झाँसी से क़रीब १५०किलोमीटर और कानपुर से लगभग
इतनी ही दूर है महोबा। इस कस्बानुमा शहर को देख कर सोच भी नहीं सकते कि यह अपने
अतीत में इतिहास की विशाल धरोहर समेटे है। एक समय था जब महोबा की संपन्नता और
समृद्धि दिल्ली से होड़ लेती थी। या यह कहिए कि दिल्ली इसकी वैभवता के सामने टिक
सकती थी।
ये है उस देस और राज का परिचय-
"उस विश्रुत जुझौती में
वेत्रवती-तीर पर, नीर धन्य जिसका,
गंगा-सी पुनीत जो, सहेली यमुना की है,
किंतु रखती है छटा दोनों से निराली जो।
जिसमें प्रवाह है, प्रपात हैं और हृद हैं,
काट के पहाड़ मार्ग जिसने बनाए हैं,
देवगढ़-तुल्य तीर्थ जिसके किनारे हैं।
देव श्री मदनवर्मा सदन सुकर्मों के राजा हैं,
राजधानी है महोबे में।
वही मदनवर्मन जिसको सवाई जयसिंह सिद्धराज "देखता था विस्मय से श्रद्धा से भोगी है
मदनवर्मा किंवा एक योगी है।" शक्तिशाली चंदेल राज की डोर मदनवर्मन से यशोवर्मन
द्वितीय और उससे दो वर्ष के स्वल्प काल के बाद परमादिदेव (परमालदेव) के हाथों में
आई। परमाल के सेना नायक थे बनाफर राजपूत कुल के अप्रतिम योद्धा, दो भाई आल्हा और
ऊदल। कहते हैं आल्हा की तलवार इतनी भारी थी कि आम आदमी उसे उठा भी नहीं सकता था।
महोबा वीरों से भरी पड़ी थी। ब्रह्मा, मलखान, सुलखान, ढेवा, ताला, सैयद, रणजीत, अभय
मानो पानी नहीं मान पीते थे। प्रसिद्ध था "बड़े लड़इया महुबे बाले जिन से हार गई
तलवार।"
आल्हा ऊदल यानी पराक्रम की पराकाष्ठा। इनकी
शौर्यगाथाएँ अमिट हैं। कहते हैं आल्हा कांड की प्रतियाँ छावनियों में सैनिकों को
पढ़ने के लिए दी जातीं थीं। सन 1860 में ईस्ट इंडिया
कंपनी का आफ़िसर विलियम वाटरफील्ड आल्हा कांड से इतना उत्साहित हुआ था कि उसने इसका
अंग्रेज़ी में अनुवाद आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस से छपवाया था। आज भी लोग वीर
काव्य "आल्हा कांड" को पढ़ कर जोश में झूम उठते हैं।
जब उमड़-घुमड़ कर कजरारे बादल छा जाते हैं, लोग चौपाल पर जमा हो कर नगाड़े की चोट
पर आल्हा अलाप उठते हैं। जैसे-जैसे बादलों का गर्जन बढ़ता है वैसे-वैसे ही उनकी तान
ऊँची उठती जाती है मानो एक दूसरे को चुनौती दे रहे हों। यहाँ झम-झम कर बौछारें हो
रही होती हैं वहाँ पढ़ने सुनने वाले पूरे जोश में भरे आल्हा के शौर्य में डूब उतरा
रहे होते हैं।
परमाल के समकालीन थे दिल्ली के सुप्रसिद्ध नरेश
महारथी पृथ्वीराज चौहान। पृथ्वीराज चौहान का राजकवि चंदवरदायी प्रसिद्ध है जिसने
"पृथ्वीराज रासो" की रचना की। चंदेलों का राजकवि जगनीक, चंदवरदायी की ही टक्कर का
था, जिसने आल्हा कांड की रचना की। यह इतिहास की कितनी बड़ी विडंबना है कि यह दो
महाबली नरेश एक दूसरे के दुश्मन बने रहे। एक दूसरे से भिड़ते रहे। नहीं तो इतिहास
और ही होता। मुहम्मद गौरी भारत में कदम नहीं रखने पाता।
इनकी वैमनस्यता का कारण बहुत ही निजी था। यह उसकी कहानी है।
समय काल बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध। सावन का महीना।
वैसे तो सावन का मौसम है ही मनोहारी पर इसकी छटा बुंदेलखंड में न्यारी है। सावन का
महीना आया नहीं कि ससुराल में लड़कियाँ अपने भाइयों की राह देखने लगतीं हैं। कब
उनके भाई लेने आएँगे। फिर अपने घर जाएँगीं।
फिर पुरानी सखियाँ जमा होंगी। जगह-जगह झूले
पड़ेंगे। सावन की रिमझिम फुहारों के बीच भरी जाएँगीं झूले पर पेंगें। साथ ही कजरी
की तानें। वही अल्हड़ उल्लास भरे दिन लौट आएँगे।
महोबा भी सावन में सजधज गया। महोबा बड़ा ही रमणीक नगर था। चारों ओर सरोवर थे-
रामकुंड, सूरजकुंड, दिसरापुर सागर, रहिला सागर, विजय सागर, कीरत सागर, मदन सागर।
इनके चारों ओर परकोटे बने हुए थे जिनके भीतर रम्य बाग बगीचे, मंदिर थे। बागों में
झूले लग गए। मंदिरों में झाँकियाँ सज गईं, कहीं बर्फ़ के पहाड़ पर शिव जी, कहीं
पानी भरे आँगन में झूला झूलते राम जी और कहीं रास रचाते कृष्ण जी। रोज़ झाँकियाँ
बदली जातीं। सावन का "समैयाँ" बन गया।
रक्षाबंधन का दिन आया। परमालदेव की रानी मल्हना
पूरी सजधज और तामझाम के साथ कीरत सागर में कजली पूजन के लिए गईं। मल्हना रानी
अद्वितीय सुंदरी थीं, छहहरी लंबी स्वर्ण-सी आभा लिए हुए देह। कमल-सा आनन। नैन
नासिका अधर ग्रीवा साँचे में ढले हुए। पूर्ण विकसित देह वल्लरी। मस्त कुंजर-सी चाल
और घंटी से मधुर बैन। उनके साथ उनकी सहेलियाँ थीं सब अतीव सुंदरी- बहुमूल्य वस्त्र
धारण किए, बेंदी, कर्णफूल, हार, किंकणी, मेंहदी रचे करों में कंगन और माहुर सजे
पैरों में नूपुर पहने हुए।
उनके साथ थी अश्व-आरोहित स्त्रियों की सैना। सब दायें हाथ में त्रिशूल लिए थीं और
बायें हाथ से लगाम सँभाले थीं। सिर पर पगड़ी बँधी थी जिसमें मणिखचित कलगी लगी हुई
थी। कटि-बंधन कसे हुए थे। कंचुकी-कवच बाँधे हुए थीं।
सरोवर पहुँच कर रानी और सहेलियाँ भव्य झूले की ओर बढ गईं। दासियाँ पूजा की तैयारी
में लग गईं। स्त्रियों की सेना परकोटे के अंदर घेरा बना कर परिक्रमा-सी करने लगीं।
अभी दो दिन पहले ही पृथ्वीराज चौहान ने महोबा के
बाहर पंचपहाड़ पर पड़ाव डाला था। तुर्की सेना का पीछा करते-करते वह रास्ता भूल कर
महोबा पहुँच गए थे। साथ में सेनापति चामुण्यराय और सेना भी थी।
उसी शाम को चंदेल राजकवि जगनीक पृथ्वीराज चौहान की अभ्यर्थना के लिए आया। उसने उनके
गुणों की, वीरों की, धीरों की प्रसंशा की।
जगनीक ने कहा, "आप की राजसभा तो मानो महोबे की राजसभा है।"
जगनीक ने संजुक्ता के रूप गुण का बखान करते हुए कहा, "सुनकर उनका रूप कल्पना से
चित्र आंका है अदभुत है वह।"
फिर रानी मल्हना के रूप का वर्णन करते हुए कह दिया, "उनकी सुंदरता का कोई सानी
नहीं।"
पृथ्वीराज चौंक पड़े। उनको ईर्ष्या हुई पर एक प्रबल आकर्षण भी हुआ।
मल्हना रानी पूजा कर भी नहीं पाईं थीं कि पृथ्वीराज चौहान की सेना ने कीरत सागर को
घेर लिया। चामुण्यराय नेतृत्व कर रहे थे। पृथ्वीराज महोबे पर चढाई के लिए तैयार
बैठे थे।
स्त्री सैनिकों में एक सैनिका थी मछलदे- नख शिखा रूपणी दर्पिता। उसने अपने अश्व को
तेज़ी से मोड़ा, दौड़ाती हुई परकोटे के अंदर लाल मिट्टी के टीले पर ले गई और वहाँ
से उसका अश्व हवा में तैरता हुआ परकोटे के बाहर हो गया। पृथ्वीराज के सैनिक देखते
ही रह गए। उसका अश्वा हवा से बातें करता हुआ सीधा परमाल के दरबार में रुका। आल्हा
ऊदल और योद्धा वहीं थे।
आल्हा ने उस तमतमाए चेहरे की शौर्य-वीर्य-साहस की
प्रतिमा को देखा तो रीझ कर देखते ही रह गए।
लेकिन जब उसकी बातें सुनी तो उनकी आँखों से गुस्से से चिनगारियाँ निकल पड़ीं।
वह योद्धा तो मरने मारने को हमेशा तैयार ही रहते थे। आनन-फानन में उनकी सेना तैयार
हो गई। रणनीति तय कर ली। युद्ध का धौंसा बज उठा। चंदेल योद्धा बड़ी हौंस से निकल
पड़े साथ में पाँच "उड़न घोड़े" थे।
आल्हा और उसके साथी सीधे सिंहद्वार की ओर गए जहाँ से पृथ्वीराज चौहान को रोकना था।
ऊदल और साथी चामुण्यराय की ओर बढ़े। ब्रह्मा और साथी दूसरी ओर से सेना की ओर। रणजीत
और अभय ऊदल के साथ थे। उन दो योद्धाआें की छपक-छपक चलती तलवार के सामने चौहान सेना
के पैर उखड़ गए। वे दोनों काफ़ी अंदर घुस गए। चामुण्यराय ने अपनी सेना को भागते देख
रणजीत और अभय के पीछे से घेरा बंद कर दिया। चामुण्यराय ने लगातार वार किए। रणजीत और
अभय दोनों घायल हो गए। तभी क्रोध में ऊदल तेज़ी से चामुण्यराय की ओर बढा। उसकी मार
को चामुण्यराय सँभाल नहीं पाया। वह और उसके सैनिक पीछे ही भागते गए और पड़ाव पर जा
कर ही रुके।
रणजीत और अभय ने रणभूमि में ही वीरगति प्राप्त की। पृथ्वीराज के बहुत सैनिक हताहत
हो गए थे।
पृथ्वीराज चौहान दिल्ली लौट गए।
रक्षाबंधन के दूसरे दिन का सूरज नई खुशियों के साथ
उगा। नए सिरे से धूमधाम के साथ कजली पूजा का आयोजन हुआ। स्त्रियों ने हरी-हरी
चूड़ियाँ पहनी। हरी परिधान धारण किए। हरी चूनरी ओढ़ी। वह सावन की हरियाली की तदरूपा
हो गईं। सुहागनों ने सुहाग की मनौती की, कुँवारियों ने अच्छे वर की कामना। हरे-हरे
दोनों में रोपी गई धान की बालें (जवारे) उन्होंने लोगों को दिए जो लोगों ने कान के
ऊपर खुरस लिए। जिस नवयुवती ने जिस नवयुवक को जवारे दिए उसकी बाँछें खिल गईं।
कीरत सागर में मेला लग गया। जगह-जगह अखाड़े जम गए जो लोगों को बड़े प्रिय थे। लोगों
की भीड़ उमड़ पड़ी।
बुंदेलखंड में, खासकर महोबा में, आज तक कजली
रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाई जाती है। उसके अगले दिन होता है "विजय दिवस" जिस पर
कृतज्ञतायापन के लिए तांडव शिव की पूजा होती है।
यह बाद की बात है कि पृथ्वीराज चौहान ने दुबारा
महोबा पर चढ़ाई की और विजय पाई। रानी मल्हना का भाई माहिल खलनायक सिद्ध हुआ। वह
पृथ्वीराज से मिला हुआ था और इधर परमालदेव को आल्हा ऊदल के विरुद्ध भड़काता रहता
था। यह जान कर कि वहाँ रहना ठीक नहीं, आल्हा ऊदल राजा जयचंद के यहाँ कन्नौज चले गए।
जब पृथ्वीराज चौहान ने महोबे पर चढ़ाई कर दी तो परमाल ने आल्हा ऊदल को बुला भेजा।
माँ के कहने पर वे महोबा आ गए। उसके बाद जो घमासान युद्ध हुआ वह राजपूतों में मिसाल
माना जाता है। लेकिन आल्हा को छोड़ कर सब योद्धा- ऊदल, ब्रह्मा, मलखान, सुलखान,
ढेवा, ताला और सैयद ने युद्ध में अपनी जान निछावर कर दी। आल्हा गुरु गोरखनाथ की शरण
में जंगल चले गए। परमालदेव कलिंजर का पदार्पण हुआ और महोबा का प्रभुत्व समाप्त हो
गया।
एक किंवदंती के अनुसार दूसरी लड़ाई के पीछे एक
प्रेम कहानी भी है। राजकुमार ब्रह्मा के तेज़ और शौर्य पर पृथ्वीराज चौहान की बेटी
बेला मोहित हो गई थी। दोनों ने छुप कर विवाह कर लिया था, लेकिन पृथ्वीराज ने उनको
मिलने नहीं दिया। बिल्कुल पृथ्वीराज-संजुक्ता का दर्पण प्रतिबिंब पर पृथ्वीराज का
स्वरूप सर्वथा विपरीत। युद्ध में पृथ्वीराज के पुत्र ताहर ने ब्रह्मा को घायल कर
दिया दूसरी और क्रोध में ऊदल ने ताहर का वध कर दिया। ब्रह्मा की मृत्यु हो गई और
बेला सती हो गई। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की विजय हुई। परमाल ने आल्हा ऊदल को
कन्नौज से बुला भेजा लेकिन जीत फिर भी महोबा के हिस्से में नहीं आई।
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