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जनवरी। गणतंत्र दिवस। स्पाइसजेट फ्लाइट ४४४। मुंबई से अमृतसर।
सुबह १० बजे शुरू हो कर, सीधी कहीं रुके बिना, १२ बजे अमृतसर
पहुँचा देगी। अशोक, आशा, और केतकी, तीन उल्लास भरे दिल प्लेन
में बैठ गए। तीन सहयात्री, तीन दोस्त, हिमाचल की यात्रा पे
निकले थे। एक दिन अमृतसर रुककर आगे गाड़ी से हिमाचल जाने का
प्लान था। तीन महीने पहले आशा ने कंप्यूटर से फ्लाइट की बुकिंग
की थी।
थोड़ी देर में कैप्टन की आवाज़ सुनाई दी,'स्पाइसजेट फ्लाइट ४४४
में आप सब का स्वागत है। मुझे अफसोस है कि हमारी फ्लाइट में
थोड़ा सा परिवर्तन हुआ है, हमें दिल्ली रुककर जाना होगा। आप सब
आराम से बैठे रहिये, बस थोड़ी देर में हमारी उड़ान शुरू होगी!'
अशोक खुश हो गया ,'आशा, तुमने क्या प्लान बनाया है! दिल्ली में
गणतंत्र दिवस की प्रख्यात परेड भी हम ऊपर से आकाश में बैठे
बैठे देख लेंगे! जबरदस्त!'
'इतना जल्दी बहुत खुश हो जाना अच्छी बात नहीं है, अशोक!' आशा
ने अशोक को जमीन पर ला पटका।
कैप्टन की फिर से आवाज़ आई ,'दिल्ली में परेड चल रही है , किसी
को भी प्लेन को उतरने नहीं दे रहे है, और नज़दीक भी नहीं आने दे
रहे है। जैसे ही हमें दिल्ली से इजाज़त मिलेंगी, हम यहाँ से
उड़ान शुरू करेंगे!'
'आशा, ये फ्लाइट का प्लान अनायास बदल कैसे गया? हम अमृतसर देर
से पहुँचेंगे, हमारा अमृतसर का पहले दिन का कार्यक्रम चौपट हो
जा सकता है।'
'क्या करूँ, अशोक? मुझे भी गुस्सा आता है। तीन महीने पहले
बुकिंग की, कई बार फ्लाइट के समय बदलने के सन्देश आये, और आखिर
में ये प्लेन दिल्ली रुक के जाएगा वो बात सामने आई।'
'कोई बात नहीं, आशा, अभी थोड़ी देर में प्लेन वाले खाना पानी
भेजेंगे, दर्द से राहत हो जायेगी!'
'तुम्हारी ख्वाहिशें बहुत बड़ी होती है, अशोक। सस्ती वाली
फ्लाइट में कोई खाना पानी नहीं आता!'केतकी ने, जो बीच में बैठी
थी, अपनी समझदारी दिखाई।
'आज के भाव में यह फ्लाइट के २५००० रूपये लगते हैं, हम ने तीन
महीने पहले १०००० कम में टिकट्स खरीदे हैं।', आशा बोली।
'शाबाश, आशा, तुम तो बड़ी होशियार हो! कितने सारे पैसे बचा दिए!
चलो तो फिर, हम अपनी ओर से सब यात्रियों को नाश्ता पानी करा
दे!'अशोक ने आशा को प्रेरणा दी।
'अरे ऐसी बेवकूफी मत करना, अशोक! पैसे बचाने में बहुत मेहनत
करनी पड़ती है!'
फ्लाइट डेढ़ घंटा देर से शुरू
हुई। प्लेन वालों ने कोई नाश्ता नहीं दिया। अशोक की बहन ने कुछ
कचौरियाँ सफ़र के लिए साथ बाँध दी थीं। केतकी कुछ मीठा साथ में
लाई थी। तीनों ने जमकर घर का नाश्ता खाया। प्लेन वालों ने सादा
पानी पीने के लिए मुफ्त में दे दिया ! दिल्ली में गणतंत्र दिवस
की परेड तीन बजे ख़तम हुई। फ्लाइट ४४४ उसके बाद में दिल्ली उतर
पाई। प्लेन आधा घंटा रुका और फिर अमृतसर के लिए रवाना हुआ।
अमृतसर पहुँचते पहुँचते शाम के ४ बज गए थे। गोल्डन टेम्पल
देखना था, जलियाँवाला बाग़ देखना था, और वाघा बॉर्डर की परेड
देखनी थी। आशा और केतकी ने आज के दिन के लिए अमृतसर के बहुत
सारे प्लान बनाए थे। अब समय ख़ास कुछ बचा नहीं था। दोनों ने तय
किया कि आज वाघा बॉर्डर की परेड देखने की कोशिश करेंगे।
अमृतसर के नज़दीक, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच का वाघा
बौर्डर। रोज़ यहाँ सुलह और मैत्री के नाम परेड होती है। आकर्षक
यूनिफार्म में, बैंड बाजा के साथ, दोनों देशों के जवान ताल में
ताल मिलाकर परेड करते हैं। बहुत सुंदर नज़ारा होता है। दूर दूर
से लोग देखने आते हैं। देखने के कोई पैसे नहीं लगते है, मगर
कष्ट काफी झेलने हो सकते हैं।
अशोक, आशा और केतकी के साथ, ड्राईवर गुरुदीप सिंह की भाड़े की
गाड़ी में वाघा बॉर्डर पहुँचा। शाम के कोई पाँच बजे होंगे। गज़ब
की भीड़ थी। मानव समंदर लहरा रहा था। गुरुदीप ने बड़ी मेहनत के
बाद कहीं दूर गाड़ी पार्क की। माहौल ऐसा था कि दौड़ो दौड़ो, नहीं
तो परेड देखने नहीं मिलेगी। किसी को ठीक से अंदाज़ नहीं कि कब,
क्या, कहाँ, और कैसे ! खुद सोचो मत, बस चले जाओ, भीड़ का भारी
प्रवाह मंजिल तक पहुँचा देगा !
आशा और केतकी कूद पड़ी, दौड़ ने
लगी, और भीड़ का हिस्सा बन गई। अशोक बेचारा गुरुदीप के साथ रह
गया! घुटने की तकलीफ की वजह से अशोक दौड़ नहीं पाया। गुरुदीप ने
कहा, चेक नाका सख्त है, फोन वोन कुछ साथ नहीं ले जा सकते। अशोक
ने कंधे का थैला गाड़ी में रख दिया। गुरुदीप तो साथ नहीं
आनेवाला था। अशोक चल पड़ा, सोचकर कि आशा और केतकी उसका पहले
पड़ाव पर इंतज़ार कर रहे होंगे। ना आशा मिली, ना केतकी! भीड़ के
प्रवाह में दोनों बह गए थे। किसी ने कहा, आज की भीड़ बहुत भारी
है, दो लाख इंसान उमड़ आए है! पहले पड़ाव से करीब २ किलोमीटर
दूरी पर परेड का स्थान था। काफी फ़ौजी जवान मौजूद थे, बहुत सारे
चेक नाके थे, और सख्त चेकिंग हो रही थी।
अशोक ने सोचा, आशा और केतकी शायद दूसरे पड़ाव पे मिल जाये।
बुज़ुर्ग और कमज़ोर के लिए बिना छत वाली छोटी बस खड़ी थी। अशोक बस
में बैठ गया और दूसरे पड़ाव पर पहुँचा। चेक नाके से निकला, आस
पास नज़र दौडाई मगर अपने सहयात्री कहीं नज़र नहीं आए। परेड परेड
की जगह रह गई, आशा और केतकी को खोजने का मिशन बन गया। आगे
जाऊँ, पीछे जाऊँ, यहीं पर खड़ा रहूँ? कोई फोन तो साथ नहीं, क्या
करूँ? अशोक ने आगे आखिर तक जाने का निर्णय ले लिया।
बस का सफ़र, चेक नाके पे चेक नाके, पड़ाव पे पड़ाव, और आखिर में
परेड स्थल के नज़दीक अशोक पहुँचा। भीड़ यहाँ तो सब से ज्यादा थी।
कुछ भी देखने के लिए ऊँचाई पर होना ज़रूरी था। कई जवान लोग एक
दूसरे के कंधे पर चढ़कर ऊँचाई हाँसिल कर रहे थे। कुछ लोग कूद
कूद कर क्षणिक ऊँचाई पा रहे थे मगर निराशा से ज़मीन पर वापिस
लौट आते थे। एक जगह एक इमारत के ऊपर से देखने की जगह थी मगर
वहाँ ऊपर जाने के लिए सीढ़ी पर कतार लगी थी। कुछ फ़ौजी जवान
घोड़ेपर सवार हो कर कतार का नियंत्रण कर रहे थे। अशोक की परेड
देखने की रही सही आशा भी नदारद हो गई! बस, आशा और केतकी दिख
जाए।
अशोक को लगा कि वो खुद गुम हो
गया था। ७० साल का अशोक छोटे बच्चे जैसा महसूस करने लगा जिसकी
माँ उससे अलग हो गई थी ! अपने परिवार से सूनी एक सत्य घटना
अशोक को याद आ गई।
माँ, चाचा, और दो चचेरे भाई आगरा के नज़दीक गोकुल मथुरा की
यात्रा पे निकले थे। पाँच साल का अशोक भी सहयात्री था। चाचा
अभिभावक की जिम्मेदारी निभा रहे थे। सब रास्ते पर बातें करते
करते चले जा रहे थे। भीड़ थी। पाँच साल का अशोक सिगरेट तो नहीं
पीता था मगर अशोक को सड़क पर फेंके गए खाली सिगरेट के अलग अलग
चित्रकारी वाले खोखे इकठ्ठा करने का शौक था। परिवार आगे निकल
गया, अशोक पीछे रह गया, गुम हो गया। जब गुम होने का एहसास हुआ
तो चिल्ला चिल्लाकर रोने लगा। एक भले आदमी ने छोटे बच्चे को
रोते देखकर बात करने की कोशिश की, और फिर रोते बच्चे को नज़दीक
में अपने घर ले गया। पानी पिलाया। लड्डू खाने को दिए। अशोक
हिबकियां लेते रहा, और लड्डू खाते रहा। वो सज्जन नज़दीक की
पुलिस चौकी पर लापता बच्चे की जानकारी देने गए। उसी पुलिस चौकी
पर चाचा अशोक को खोजते खोजते आए थे। एक का बच्चा गुम हुआ था,
एक को बच्चा मिला था ! पुलिस का काम हल्का हो गया, सुखद मिलन
हो गया, और दर्द के आँसू हर्ष में बदल गए।
आज ६५ साल के बाद अशोक फिर से लापता था। एक बच्चा चिल्ला
चिल्ला के रोया था, आज अशोक भीतर ही भीतर रो रहा था। जेब में
कुछ पैसे थे, मगर आज अशोक को लड्डू खाने को नहीं मिले। सुखद
मिलन के लिए वो गाड़ी, जिस गाड़ी से आए थे, खोजनी होगी, गाड़ी तक
पहुँचना होगा। पहले तो वापिस उस पार्किंग स्थल तक जाना होगा।
वापिस जाने के लिए बस नहीं रखी गई थी, पैदल पैदल २ किलोमीटर
चलना होगा।
इतनी बड़ी भीड़, इतना बड़ा मेला,
मगर अशोक फिर भी अकेला। भीड़ के समंदर में अशोक साहिल को ढूँढ
रहा था। धड़कने तेज़ हो रही थी। फोन नहीं, किसी का फोन नंबर याद
नहीं। खुद लापता, आशा, केतकी और गुरुदीप लापता। करे तो क्या
करे, दिमाग काम नहीं कर रहा था। बहुत सारे फ़ौजी जवान नज़र आ रहे
थे, जगह जगह तिरंगा फरहा रहा था, देशभक्ति के गाने बज रहे थे।
भीड़ को काटते काटते अशोक धीरे धीरे वापिस गाड़ी की तलाश में
चलने लगा। रास्ते पर बहुत सारा कचरा देखा। अपनी मुसीबत में
फँसे हुए अशोक को सोच आ गई। एक ओर देश के जवान देश की रक्षा के
लिए शहीद होते हैं, दूसरी ओर देश की जनता जवानों के रास्ते में
कचरा फेंकती है !
अशोक को, जिस जगह वो गाड़ी से उतरा था, वहीं पहुँचना था और शायद
पहुँच भी गया। अगर मानव समंदर लहरा रहा था तो गाड़ियों का समंदर
भी लहरा रहा था। बहुत सारी गाड़ियाँ थी। जहाँ जहाँ जगह मिली
वहाँ वहाँ गाड़ियाँ पार्क की गयी थी। नए नए पार्किंग के स्थल बन
गए थे। अशोक को न गाड़ी का प्लेट नंबर मालूम था न गाड़ी की मेक
या मॉडल का अंदाज़ था। सिर्फ इतना याद था कि गाड़ी सफ़ेद रंग की
थी और टाटा की सुमो जैसी लगती थी।
शांति और सुलह के नाम बॉर्डर पर सब गाड़ियों ने सफ़ेद रंग ओढ़
लिया था। जहाँ जहाँ नज़र दौड़ाई, सफ़ेद ही सफ़ेद रंग की गाड़ियाँ
नज़र आई। शायद ड्राईवर कहीं आस पास हो। अशोक गुरु गुरु एक दो
बार चिल्लाया मगर कोई गुरु चेले का हाथ थामने नहीं आया !
ड्राईवर सरदार था, पगडी पहने हुआ था, दाढ़ी मूछ वाला था। अशोक
सरदारों के प्रदेश में था। बहुत सारे सरदार नज़र आए लेकिन कोई
अपना गुरु नहीं दिखा। गाड़ी को ही ढूँढना होगा।
कचरे और गंदगी को किनारे करते
करते अशोक ने पैदल सफ़र शुरू किया। इधर गया, उधर गया, दूर दूर
तक चला, कहीं गुरु की गाड़ी दिख जाए। एक गाड़ी दिखी जिस से अशोक
के दिल में आशा जगी। नज़दीक गया, कैसे तय करे कि यह अपने गुरु
की ही गाड़ी है? एक एक कर के गाड़ी की सब खिड़कियों से अन्दर
झाँकने लगा। काँच इतने साफ़ नहीं थे, अशोक को आँखें बड़ी बड़ी
कर देखना पड़ा। अशोक ने अपने एक बैग पर लाल रंग का रिबन बाँधी
था। लाल रंग दिख गया! गाड़ी मिल गई! अशोक अपनी अच्छी किस्मत पर
मुस्कराने लगा। बस, अब तो यहीं पर अड्डा जमा के बैठना है! आशा,
केतकी, और गुरु कभी ना कभी यहीं तो आयेंगे!
आधा घंटा गुज़र गया। दूर से, आशा, केतकी, और गुरु गाड़ी की ओर
आते हुए नज़र आए। मिलन की घड़ी आ गई!
'आशा, तुम कहाँ चली गई थी ? मेरे लिए रुकी नहीं?'
'अशोक, हमें किसी ने रुकने नहीं दिया। चेक नाके पर भीड़ और
धक्का मुक्की ने हमें आगे धकेल दिया। नियंत्रण करने वाले फ़ौजी
किसी को ठहरने नहीं दे रहे थे। केतकी भी मुझ से अलग हो गई। मैं
तो डर की मारी सहम गई और इतनी भीड़ में अकेली हो गई!'
अब जब आशा ही लापता हो गई थी तो अशोक अपनी व्यथा कैसे कहे?
'आशा, तुम तो कोई डरनेवालों में से नहीं, फ़ौजी घराने से आई हो,
खुद फ़ौजी जैसी तो लगती हो!'
'अरे, मेरे पीछे चार गुंडे पड़ गए थे ! सारा रास्ता अपना दाहिना
हाथ दिल को थामे चली हूँ!'
'वो क्यों आशा ? सारे रास्ते तिरंगे झंडे को सन्मान देती रही
क्या?', अशोक मस्ती करने के मूड में आ गया।
'नहीं अशोक, मेरे चालीस हज़ार रुपैये मैं ने अपने सीने से
चिपकाए रखे थे, उसको सँभाल रही थी!'
किसी ने परेड नहीं देखी। आशा ने परेड की एक डीवीडी खरीद ली।
पैसे चोरी नहीं हुए।
सब सलामत लौट आए।
सब लापता का पता लग गया।
व्यथा खुशी में बदल गई। |