम देसी, और हमें बीमारी लगी बिलायती। मोटर पर जो आये थे, वे बोले कि लंगड़ा बड़ा आदमी है, उसे मलेरिया हुआ है।

क्या बतायें बापू, उसी के बाद मोटरवालों ने गाँव में बड़ा काम किया। दो-तीन लोग एक एक मशीन ले कर चारों ओर कुआँ ताल, गड़हा गड़ही, सभी पर किर्र किर्र करते हुए घूमे। दो आदमी बराबर हर घर के आगे जा जाकर गेरू से मलेरिया महारानी की इस्तुति अँग्रेजी में लिख गये। उन अच्छरों का प्रताप, बापू, कि सारे मच्छर भाग गये। हम भी बापू, महीना भर दुख भोग कर आपका दर्शन करने को फिर से उठ खड़े हो गये।

सनीचर-
क्या बात सुनाई है, लंगड़ऊ तुमने कि
लिखे देख अँग्रेजी अच्छर, भागे मलेरिया के मच्छर।

छोटे पहलवान- तो कहो न कि मरते मरते बचे हो।
लंगड़- यही तो ठीक है बाबू। पर मैं जानता था कि मैं मरूँगा नहीं। भगवान के दरबार में ऐसा अंधेर नहीं हो सकता। जब तक मुझे तहसील की नकल नहीं मिल जाती, मैं मर नहीं सकता। बिना नकल देखे मेरी जान नहीं निकल सकती। मैं सत्त की लड़ाई लड़ रहा हूँ।
छोटे पहलवान- तुम साले बाँगडू हो। दो रुपये के पीछे जिन्दगी बरबाद किये हो। ठोक क्यों नहीं देते हो दो रुपये।
लंगड़- तुम यह बात न समझोगे बाबू। यह सत्त की लड़ाई है।
सनीचर-
वाह रे लंगड़ऊ।
रंगनाथ- तुम इसे लंगड़ऊ क्यों कहते हो।
सनीचर-
तो और क्या कहें? लंगड़ा है इसलिए लंगड़ कहते हैं। हमारे शिवपालगंज में जिसके मुँह में चेचक के दाग हों उसे छत्ताप्रसाद कहते हैं। जिसके कान कुश्ती लड़ते-लड़ते टूट गये हों उसे टुट्टे कहते हैं।
रंगनाथ- किसी को बुरा नाम ले कर नहीं चिढ़ाना चाहिए। उसका असली नाम लेना चाहिए।
सनीचर-
(लंगड़ की ओर देख कर) तुम्हारा असली नाम क्या है जी?
लंगड़- अब तो सब लंगड़ ही कह कर बुलाते हैं, बापू। वैसे माँ-बाप का दिया हुआ असली नाम लंगड़परशाद है।
छोटे पहलवान- (हँसता है) तो अब क्या हो रहा है, लंगड़परशाद?
लंगड़- नकल, कल-परसों तक मिल ही जायेगी। अभी से जाकर तहसील के आगे पड़ूँगा।
छोटे पहलवान- वहीं अपनी झोंपड़ी डाल लो। दौड़-धूप बच जायेगी। ( हँसता है)



बस अड्डे पर लंगड़। रंगनाथ आता है।
लंगड़- माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय । कबीरा, मैं रौंदूगी तोय ।
रंगनाथ- बस के अड्डे पर खड़े खड़े क्या कर रहे हो?
लंगड़- यहाँ कोई क्या करता है बाबू, आने जाने वाले ही तो यहाँ आते हैं।
रंगनाथ- वापस जा रहे हो? इसका मतलब यह कि नकल मिल गई। कब मिली?
लंगड़- नकल तो मैंने ले ली थी बापू पर...
(अपने सिर पर मुक्के मारता है) पिछली बार जब तुमसे मिला था बाबू, उसके दूसरे दिन ही मुझे गाँव चला जाना पड़ा। खबर आई थी कि बिरादरी के घर में गमी हो गई है। गाँव पहुँचते ही मुझे बुखार ने फिर दबा दिया। पूरे सत्रह दिन खटिया में पड़ा रहा। कल वापस लौटा हूँ बाबू। तहसील में जा कर पता लगाया तो चिड़िया खेत चुग गई थी।
वहाँ वे बोले कि तुम्हारी नकल कई दिन पहले ही तैयार हो गई थी। नोटिस बोर्ड पर इसकी इत्तला लग गई। पर पंद्रह दिन तक उसे कोई लेने ही नहीं आया । तब उन्होंने उसे फाड़ कर फैंक किया। नकल बना कर पंद्रह दिन तक रखते हैं। कोई न ले तो फाड़ देते हैं। मुझे यह मालूम न था।
रंगनाथ- देखो लंगड़, तुम्हारे कायदे कानून जानने से कुछ नहीं होता। जानने की बात सिर्फ एक है कि तुम जनता हो और जनता इतनी आसानी से नहीं जीतती।
(रोना बंद कर बिना पलक झपकाये रंगनाथ को देखता है)
हार गये हो तो कोई बात नहीं। अपने गाँव जा कर खेती करो। कुछ दिनों बाद यह घाव अपने-आप भर जायेगा।

लंगड़- खेती कैसे करूँगा बापू खेतों का ही तो मुकदमा चल रहा है।
रंगनाथ- तो चोरी करो। डाका डालो
लंगड़- (थोड़ी देर सोच कर) नकल की दरख्वास्त फिर से न लगा दूँ।
रंगनाथ- (साँस छोड़ते हुए) लगा दो। पर इस बार एक वकील कर लो। घूस देने से चाहे बच भी जाओ, मुकदमा लड़ोगे तो वकील से नहीं बच पाओगे।

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२४ दिसंबर २०१२

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