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					नर्स चली गई। और जाने से पहले 
					हिदायतें दोहरा गई कि जो प्लास्टिक की बोतल दी गई उसी का 
					इस्तेमाल किया जाए। नर्स के जाने के बाद अभिनव ने पहली बार 
					कमरे को गौर से देखा। सफेद दीवारें, सफेद छत, बिस्तर पर बिछी 
					चादर भी सफेद, कमरे के साथ जो बाथरूम है, उसमें रखा तौलिया भी 
					सफेद। इतनी सफेदी कि जैसे पूरे कमरे को ब्लीच किया गया हो। फिर 
					जाते जाते शायद कमरे की सजावट करने वाले को कमरे का प्रयोजन 
					याद आया तो उसने रंग छिड़कने के लिए कमरे की एकमात्र खिड़की पर 
					हल्के नीले रंग का पर्दा टाँग दिया, बस। खिड़की के नीचे एक बाईस 
					इंच का टीवी और डीवीडी प्लेयर। सबकुछ बड़ा क्लिनिकल। रुपाली के 
					हाथ में होता तो इस कमरे का मूड रोमानी होता। दीवारों का रंग 
					हल्का क्रीम होता, खिड़की के पर्दे से मैच करता बिस्तर के पास 
					एक लैंप होता, बिस्तर पर इंडिया से लाया गया कोई रेशमी बैडकवर 
					होता, सिरहाने ढेरों रंगबिरंगे कुशन होते, कम से कम एक गुलदान 
					जरूर होता और कुछ किताबें। और हाँ, रौशनी मध्यम होती बल्कि 
					सिर्फ मोमबत्तियों की रौशनी होती।
 अभिनव को पहली बार अस्पताल वालों की अक्ल पर तरस आया वर्ना अब 
					तक सब अच्छा रहा। डॉक्टर बहुत अच्छा है, काबिल माना जाता है, 
					सारा स्टॉफ कर्मठ और खुशमिजाज है। पर इस समय उसे झुंझलाहट सी 
					हुई। कोई बात है भला, कमरे में टीवी है पर एक कुर्सी तक नहीं 
					है। हार कर वह बिस्तर पर बैठ गया। उसकी नजर बिस्तर के पास रखी 
					छोटी सी मेज पर गई जिस पर क्लीनेक्स के मैनसाइज टिशूज का 
					डिब्बा रखा था। वह कई सालों से इस सवाल का जवाब ढूँढ रहा है कि 
					क्लीनिक्स वाले मैनसाइज टिशू क्यों बनाते हैं। क्या इसी मतलब 
					के लिए? मेज पर कुछ पत्रिकाएँ भी पड़ीं थीं। उसने एक पत्रिका 
					उठाई। प्लेब्वाय का कोई पुराना अंक था। उसके नीचे भी इसी तरह 
					की पत्रिकाएँ थीं। वह मुस्कराया। पुरुष के सैक्स मनोविज्ञान को 
					कितना आसान समझते हैं लोग कि औरतों की दो चार अधनंगी तस्वीरें 
					देखते ही उत्तेजित हो उठेगा। अभिनव ने कुछ पन्ने पल्टे। 
					ज्यादातर गोरी और दो काली लड़कियों की तस्वीरें थीं। एक भी 
					एशियाई चेहरा नहीं। बेवकूफ! उसने खुद को डाँटा। चेहरे पर नहीं, 
					शरीर पर फोकस करो।
 
 दरवाजे पर कोई आवाज सी हुई। वह अचकचा कर उठ गया। ध्यान आया कि 
					नर्स के जाने के बाद वह लैच लगाना भूल गया था। उसने दरवाजा ठीक 
					से बंद किया और सामने खड़ी चुनौती का मुकाबला करने की रणनीति 
					बनाने लगा। यह तो करना ही पड़ेगा-रुपाली की खातिर, दोनों की 
					खातिर।
 
 अचानक उसकी नजर डीवीडी प्लेयर के पास रखे एक प्लास्टिक के 
					डिब्बे पर गई। खोल कर देखा तो हँसी आ गई उसे। कमरा भले 
					अस्पताली सूरत का हो पर इंतजाम पूरा है- डिब्बे में कुछ ब्लू 
					फिल्में रखी थीं। यानी पत्रिकाओं से मूड न बने तो फिल्मों से 
					बनाओ। उसने एक डीवीडी चलाया। एक गोरी लड़की और एक काला आदमी 
					टीवी स्क्रीन पर सैक्स की क्रिया में लीन थे। पृष्ठभूमि में 
					संगीत बज रहा था और उसके साथ सुर मिलाती उनकी आहें।
 
 अभिनव बोर हो गया। इस तरह की फिल्में उससे देखी नहीं जातीं- एक 
					सा यांत्रिक संगीत और एक सी नाटकीय आहों की आवाजें ऊब पैदा 
					करती हैं। उसने डीवीडी बंद किया और वापस डिब्बे में रख दिया। 
					फिर बिस्तर पर आकर बैठ गया।
 ''तुम कल्पना करना कि मैं तुम्हारे साथ लेटी हूँ।'' रुपाली ने 
					उसे छेड़ा था।
 
 अभिनव ने वही करने की कोशिश की। कपड़े उतार कर सफेद चादर पर लेट 
					गया और रुपाली की देह की गर्माहट को कल्पना में उतारने की 
					कोशिश करने लगा। उसने रुपाली के दाहिने कंधे पर उभरे छोटे से 
					तिल को छुआ, उसकी पीठ को अपनी उँगलियों के पोरों से सहलाया। 
					रुपाली को यह स्पर्श बहुत अच्छा लगता है या कभी लगता था। अब एक 
					अर्से से अभिनव के लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो गया है कि 
					रुपाली का मूड और पसंद क्या है। तकिए में मुँह गड़ाकर उसने 
					रुपाली के बालों की खुशबू को सूँघना चाहा। लेकिन यह रुपाली के 
					शैंपू की खुशबू नहीं थी। इस खुशबू से उसका रिश्ता बने और टूटे 
					बहुत साल बीत चुके हैं। यह मोगरा के फूलों जैसी भीनी सी खुशबू 
					थी जो शाजिया के बालों से आया करती थी। शाजिया की याद भी अजब 
					है। नहीं आती तो महीनों नहीं आती और फिर सहसा बिना चेतावनी के 
					दुर्घटना की तरह आती है। जहाँ आनी चाहिए वहाँ नहीं आती और जहाँ 
					नहीं आनी चाहिए वहाँ दरवाजा तोड़कर चली आती है। पर इस वक़्त 
					शाजिया की घुसपैठ का प्रतिरोध करना पड़ेगा।
 
 रुपाली पर ध्यान लगाओ-उसने मन को टोका। कई महीनों से अनिश्चय 
					और इंतजार के बीच शटल करती रुपाली पर उसे तरस आने लगा है। दो 
					साल से हर महीने वह कैलेंडर की तारीखों पर क्रॉस के निशान 
					लगाती रही है ताकि उसे याद रहे कि माहवारी किस दिन होनी चाहिए। 
					किसी महीने एक दिन भी लेट हो जाए तो सुबह सुबह बाथरूम में 
					प्रैगनेंसी होम टैस्ट करती मगर नतीजा नेगेटिव देखकर वह इतनी 
					लाचार और निरीह आँखों से अभिनव को देखती कि वह खुद को दोषी 
					महसूस करने लगता। और ऐसे क्षणों में रुपाली किसी जज की तरह 
					फैसला सुनाती-
 'तुम मन से मेरा साथ नहीं दे रहे। तुम चाहते ही नहीं।'
 'मैं क्यों नहीं चाहूँगा भला?' वह अपनी सफाई में बस इतना ही कह 
					पाता।
 अभिनव ने कई बार समझाने की कोशिश की।
 'दुनिया में कितने लोग हैं जिनके यहाँ बच्चे नहीं होते। मैं और 
					तुम एक दूसरे के साथ खुश हैं, क्या यह काफी नहीं है?'
 रुपाली रुआँसी हो जाती- 'मैं एक बार माँ बनना चाहती हूँ, क्या 
					इतनी सी बात तुम समझ नहीं सकते?'
 
 दस साल हो गए उनकी शादी को। लंदन में रहते हैं। दोनों अच्छी 
					नौकरी करते हैं। ऐश करते हैं। साल में दो बार हॉलीडे पर नए-नए 
					मुल्कों की सैर करते हैं- कभी फ्रांस, कभी ग्रीस, कभी टर्की, 
					कभी मोर्रको। वीकेंड ब्रेक्स का तो कोई हिसाब ही नहीं। 
					इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड का हर खूबसूरत शहर देख चुके हैं। 
					दोस्तों के सर्कल में लोग उनकी जीवन शैली से जलते हैं। लेकिन 
					पिछले दो सालों में रुपाली को शिद्दत से बच्चे की कमी का एहसास 
					हुआ है। सहसा उसे लगने लगा कि उम्र जैसे किसी छुट्टी की तरह 
					तेजी से बीत रही है और अगर वह माँ नहीं बनी तो अधूरी रह जाएगी। 
					एक बार अभिनव ने सलाह दी-
 'एडॉप्ट क्यों न कर लें, इतने लोग गोद लेते हैं बच्चों को। 
					हमें बच्चा मिल जाएगा और किसी बेसहारा बच्चे को एक अच्छा घर।'
 'तुम नहीं समझोगे, मैं माँ बनने के पूरे अनुभव को महसूस करना 
					चाहती हूँ।'
 और दो महीने पहले एक दिन रुपाली ने ऐलान किया-
 'हम लंदन में रहते हैं जहाँ हर तरह की मेडिकल केयर है। और आज 
					तक हमने इसका फायदा उठाने की नहीं सोची।'
 'कैसा फायदा?'
 'मैं आई वी एफ ट्रीटमेंट कराना चाहती हूँ। मैंने ऐसे 
					हॉस्पिटल्स की लिस्ट भी बना ली है जहाँ आई वी एफ का क्लिनिक 
					बहुत अच्छा है।'
 'पहले इस बारे में थोड़ा जान लें, समझ लें तब फैसला करते हैं।'
 'मैंने काफ़ी पढ़ा है, इंटरनेट पर भी देखा है।'
 'खासा महँगा इलाज है रुपाली और लंबा भी। इतना तो तुमने जान 
					लिया होगा।'
 'दो साल हॉलीडे पर नहीं जाएँगे, इतना सा फ़र्क पड़ेगा बस।' 
					रुपाली फैसला कर चुकी थी। उसने अभिनव से सीधा सवाल किया था-
 'तुम बताओ, तुम मेरे साथ हो कि नहीं?'
 अभिनव ने भरोसा दिलाया कि वह तो हर हाल में साथ है। एक बच्चे 
					का पिता बनने की चाह उसे भी है मगर कभी-कभी उसे रुपाली की माँ 
					बनने की इच्छा को जुनून की हद तक जाते देख डर सा लगता है।
 
 वह मुस्कराया, यह सोचकर कि जुनून का एक दौर उसने खुद भी देखा 
					है। तेईस-चौबीस साल की उम्र भी कैसी होती है- शायद चमचमाते हुए 
					नए-नए सिक्कों की तरह जिन्हें मुट्ठी में बंद करके लगता है कि 
					इनसे पूरी जिंदगी का अग्रिम भुगतान किया जा सकता है। इसी उम्र 
					का इश्क था अभिनव का शाजिया के साथ, आवेग और उन्माद की तमाम 
					हदों को चुनौती देता हुआ हालांकि दोनों जानते थे कि रास्ता 
					मुश्किल है क्योंकि रास्ते में मजहब और अभिनव की बेकारी के 
					ऊँचे-ऊँचे अवरोध खड़े थे। इसके बावजूद अभिनव की उन बेकार 
					दुपहरियों को शाजिया की मौजूदगी सुख और समृद्धि से भर देती थी। 
					दोपहर ढलते-ढलते जब उसके जाने का समय होता तो अक्सर अभिनव की 
					छाती पर मोगरे की खुशबू वाले अपने लंबे बाल बिखेरे शाजिया हजरत 
					अमीर खुसरो की लाइनें गुनगुनाती-बहुत कठिन है डगर पनघट 
					की...फिर शाजिया! उसने शाजिया के बालों को अपनी छाती से हटाया। 
					पर दीवार पर लगे जालों की तरह नहीं, कुछ ऐसे जैसे किसी फोटो 
					फ्रेम को नर्मी के साथ मुलायम कपड़े से साफ कर रहा हो। डॉक्टर 
					ने भी बड़ी मुलायमियत के साथ उसे समझाया था- देखिए यह धैर्य का 
					खेल है। आपकी बीवी चालीस की होने वाली हैं, इसलिए प्रक्रिया 
					लंबी भी हो सकती है। इस उम्र में सफलता का रेट बहुत ज्यादा 
					नहीं है। बाकी आपकी किस्मत। फिर डॉक्टर ने 'इन-विट्रो 
					फर्टिलाईजेशन' की जटिल प्रक्रिया समझाई-रुपाली के टेस्ट होंगे, 
					अभिनव के वीर्य का स्पर्म काउंट देखा जाएगा। अगर ठीक हुआ तो 
					उसे फ्रीज करके रख दिया जाएगा। वरना एक ऑप्शन यह हो सकता है कि 
					डोनर स्पर्म लिया जाए। पर वह आपकी मर्जी है। रुपाली का इलाज 
					माहवारी के दूसरे दिन से शुरू होगा। रोज इंजेक्शन लगेंगे, 
					फर्टिलिटी ड्रग्ज दिए जाएँगे अगर उसके हॉर्मोन लेवेल ठीक होंगे 
					और अगर उसकी ओवरीज में अंडे पनपते हैं तब उन्हें निकाला जाएगा, 
					अभिनव के शुक्राणुओं के साथ मिलाकर ट्यूब में फर्टिलाइज किया 
					जाएगा और उसके बाद उनमें से कुछ को वापस रुपाली के गर्भाशय में 
					डाला जाएगा। हो सकता है पहली बार में ही गर्भ ठहर जाए, पर हो 
					सकता है न ठहरे, कई बार जुड़वाँ बच्चों की संभावना भी बनती है, 
					और कई बार सारी प्रक्रिया फिर से दोहरानी पड़ती है। डॉक्टर ने 
					झूठ कहा कि यह धैर्य का खेल है। उसे कहना चाहिए था यह अगर-मगर 
					का खेल है।
 
 अभिनव के मन में फिर वही लाइन गूँजने लगी थी-बहुत कठिन है डगर 
					पनघट की...
 ''तुम मानसिक रूप से तैयार हो?'' उसने रुपाली से पूछा था जैसे 
					सारी जिम्मेदारी रुपाली की है, अभिनव का तो बस एक छोटा सा रोल 
					है इसमें। हाँ, रुपाली तो किसी भी डगर से गुजरने के लिए तैयार 
					है। अभिनव ने भी इधर आई वी एफ के बारे में अच्छा खासा शोध कर 
					डाला था। वह जानता है आने वाले महीने रुपाली के लिए और एक हद 
					तक उसके लिए भी, मुश्किल होंगे। थकाऊ और उबाऊ भी। फिर भी वह 
					पूरी निष्ठा के साथ रुपाली का साथ देने को तैयार है। पर इस 
					वक़्त अभिनव को अपनी भूमिका का यह पहला कदम उठाना ही मुश्किल 
					पड़ रहा है।
 ''पुरुष के लिए क्या मुश्किल है?'' आज सुबह ही रुपाली ने कहा 
					था। ''सेक्स तुम लोगों के लिए एक शारीरिक क्रिया है''
 ''तुम लोगों से क्या मतलब है?'' मेरी बात करो। इतना ही जाना है 
					मुझे? ''मैंने पिछले दो साल से कोई शिकायत की है तुमसे?''
 ''किस बात की शिकायत? क्या मैंने नखरा किया, इनकार किया कभी?'' 
					रुपाली की आवाज में तेजी आ गई थी।
 
 वह चुप रहा। क्या कहे कि पिछले एक लंबे अर्से से रुपाली की माँ 
					बनने की ख्वाहिश, उसकी हताशा, उसका तनाव-सब के सब बिस्तर में 
					आकर उनके बीच लेट जाते हैं, कि रुपाली के लिए अब प्यार और देह 
					सुख गौण हो गए हैं, आवेग और उत्तेजना के बिना संभोग सिर्फ 
					बच्चा बनाने की शारीरिक प्रक्रिया बनकर रह गई है रुपाली के 
					लिए। सब कुछ क्लिनिकल सा हो चला है। अभिनव ने कहीं पढ़ा था कि 
					आई वी एफ के इलाज के दौरान तनाव इतना बढ़ जाता है कि कुछ दंपति 
					नजदीक आने के बजाय एक दूसरे से दूर चले जाते हैं, संबंध टूटने 
					के कगार पर आ जाते हैं।
 ''बोलो, क्या शिकायत है मुझसे?'' रुपाली माथे पर सलवटें डाले 
					उससे पूछ रही थी।
 ''यही कि तुम मेरा काम बड़ा आसान समझ रही हो। जरा सोचो, बिना 
					तुम्हारे साथ के मूड कैसे बनेगा मेरा?'' वह मुस्करा कर बोला 
					था। क्या फायदा बेचारी रुपाली को चोट पहुँचाने का...
 ''कहा न'', वह सहज हुई। ''बस आँखें बंद करके सोचना कि मैं 
					तुम्हारे साथ लेटी हूँ।'' कहते हुए वह उससे सट गई थी, कुछ ऐसी 
					नर्मी और गर्माहट के साथ कि उस वक़्त अभिनव को अपनी जाँघों के 
					बीच तनाव महसूस होने लगा।
 ''देखा जादू?'' वह हँसते हुए बोली थी।
 ''तो चलो न इस जादू का फायदा उठा लें''- अभिनव ने कहा था। 
					''अभी, सोफे पर।''
 ''पागल हो गए हो, हॉस्पिटल पहुँचने में देर हो जाएगी। प्लीज, 
					चलो न, लौटकर, प्रॉमिज।'' और कहकर रुपाली ने चीजें समेटनी शुरू 
					कर दीं- फाइल, पर्स, चाबियाँ।
 
 वह कुछ पल यूँ ही खड़ा रहा था। अपने अंदर छटपटाते तूफान के आवेग 
					को समेटता हुआ। पर तूफान ऐसा थमा कि अब लौटने का नाम नहीं ले 
					रहा। कंबख्त नर्स भी आकर्षक नहीं थी कि उसे देखकर भावनाओं में 
					उफान आता, शरीर में हरारत पैदा होती। ठंडे सफेद बिस्तर पर लेटा 
					वह जिस्म में हरारत महसूस करने के उपाय कर रहा है। उसने फिर एक 
					पत्रिका उठाई लेकिन मजा नहीं आया।
 
 ''मैं हूँ न, फिर भी तुम ऐसी नंगी-नंगी पत्रिकाएँ क्यों पढ़ते 
					हो?'' शाजिया शिकायत किया करती थी।
 ''तुम हर वक़्त तो रहती नहीं हो। जब चली जाती हो तो इन्हें 
					पलटकर तुम्हें याद किया करता हूँ।''
 कुछ उस उम्र का तकाजा था और कुछ बेकारी का आलम। दोस्तों के पास 
					ऐसी पत्रिकाओं का ढेर लगा रहता था। वह भी शौक में उनसे उधार ले 
					आया करता। पर शाजिया ठीक ही कहती थी। शाजिया से उनका कोई 
					मुकाबला नहीं था। लेकिन शाजिया में जितना आवेग का ताप था, उतना 
					ही व्यावहारिकता का ठंडापन। जिस दिन उसने बताया कि वह 
					प्रैगनेंट है, अभिनव ने प्रस्ताव रखा-
 ''चलो कोर्ट में चलकर शादी कर लेते हैं। जो होगा देखा जाएगा।''
 ''पागल हो गए हो, दंगा करवाओगे?''
 ''फिर क्या करें?''
 ''एबार्शन!''
 ''मगर क्यों?''
 ''इसलिए कि...''
 
 शाजिया ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया और उसके मुँह से एक छटपटाती 
					हुई सी साँस निकली मानों उस साँस को जाने कब से बंदी बनाकर 
					अंदर जकड़े रखा था उसने। पिफर बोली-
 ''तुमने मेरी स्टोप्स का नाम सुना है?''
 अभिनव ने सवालिया नजरें उठाई थीं।
 ''बुद्धू हो तुम, हर शहर में उनके क्लीनिक हैं। यहाँ दिल्ली 
					में भी हैं। वहाँ सब लीगल तरीके से होता है, ज्यादा सवाल भी 
					नहीं करते।''
 फिर शरारत से एक आँख दबाकर बोली थी-
 ''चलो एक दिन के लिए मेरे शौहर बन जाना।''
 
 उस दिन अभिनव बहुत नर्वस था पर शाजिया काफ़ी संयत। वह सुबह ही 
					उसके किराए के कमरे पर आ गई थी। वहाँ आकर किसी सहेली से उधार 
					लाई साड़ी पहनी, माथे पर बिंदी लगाई। अभिनव का सबसे नजदीकी 
					दोस्त गौरव थिएटर करता था। उसने दोनों का हल्का सा मेकअप कर 
					दिया ताकि उम्र में थोड़े बड़े लगें। मेरी स्टोप्स के क्लीनिक 
					में नाम लिखवाया- मिस्टर और मिसेज अभिनव कुमार। पता दोस्त का 
					दिया।
 ''आप दोनों तो बहुत यंग हैं अभी, पहला बच्चा होगा। फिर 
					क्यों?'' दक्षिण भारतीय सी दिखने वाली डॉक्टर ने सवाल किया। 
					अभिनव से जवाब देते नहीं बना। शाजिया ही बोली-
 ''अभी शादी को साल भी नहीं हुआ, हम लोग मानसिक रूप से तैयार 
					नहीं हैं और फिर इनकी नौकरी भी अभी परमानेंट नहीं है।''
 
 डॉक्टर को जवाब ठीक लगा। कुछ और कागजी खानापूरी के बाद शाजिया 
					को अंदर के एक कमरे में ले जाया गया। जितनी देर शाजिया अंदर 
					रही वह घबराया हुआ सा छोटे से वेटिंग रूम में चक्कर लगाता रहा। 
					पसीने की वजह से उसका मेकअप बहने लगा था पर इस वक़्त उसे पकड़े 
					जाने की भी फिक्र नहीं थी। फिक्र थी तो शाजिया की। कहीं कुछ 
					गड़बड़ न हो जाए। एक घंटे बाद उसी डॉक्टर ने आकर बताया कि सब ठीक 
					है पर आपकी पत्नी को कुछ घंटे यहीं आराम की जरूरत है।
 
 ''मैं उससे मिल सकता हूँ?'' अभिनव ने डरते-डरते पूछा था। 
					डॉक्टर उसे अंदर के कमरे तक ले गई। शाजिया के जिस्म पर एक सफ़ेद 
					चादर पड़ी थी। चेहरा पीला था। अभिनव को देखकर वह मुस्कराई और 
					बोली-
 ''डॉक्टर कह रही थी कि दो महीने चढ़ गए थे। और देर हो जाती तो 
					जरा रिस्की हो जाता।''
 ''तुम्हें पता नहीं चला इतने दिनों से?'' अभिनव ने सूखे मुँह 
					से पूछा था।
 ''चला था, पर इतना बड़ा फैसला लेने में टाइम लगता है अभि।''
 ''मैंने तो कहा था...''
 उसकी बात बीच में ही काट कर वह बोली थी-
 ''नहीं, इन हालात में और उलझनें पैदा करना ठीक नहीं था। अब हम 
					आजाद हो गए।''
 अभिनव कब आजाद होना चाहता था। उसने कहा था-
 ''कहो, मैं आजाद हो गई।''
 वह बस मुस्करा भर दी, एक पीली सी मुस्कराहट थी वो...
 उस दिन अभिनव ऑटो से शाजिया को उसके घर तक छोड़ने गया था।
 ''जल्दी आऊँगी'', जाते जाते वह बोली थी।
 पर एक महीने तक उसका कोई पता नहीं था। उसके इंतजार में वह एक 
					महीना अभिनव ने नौकरियों के लिए अर्जियाँ देकर काटा। तीस दिन 
					और तीस अर्जियाँ!
 
 इकत्तीसवें दिन वह आई और उसी दिन अभिनव की एक अर्जी के जवाब 
					में उसका बेकारी का दौर खत्म होने की खबर आई। ऐसे दिन आई 
					शाजिया, अभिनव के मिंटो रोड के उसी आठ बाई आठ के कमरे में। 
					चेहरे की गुलाबी आभा थोड़ी-थोड़ी लौटने लगी थी। आते ही बोली-
 ''आज इतना प्यार करो कि कोई कसर बाकी न रहे।'' कहकर उसने अपने 
					कपड़े उतारने शुरू कर दिए।
 उसने अपने बाल अभिनव के चेहरे पर झुका दिए। उसके नंगे जिस्म पर 
					खुले बाल किसी पहरावे की तरह लगते थे कि बिना कपड़ों के भी वह 
					ऐसी लगती थी जैसे बाहर जाने के लिए तैयार हो। उसके बालों से 
					आती मोगरे के फूलों की हल्की सी खुशबू अभिनव के जिस्म में 
					हमेशा एक तूफान सा मचाती थी जिसका मुकाबला करना उसके बस में 
					कभी नहीं रहा।
 ''रुको, मैं नहीं चाहता कि फिर वैसा कुछ हो।'' अभिनव का हाथ 
					किताबों के पीछे तक पहुँचा भी नहीं था कि शाजिया ने उसे बीच 
					रास्ते में रोक लिया-
 ''उसकी जरूरत नहीं है। यह मेरा सेफ दिन है।''
 ''पक्का?''
 
 जवाब में शाजिया ने उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिए थे। उस 
					दिन का प्यार, आवेग, सुख की अनुभूति-सब इतने भरपूर थे कि अभिनव 
					को लगा अब इसके बाद जो कुछ भी होगा, वह अधूरा होगा! शाजिया देर 
					तक उसके सीने पर सर रखे, बाल बिखराए सोती रही। शाम को उठी तो 
					कमरे की एकमात्र खिड़की से झाँकते आसमान के टुकड़े को देखकर 
					बोली-
 ''देखो, आसमान में कितने रंग हैं आज, ऐसा लग रहा है जैसे सलीम 
					चिश्ती की दरगाह पर लोगों ने अपनी-अपनी दुआओं के धागे बाँधे 
					हों।''
 पिफर उँगलियों से धागा बाँधने का अभिनय करते हुए बोली-''लो 
					मैंने भी दुआ माँग ली।''
 ''क्या माँगा?'' अभिनव ने पूछा था।
 ''तुम्हें।'' वह हँसकर बोली थी और पिफर देर तक आसमान को देखती 
					रही थी। शाम को मुँह हाथ धोकर तैयार हुई और उसके गले में बाहें 
					डाल कर बोली-
 ''अपना ख्याल रखना अभि।''
 ''फिर कब आओगी?''
 
 उसके सवाल और शाजिया के जवाब के बीच पल भर का मौन था पर उस पल 
					का वजन इतना था कि अभिनव से उठाए नहीं उठ रहा था। शाजिया ने 
					मानो यह भाँप लिया। उस वजन को हल्का करने की कोशिश में जरा सा 
					हँसकर बोली-
 ''अब नहीं आ सकूँगी।''
 ''क्यों?''
 ''मेरी शादी तय हो गई है अभि। दुबई का लड़का है। घर वालों की 
					पसंद है।''
 ''व्हॉट?'' अभिनव टूटे हुए स्वर में बस यही कह पाया था।
 ''तुम्हें मैं अपने साथ ले जा रही हूँ।'' जाते-जाते शाजिया ने 
					नाटकीय मुद्रा में अपने दिल पर हाथ रखकर कहा था।
 और वह चली गई- अभिनव के जिस्म में अपने जिस्म की सारी गर्माहट, 
					कमरे में मोगरे के फूलों की खुशबू और हाथों में दो आँसू छोड़कर। 
					सिर्फ दो-न उससे कम, न ज्यादा। वह यह भी न बता सका कि उसे 
					नौकरी मिल गई है।
 'ओ शाजिया!' उसके मुँह से शाजिया का नाम एक सिसकी की शक्ल में 
					निकला-कुछ इतनी तेजी के साथ कि लगा सालों से शरीर के किसी 
					तहखाने में बंद थी यह सिसकी।
 
 कैसी होगी शाजिया... कितने बच्चों की माँ बन चुकी होगी? 
					कभी-कभी जानने को मन करता है अभिनव का। उसने आँखें खोलीं। लगा 
					इतनी देर तक गुनगुने पानी में मोगरे की पंखुड़ियों से भरे टब 
					में लेटा था। शाजिया की याद ने उसका मुश्किल लगने वाला काम 
					आसान कर दिया था। उसके पुरुषत्व का प्रमाण एक प्लास्टिक की 
					बोतल में कैद हो चुका है। वह उठा। बाथरूम में जाकर हाथ मुँह 
					धोया, सफेद तौलिए का इस्तेमाल किया, कपड़े पहनकर तैयार हो गया 
					और नर्स को बुलाने के लिए घंटी बजाई।
 
 रिसेप्शन से लगे हुए वेटिंग रूम में रुपाली उसका इंतजार कर रही 
					थी और दीवारों पर लगी बच्चों की तस्वीरों को एकटक देख रही थी। 
					रुपाली जब भी यहाँ आती है इन तस्वीरों को देखती है। यह उन 
					बच्चों की तस्वीरें हैं जो इस क्लीनिक में आई वी एफ से पैदा 
					हुए हैं। स्वस्थ और गोलमटोल बच्चे। उसे देखकर रुपाली ने पूछा-
 ''क्या हुआ?''
 ''क्या होना था?''
 ''आई मीन, इतनी देर लगा दी तुमने।''
 ''नंगी तस्वीरों को देखकर उत्तेजित होने की उम्र जाती रही।''
 ''तो?''
 ''तो क्या, तुम्हारी सलाह मानी, आँखें बंद करके सोच लिया कि 
					तुम साथ लेटी हो'', उसने हँसकर कहा।
 उसे लगा रुपाली की आँखें जरूरत से ज्यादा वक़्त तक उसके चेहरे 
					पर टिकी रहीं जैसे उसके कथन के झूठ सच को तोल रही हों। उसने 
					नजरें चुरा लीं। रुपाली उठ खड़ी हुई।
 हॉस्पिटल से बाहर आकर उसने घड़ी देखी-पौने चार। दोपहर ढलने को 
					है।
 
 ''लैस्टर स्केव्यर चलें? कोई फिल्म देखते हैं और उसके बाद 
					चाईनीज डिनर'' अभिनव ने पूछा।
 रुपाली ने कोई जवाब नहीं दिया। जाने किस सोच में गुम है। अभिनव 
					ने अपनी एक बाँह से उसके कंधों को घेर लिया।
 ''थोड़ी देर सामने घास पर बैठें?'' रुपाली ने धीमे से कहा। 
					हॉस्पिटल के सामने एक बड़ा सा मैदान है जिस पर हरी घास बिछी है। 
					उसने हामी भरी। क्यों नहीं, उसने सोचा। लंदन में बाहर खुले में 
					बैठने के दिन ही कितने होते हैं। वे पार्क के एक कोने में आकर 
					बैठ गए। आसमान साफ है और अभी दिन का उजाला बचा हुआ है। रुपाली 
					की नजरें पार्क के दूसरे कोने में बने बच्चों के झूलों की तरफ 
					लगी थीं जहाँ दो बच्चे खेल रहे हैं। थोड़ी देर खामोशी किसी 
					तीसरे की परछाई की तरह उनके बीच पसरी रही। अभिनव को रुपाली की 
					ऐसी खामोशी से आजकल डर लगता है। उसने रुपाली का हाथ अपने हाथ 
					में ले लिया।
 ''क्या बात है डार्लिंग?''
 ''मेरे हॉरमोन टेस्ट के रिजल्ट आ गए हैं।'' रुपाली ने कहा। फिर 
					मिनट भर चुप रहकर बोली-
 ''ठीक नहीं हैं।''
 ''इसमें परेशानी की क्या बात है? आई वी एफ में इसका भी इलाज 
					होगा।''
 ''हाँ है तो पर रास्ता और मुश्किल हो जाएगा। मैं रिसेप्शन पर 
					कुछ औरतों से बात कर रही थी। उन्हें दो-दो साल हो गए इलाज 
					कराते और अभी तक कुछ नहीं हुआ।''
 ''कम ऑन, अभी तो इब्तदाए इश्क है।'' अभिनव ने रुपाली का मन 
					हल्का करने के लिए मजाक के लहजे में कहा, ''तुम अभी से हार 
					मानने लगीं?''
 
 रुपाली ने जवाब में सिर्फ़ चोट खाई नजर से उसे देखा। अभिनव इन 
					दिनों वाकई तय नहीं कर पाता कि रुपाली किस बात से खुश होगी और 
					किस बात से दुखी। अबकी उसने गंभीर स्वर में कहा-
 ''ऐसी बहुत सी औरतें हैं जो पहले साल में ही माँ बन गईं। 
					तुम्हें पता है इस डॉक्टर के हाथों सैंकड़ों बच्चे पैदा हुए 
					हैं।''
 ''पर मेरी उम्र की औरतों में सफलता के चांसेज कम होते हैं।''
 ''तुम्हें पॉजिटिव सोचना चाहिए। और फिर साइंस दिन-ब-दिन और 
					तरक्की कर रही है। तुम जरूर माँ बनोगी।''
 उसे लगा रुपाली ऐसे मुस्कराई जैसे कोई दूसरे के झूठे दावे को 
					उसकी खुशी के लिए सच मान ले।
 ''सच सच बताऊँ मैं माँ क्यों बनना चाहती हूँ?''
 ''मैं जानता हूँ।''
 ''नहीं, तुम नहीं जानते। तुम समझ ही नहीं सकते।'' रुपाली ने 
					अपना हाथ छुड़ा लिया और उसकी तरपफ देखा।
 ''मैं सिर्फ इतना चाहती हूँ अभि कि तुम्हारा एक अंश इस दुनिया 
					में ला सकूँ। तुम डिजर्व करते हो। वर्ना मुझे ऐसा लगेगा कि 
					मेरी वजह से तुम भी अधूरे रह गए।''
 रुपाली की आँखों में आँसू उमड़े पर बाहर नहीं आए। मानो बाहर की 
					ठंड से वहीं जम गए। वह पल भर के लिए अवाक उसे देखता रहा।
 
 ''मैंने तुम्हें कभी यह एहसास कराया कि मैं बच्चे की कमी महसूस 
					करता हूँ?'' अभिनव ने बहुत अपनाईयत के साथ कहा।
 ''नहीं, पर इसीलिए तो मुझे ज्यादा गिल्ट होता है।''
 ''नहीं होना चाहिए। हम दोनों ने ही बच्चे के बारे में पहले कभी 
					नहीं सोचा। अपने आप को इस तरह तकलीफ मत दो। अब इलाज शुरू हुआ 
					है तो...''
 ''और अगर इस इलाज के बाद भी कुछ नहीं हुआ तो?'' रुपाली ने उसकी 
					बात बीच में ही काट दी।
 ''ऐसा मत सोचो, और भी ऑप्शन्स हैं'' उसने कहा।
 ''प्लीज, मेरी बात सुनो अभि। मैंने पिछले कुछ दिनों से बहुत 
					सोचा है। सारे ऑप्शन्स पर सोचा है। सरोगेट मदर वाला ऑप्शन मुझे 
					कभी ठीक नहीं लगा क्योंकि मैं किसी दूसरी औरत की कोख का 
					इस्तेमाल करके उससे वह बच्चा नहीं छीन सकती जिसे उसने जन्म 
					दिया हो। इसलिए मैं सोच रही थी, अगर इस इलाज के बाद भी मैं माँ 
					नहीं बन सकी तो तुम अपने स्पर्म डोनेट कर देना। और तुम जानते 
					हो स्पर्म डोनेशन की बड़ी जरूरत है।''
 ''क्या पागलों जैसी बात कर रही हो? ऐसे किसी को भी क्यों दान 
					कर देंगे? और होगा क्या उससे?''
 ''मुझे खुशी होगी।'' रुपाली ने कहा
 ''किस बात से? तुम्हें बस यह सोचकर खुशी मिलेगी कि दुनिया में 
					कहीं किसी अनजान बच्चे से तुम्हारे पति का डीएनए मैच करता है? 
					हाऊ रिडिक्यूलस!''
 ''नहीं अभि, कानून बदल गया है। स्पर्म डोनेशन देने वाले की 
					पहचान अब गोपनीय नहीं रखी जा सकती, यह कानून है। जरा सोचो 
					हमारे घर में न सही, पर दुनिया में कहीं, किसी कोने में, किसी 
					घर में तुम्हारा एक अंश पैदा होगा, बड़ा होगा। और अट्ठारह साल 
					का होने के बाद उसे यह जानने का हक होगा कि उसका पिता कौन 
					है।'' रुपाली अजब निश्चय और विश्वास भरे स्वर में बोल रही है। 
					अभिनव उसे देखता रहा।
 
 अचानक शाजिया का कहा आखिरी वाक्य अभिनव के कानों में गूँजा- 
					'तुम्हें मैं अपने साथ लेकर जा रही हूँ'... यही कहा था न उसने? 
					क्या शाजिया शादी से पहले आखिरी बार उसके पास इसीलिए आई थी 
					कि...?
 
 यों रुपाली को वह बता चुका है शाजिया के बारे में, लेकिन हर 
					बात नहीं। हर बात बताई भी नहीं जा सकती। शाजिया के साथ उसके 
					अंतरंग पलों पर सिर्फ शाजिया का हक है, किसी और का नहीं। 
					शाजिया के शौहर का भी नहीं, रुपाली का भी नहीं। और अब तो शायद 
					खुद अभिनव का भी नहीं...।
 
 
  उसने 
					रुपाली की तरफ देखा। सर्दी से उसकी नाक गुलाबी सी होने लगी है, 
					खुले गले में पड़ा मफलर हवा से धीरे-धीरे काँप रहा है, होंठों 
					पर एक उदास सी मुस्कान है। उसका मन हुआ कि ऐसा कुछ कहे जो 
					रुपाली की उदास मुस्कान को खिलती हुई हँसी में बदल दे। कुछ ऐसा 
					जो रुपाली को आश्वस्त कर सके। पर वह बस इतना ही कह सका- ''ठंड बढ़ने लगी है, चलो अपने घर चलें।'' और हाथ बढ़ाकर रुपाली 
					के कोट का ऊपरी बटन बंद कर दिया जैसे वह छोटी सी बच्ची हो।
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