अचानक
उस की दृष्टि स्थिर हो गई। जिस ट्यूब को वह देख रहा था, उस में
उस की चेतना मूर्त होकर पत्थर हो गई थी। कहीं कुछ दरक गया था।
संशयों और अविश्वास के बीच उस की अंगुलियाँ ठिठक गई थीं और
मानसिकता कुंद हो गई थी।
ऐसे कैसे हो सकता है!
क्या सच में ऐसा हो सकता है?
ये तो जान चुका है कि वह आज से तीस बरस पहले का जन्मा टेस्ट
ट्यूब बेबी है। कितना बड़ा अजूबा था यह तब! आज तो यह आम बात हो
गई है। पर मेरे पापा का स्पर्म इस ट्यूब में आज भी ज्यों का
त्यों है, कैसे! उस ने लेबल को प्रखर रौशनी में रखा और देखा उस
पर लिखा था "परिवर्तित"। यह एक नया इतिहास अपने पन्ने खोल रहा
था। क्षण भर के लिये वह संज्ञा शून्य हो गया। माथे पर पसीने की
बूँदें चू आईं और चेहरे का रंग भी शायद बदल गया था। पर यह सब
कैसे हो सकता है?
परिवर्तित शब्द से उस के अंदर जैसे साँप रेंगने लगे। वह काम को
भूल कर एक बारगी लेबॉरटरी से बाहर निकल गया। चाह रहा था
प्रोफेसर निकलसन उसे न देखें। कोई भी न देखे। वह अपने साथ लड़
रहा था। वह बाहर आकर लेबोरटरी के बरामदे में खड़ा हो गया। सुदूर
तक बिल्डिंग के चारों और वीपिंग विलोस के पेड़ अपनी सदाशयता में
सिर झुकाये खड़े थे। ठीक ही किसी ने इन का नाम रखा है वीपिंग
विलोस। उसे लगा आज उस का सारा वजूद इन पेडों जैसा हो गया है।
अभी अभी उस के मन के भीतर का एक विशिष्ट स्थान खाली हो गया है।
एक खोखल रह गया है वहाँ जहाँ उसने आज तक अपने को बिठा रखा था।
उसे लगा किसी ने उसे अपदस्थ कर दिया है। सांइटिस्ट होने के
नाते उसे सारी कहानी पारदर्शी शीशे सी उजागर दीख रही थी।
यह कैसे हो सकता है वह अपने आप में कसमसा रहा था। पर शायद आज
सब कुछ या कुछ भी हो सकता है इस नई दुनिया में। तुम जिस साइंस
क्षेत्र में काम करते हो तुम से बेहतर कौन जान सकता है पुरू!
वह अपने आप को ही इस प्रश्नोत्तर की सूली पर चढ़ा रहा था। उसे
लगा वह अपने आप को नोच डालेगा।
डाक्टर $ १०,०००, इंजीनियर $ ८,०००, साइंटिस्ट $ ९,०००,
प्रोफेसर $ ७०००। ये सारे आँकड़े उस की आँखों के सामने
झिलमिलाने लगे। स्वयं उसी के हाथों से ये लेबल लगवाये जाते थे
कभी। आज तो यह दर बहुत कम हो गई है। यह एक प्रोफेशन बन गया है।
कोई भी बाँझ माँ बन सकती है। कोई भी बेऔलाद औलाद वाला। क्या
करिश्मा है साइंस का। प्रकृति के पेट में गंडासे घुसेड़ो और जो
चाहे निकाल लो। न परम्परा, न धर्म। न पुश्तैनी रक्त, न रिश्ते
की पावनता कुछ भी तो नहीं चाहिए। कहाँ गई वह जायज-नाजायज की
परिपाटी, पवित्र अपिवत्रता के समझोते या वैध-अवैध संतान की
मान्यताएँ। स्कूल में पिता के नाम के बिना दाखिला नहीं। नाजायज
गर्भवती का समाज में स्थान नहीं और आज वही किसी का भी स्पर्म
खरीद कर वैध माँ बन सकती है। अब उसे किसी वंचना की अपेक्षा
नहीं। चाइना ने तो स्पर्म कोल्लेक्टिंग मशीन तक बना कर इसे
इतना सस्ता बना दिया है कि सब पवित्रताएँ चुल्लू भर पानी में
डूबने चली गई हैं। थोड़ी सी जानकारी डालो, कृत्रिम ढंग से
उत्तेजित होकर वीर्य दो और पैसे लो। किस अवैध समाज की सरंचना
हो रही है, इस की परवाह किसी को नहीं। पुरू की बौखलाहट कभी
अपने पर, कभी माँ पर कभी पिता पर और कभी इस नई नवेली साइंस की
प्रगति पर उतर रही थी। वह कहीं अपने से दूर चला गया था। अपनी
आँखों के सामने ही वह आज यतीम हो गया है।
यह मेरे पिता नहीं हैं तो कौन है मेरा पिता!
माँ ने ऐसा क्यों किया?
सामने चर्च की बुर्जी पर कबूतर बैठे थे, विलग पर आपस में गुटुर
गूँ करते हुए। क्या इन के संसार में भी वैध अवैध होता होगा
अपनी बनाई दीवारों-परम्पराओं और सीमाओं को कोई कैसे इतनी आसानी
से लाँघ सकता है। समुद्र, नदियाँ अपना बाँध तोड़ देते हैं तो
क्या होता है केवल विध्वंस। सुनामी आ जाती है। आज समाज में वही
सुनामी आ रही है। जहाँ कोई किसी को नहीं पहचान पायेगा। कोई
किसी का नहीं होगा। कहीं एक वंशज भी कहने को नहीं होगा। यह
प्रवंचना कहाँ ले जायेगी? कोई अपना मुँह कैसे देखेगा शीशे में!
कोई अपनी संतान को क्या जवाब देगा? क्या कोई मुँह भर कर कह
सकेगा, तू मेरा बेटा है। हर बार कहते हुए कुछ टूट जाएगा। यों
भी संबंधों के बीच संबंध होते हैं। संबंधों के संबंध रक्त के
संबंध। उस सब के बीच एक मर्यादा होती है जो उम्र भर निभाई जाती
है। इन्हीं मर्यादायों की अवमाननाओं से संबंध बिखरते हैं, समाज
टूटता है। संवेदनाएँ तितर -बितर हो जाती हैं।
आज के इस रहस्योद्घाटन ने मुझे अवैध और यतीम कर दिया है। मेरी
पहचान छीन ली है। मेरा स्वत्व, मेरा वजूद धराशाई कर दिया है।
मैं दुनिया का सब से अभिशप्त लावारिस हूँ। इस प्रश्न के
चक्रव्यूह में मैं आज घिरा बैठा हूँ। कैसे निकलूँ इस से बाहर।
कौन सी युक्ति लड़ाऊँ कि इस घेरे को अनदेखा या अनहुआ कर के इस
से बेदाग़ निकल जाऊँ।
माँ आज मुझे आप का माँ होना भी बेमानी लगता है। मुझे मेरे
संस्कार आप को कोसने का अधिकार नहीं देते। पर आज समझ सकता हूँ
जब यहाँ के बच्चों को अपनी माँ को 'बिच' कहते हुए सुनता था तो
कैसे झुँझलाता था। आज यह झुँझलाहट कितनी बेमानी लगती है। आज उन
बच्चों की माँ के प्रति नकारात्मकता को तह तक महसूस कर सकता
हूँ। अपने अंदर कितने छलनी होकर वे ऐसे शब्द कह पाते होंगे जब
वे अपनी माँ को दूसरों की बाँहों में अपदस्थ देखते होंगे। मैं
स्वयं को ठोक-ठोक कर पूछता हूँ क्या सच में तुम मेरी ही माँ
हो। तुम मेरी माँ कैसे हो सकती हो! इतना महत्वाकांक्षी होना,
इतना अहमी होना तुम में कहाँ से आया माँ! मैंने अपना ननिहाल
देखा है, उस सब के बीच में आप की गिरावट का कोई तोल नहीं
बैठता।
मैं मानता हूँ जो चीज सब को आसानी से मिल जाती है वह आप को
नहीं मिली। उसे पाने के लिये या कहो मुझे पाने के लिये आप को
कितनी मानसिक शारीरिक सुरंगों से दो- दो हाथ होना पड़ा है। अपने
मन को भी मारना पड़ा होगा। शायद आप के प्रति पापा की यह बेरुखी
के पीछे यही सब हो। यों मुझे यह मानने में एतराज नहीं होना
चाहिए कि आप मेरी माँ हो, माँ तो आप हो ही मैं आप के ही माँस
का लोथड़ा हूँ। आप ने ही मुझे धारण किया है पूरे साढ़े नौ महीने।
कितना दुखदायी रहा होगा। उस से पहले का सारा तारतम्य सारी
प्रक्रिया, सारी शल्य क्रियाएँ और उस पर कैसे आप मेरी एक एक
साँस के साथ जीती और मरती रही होंगी, कैसे हर बार अपना अंग-अंग
विस्तीर्ण कर के अलग अलग प्रक्रियायों के लिये अपने को उघाड़ती
रही होंगी यही नहीं न जाने किन किन हाथों ने आप को छुआ होगा।
अगर मैं आप की संतान होकर यह सब नहीं निगल सकता तो सोचो पापा
कैसे निगल सके होंगे। पर यह आज का सच न जाने किन किन रास्तों
से चल कर मुझ तक पहुँचा है। न जाने कितनी अँधेरी वीथियों में
ये सच मुझ से छुपता रहा होगा। क्या किसी तरह ये पापा के पास भी
पहुँचा होगा या पहुँच जाएगा। अगर हाँ तो आप के लिये उन की
उपेक्षा का मैं आज नामकरण कर सकूँगा। और उन के समक्ष नतमस्तक
हो सकूँगा।
न जाने किस की आत्मा ले कर मेरा जन्म हुआ है कि इस जन्म में
मैं अपनी ही माँ से प्रतिशोध ले रहा हूँ उन्हें गलत साबित करने
पर तुला हूँ। क्षमा करना माँ मैं इतना विशाल हृदय नहीं हूँ कि
इस जघन्य अपराध के लिये क्षमा कर सकूँ और पहले की तरह हँसता
खेलता रहूँ। कैसे दोहरी जिंदगी जी सकता हूँ! कैसे मुखौटा पहन
सकता हूँ! कैसे सह सकता हूँ ये अपने ही जीवन का विरोधभास, इतना
बड़ा विध्वंस मेरे संबंधों का। यह तो ऐसा ही है जैसे हिरोशिमा
नागासाकी पर बम गिरा हो और सब का अस्तित्व देखते देखते मिट्टी
में मिल जाय। आप आँख भी न खोलें और धूल हो जाएँ।
नहीं जानता इतने सालों से आप ने इस झूठ को कैसे अपने अंदर पाल
रखा है। आज भी पाला हुआ है धुआँ तक नहीं उठने दिया इस सुलगती
चिंगारी का। कहते हैं नारी के कई रूप होते हैं पर शायद यह सब
से रहस्य्मय रूप है। नारी प्रसिद्ध है कि कोई बात उस के पेट
में नहीं छुप सकती। लेकिन उसी पेट में सालों क्या कुछ छुपा कर
रख सकती है आज जान पाया हूँ। इस से गहरा कुआँ और कहाँ मिलेगा!
आप को सीढ़ी के ऊपर खड़े रहने की तमन्ना थी और आज मेरे इस वजूद
को लेकर खड़ी भी हैं। मैं अपनी उम्र का नामी साइंटिस्ट माना
जाता हूँ शायद यही आप चाहती थीं। पर शायद आप नहीं जानतीं कि आज
उसी गली के मुहाने पर मैं आप के वास्तविक चेहरे को पहचान कर एक
अपरिचित हो गया हूँ। अगर मैं कहूँ कि इस से अच्छा आप कोई
सेरोगेट मदर ढूँढ लेतीं। तब आप कहोगी कि मैं पुरुष हूँ और
पुरुषवाद में बोल रहा हूँ। अगर पापा किसी दूसरी स्त्री को
गर्भवती कर के आप की गोद भरते तो क्या वह ठीक होता और अगर आप
ने ऐसा किया है तो क्या गलत किया है। इस में कम से कम
भावनात्मक या शारीरक संबंध बनाने की तो संभावना नहीं रह जाती।
आप ने किसी को छुआ नहीं, किसी के पास नहीं गईं। सम्भोग नहीं
किया लेकिन किसी पर पुरुष को अपने अंदर धारण तो किया है न! न
छूने पर भी पाप तो है ही। इस से भी बड़ा पाप कि आज आप ने मुझ से
मेरा पिता छीन कर मुझे अनाथ कर दिया। हमारे बीच का संबंध तंतू
तोड़ दिया। मेरा ब्रह्मण्ड खाली कर दिया। मेरा असितत्व अधर में
लटक गया। मेरे पिता मुझे छुएँगे तो मेरे अंदर एक खलाव उभर
आएगा। क्या मैं उन की आँखों में आँखे डाल कर उन्हें पापा कह
सकूँगा!
मैं मानता हूँ कि यह रहस्य आप ही नहीं साइंस भी सब से छिपा कर
रखती है। मानव जगत की वर्जनाओं का सांइस भी आदर करती है। जब तक
कोई लिख कर अनुमति न दे उम्र भर वह अज्ञात ही रहता है। सब कुछ
बायलॉजिकल नहीं होता, उस के पीछे छिपी मान्यताएँ और नैतिकताओं
का भी बड़ा मोल होता है। उसी पर हमारा मन, जीवन और सारा समाज
टिका है, इसे आप झुठला नहीं सकतीं। यों तो उफनते हुए दूध की
कोई कीमत नहीं होती, बचे हुये का ही असितत्व बाकी रह जाता है।
आने वाली दुनिया की अवैध नगरी में कोई नहीं जानता होगा कि वह
किसे अपना पिता कहे, कहे तो क्या सचमुच वह उस का ही पिता होगा!
गली-गली अवैध बेमेल चेहरे घुमड़ रहे होंगे और कोई पहचान नहीं
पायेगा उन्हें। अपने से मिलते जुलते नक्श देख कर केवल दाँतों
तले अँगुली दबा कर रह जायेंगे।
आप सोच रही होंगी कि आज मैं मान्यताओं और नैतिकता की बात कर
रहा हूँ जब कि मैं सदैव पुराणपंथियों को झुठलाता रहा हूँ। हाँ
माँ, यहाँ मैं यह कहूँगा की ये सब मान्यताएँ भी आप की ही दी
हुई हैं, आप से ही लिये हुए संस्कार हैं। याद है जब मैं इवाना
को डेट कर रहा था तो हर बार मुझे यही सुनने को मिलता था एक बार
सीमा पर कर के आप मलेच्छ हो जाते हैं। उस के बाद आप अपनी नजरों
में भी कभी उठ नहीं पाते। आज मैं इस विषय में आप को क्या कह
सकता हूँ। मैं नहीं जानता आप अपनी इस महत्वाकांक्षा के समक्ष
अपनी नजर में कितनी गिरी और उठी होंगी। पापा के बिज़नेस क्रैश
के बाद आप ऐसी बदलीं कि आप ने मनुष्य को केवल उस के पैसे से
मापना शुरू कर दिया। कभी व्यक्ति को व्यक्ति का दर्जा नहीं दे
पाईं। आप के पास सब को तोलने का एक तराजू आ गया ऊपर से पापा की
कमतर पढ़ाई ने आप की इगो को और भी हवा दे दी और आप दिन पर दिन
अपने आप को किन्हीं वैसाखियों पर खड़ा कर के ऊँचा समझती रहीं।
आज तक आप अपनी नजरों में जितनी गिरी होंगी सो गिरी होंगी पर आज
मेरे मन की ऊँचाई से आप पूरी तरह गिर गई हैं। कब मैं यह सब आप
को कह पाउँगा नहीं जानता पर उस समय आप पर क्या बीतेगी यह अवश्य
जानता हूँ कि वह स्थिति कोई सारभौम नहीं होगी। मेरे लिये भी
अति ग्लानिपरक ही होगी। मैं इस तथ्य को झटक नहीं सकता कि जिस
बाप को मैं अपना बाप समझता रहा वह कभी मेरा था ही नहीं। यह सोच
कर मेरा सारा अस्तित्व डोल जाता है, मेरी सुषुम्ना भरभरा कर
गिर जाती है। मैं हीन-क्षीण हो जाता हूँ, मेरी सारी शिरायें
झनझना कर लकवा ग्रस्त सी लुंज-पुंज हो जाती हैं। आज जान पाया
हूँ कि मैंने क्यों कभी उन के साथ संवेदनात्मक गहराई महसूस
नहीं की। आज स्वयं को झिंझोड़ कर उस धार पर चढ़ा कर देखता हूँ और
पाता हूँ कि मैं क्यों कभी उस बाप नुमा व्यक्ति को अपने अंदर
घुसा नहीं पाया। क्यों उस की हर बात का कोना मुझे टेढ़ा लगता
रहा। क्यों मुझे लगता रहा कि कोई मेरे बाहर से बोल रहा है।
क्यों वह अपनी तरफ बुलाते तो में उलटी दिशा में लौट जाता रहा।
आज प्राकृतिक नियमों की कहानी मेरे सामने खुल गई है कि सब कुछ
सजीव है, सब कुछ जुड़ा हुआ है। अंदर का जुड़ाव हो तो जुड़ाव होता
है अन्यथा हवा के झोंके सा सब कुछ उड़ जाता है।
जरा गहराई से सोचता हूँ तो लगता है शायद वह गहराई मैंने आप के
साथ भी कभी महसूस नहीं की सदैव अपने आप को समझाने की जुगत करता
रहा कि शायद आप दोनों के आपसी रोज-रोज के झगड़े, मनमुटाव,
भेदभाव, उलाहने-मेहनों ने मेरे अंदर एक घृणात्मक तटस्थता और
अलगाव भर दिया है जिस से मैं न कभी पापा के और न आप के नजदीक
हो सका। पर मैं आज तक आप के मूल मतभेद के कारण तक कभी नही
पहुँच सका। सुना है पापा ने आप को चाह कर ही विवाह किया था और
आप भी तो पापा को चाहती रही होंगी। तो क्या यह पापा की
सम्पन्नता खो जाने के बाद का प्रभाव है? क्या आप उन की कमतर
पढ़ाई को लेकर और बिजनेस के गिरने को केवल उन्हीं का दोष मान कर
उन्हें कोसती रहीं और अपनी नौकरी और पैसे की धौंस देती रहीं?
अगर कमाने की बारी आप की आ गई तो क्या? पहले पापा ही कमाते थे।
क्या पापा ने कभी आप को अपदस्थ या जलील किया! क्या उन्होंने आप
को कभी भी इस बात का अंदेशा दिया कि आप उन की कमाई खा रही हैं?
यह क्या विरोधाभास है माँ! जब आज स्त्री पूरी तरह से स्वतंत्र
है, बराबरी का हक माँगती है तो पुराने समय को भी अगर ध्यान में
रखा जाय तो एक ही जन कमाता था अगर अब आप ही कमाएँ, पैसा लाएँ
घर चलाएँ तो क्या अंतर पड़ता है। फिर ये पुराणपंथी अपेक्षाएँ
क्यों! यह भी नहीं कि वह कुछ लाते नहीं। मेरी फीस, मेरे नाज-
नखरे, घर के छोटे-मोटे बिल वही देते हैं, अगर आप घर की मोटी
किश्त चूका भी देती हैं तो क्या! उस के नीचे आप पापा की और उन
के अहम की रोज कब्र खोदती हैं। इसी लिये आप जब मुझे माँग रहे
थे और आप को यह नया विकल्प मिला तो आप ने झट से उसे ग्रहण कर
लिया। यह नहीं कि पापा का स्पर्म काम नहीं कर रहा था (मेरी नजर
से अब कुछ भी छुपा नहीं रहा) एकाध बार असफल जरूर हुआ था, पर
बाद में बिलकुल ठीक स्वस्थ हो गया था। फिर आप ने क्यों डाक्टर
से साँठ-गाँठ कर ली और पैसे देकर उस को मना लिया और स्पर्म की
अदला बदली कर ली। कैसे किया होगा यह सब आप ने यह कह कर कि मुझे
मेरा बच्चा कम पढ़ा-लिखा या निरुत्साही व्यक्ति नहीं चाहिए,
मुझे चाहिए जो ऊँचा उठ सके, आकाश छू सके। बहुत बड़ा आदमी बन सके
और एक बहुत ही काबिल डाक्टर का स्पर्म आप ने खरीद लिया। पापा
के स्पर्म के बदले और बीच की राशि के अंतर को आप ने पैसे से
पाट दिया। मालूम नहीं उस समय घर में पैसे की क्या स्थिति थी और
वह पैसा आप ने कहाँ से जुटाया! क्यों कि जो ट्रीटमेंट आप करवा
रही थीं उस पर भी बहुत पैसा खर्च हुआ था आप ने वह सब कैसे किया
मैं नहीं जानता। हो सकता है आप ने अपने गहने भी बेचें हों यह
कोई बड़ी बात नहीं क्यों कि जितना मैंने आज तक आप को जाना है वह
यही है कि आप की इच्छा से बड़ा कुछ भी नहीं होता और उस की
पूर्ति ही आप के लिये सब कुछ होती है। उस में रास्ते की कोई
दीवार आप के लिये ऊँची नहीं रह जाती। चाहे उस के सामने आप का
परिवार, समाज या मान-सम्मान ही क्यों न हो।
मैं अब इस क्षेत्र में काम कर के जान पाया हूँ कि यह माँ बनने
का सिलसिला अति व्ययी ही नहीं बहुत पीड़ा जनक भी होता है, चाहे
आप आई. वी. एफ ( I.V.F) वाला रास्ता पकड़ें या आर्टिफीसियल
इन्सेमिनाशन की राह जाएँ -यही नहीं दो दो सप्ताह इन्तजार के
बाद, कई बार यह प्रयोग फिर फिर दुहराने पड़ते हैं। कई बार
स्त्री अपना मानसिक संतुलन तक खो बैठती है और पति की सहनशक्ति
की सीमा टूट जाती है। इस के लिये मैं आप का जितना धन्यवाद करूँ
कम है। अगर सीधे-सीधे आप उस रस्ते पर चली होतीं तो आज मैं आप
के समक्ष नतमस्तक होता पर इस बीच एक अनैतिक दृष्टि आप ने कैसे
अपना ली कि पापा ज्यादा पढ़े नहीं हैं, सफल व्यापारी भी नहीं बन
सके। उन का भाग्य सदैव उन की तरफ पीठ मोड़े सोया रहा है, उन का
बच्चा भी वैसा ही होता। आप ही मुझे सुनाती रही हैं कि ये विविध
समय, विविध तरह की आत्माएँ होती हैं जो क्षितिज में विचरती
अपनी राह ढूँढती हैं और जहाँ उन का ठीक स्थान होता है, वहीं वे
जाती हैं। उस समय यह ध्यान नहीं आया आप को कि माता-पिता केवल
उन आत्माओं के वाहक होते हैं। अनपढ़ का बेटा दुनिया का सब से
बड़ा साइंस दान, डाक्टर या रिसर्चेर बन सकता है और पढ़े लिखे
ऊँचे घर के बच्चे आवारा, अनपढ़ और घोर अधमी निकल सकते हैं। अब
मेरे जीन्स जो भी हों शायद आप की आकांक्षाओं का पेट भरते हों
किन्तु उस के पीछे किये गए कृत्य पर क्या कभी आप को आत्मग्लानि
हुई? आप कभी उस व्यक्ति से मिलीं! कभी उस का अन्य रूप देखा पढ़ा
या सुना या आजमाया! क्या पता वह चारित्रिक रूप से कैसा हो। यह
सब आप ने जानना-समझना-सोचना आवश्यक नहीं समझा। बस एक धुन में
चल पड़ीं कि आप को अपना बच्चा बहुत ऊँचा चाहिए और वह किसी ऐसे
ही व्यक्ति से हो सकता है जो आप की दृष्टि में महान हो।
कभी कभी यह सोच कर मुझे लज्जा आती है कि मैं आप को माँ कहता
हूँ।
एक रात मैं यों ही फट भी पड़ा था! पर आप जिस भौंचक दृष्टि से
मुझे देख रही थीं मैं वहीं रुक गया। मैं महसूस कर रहा था कि आप
जिस जमीन पर खड़ी हैं वह काँप रही है। आप घबराहट में सीढ़ियों के
पास सरक आई थीं और कस कर रेलिंग को पकड़ कर खड़ी हो गई थीं।
मैंने इतना ही कहा था, आप मुझे जानती भी हैं!
"क्या कह रहे हो पुरू!"
-शायद मैं आप से कुछ पूछ रहा हूँ
"मैं समझी नहीं"
-मैं समझाना भी नहीं चाहता। इस का उत्तर आप स्वयं से माँगो।
वह हतप्रभ सी इधर उधर देखने लगी थी। उन्हें समझ नहीं आया था कि
पुरू किस छोर को पकड़ने की कोशिश कर रहा है पर कहीं कोई चीज
अंदर तक मथ गई थी उन्हें।
पर पुरू लौह-पुरुष सा निर्मम सीना ताने खड़ा था जैसे आज उसे कोई
सफाई चाहिए ही चाहिए थी।
"पुरू कहो तो सही क्या बात है"।
आज लगा कहीं उस ने उन के अंदर की किसी चिंगारी को हवा दे दी
है।
-क्या आप समझती हैं कि गर्भ में छिपी बातें सदैव छिपी रहती
हैं? नहीं माँ, एक दिन वह पूरे वजूद और आकार के साथ बाहर आती
हैं और निडर होकर सामने से वार करती हैं। जैसे आज मैं कर रहा
हूँ" मैंने अपने आप से कहा- उसी गर्भ से निकला हुआ सच मैं आप
के सामने खड़ा हूँ।
"साफ साफ कहो न क्या कहना चाहते हो!"
-साफ़ साफ़ सुन सकेंगी आप!
"ऐसा झूठ तो मैंने कभी बोला नहीं जिस को सुनने की हिम्मत मैं
रखती नहीं।"
-हाँ बोल नहीं सकतीं पर अपने अंदर वहन कर सकती हैं वह भी नौ
महीने तक! आज तक बल्कि अठाईस साल तक। बड़ा गहरा पेट है आप का
माँ! कुएँ की तरह गहरे तल तक आप का पानी सुरक्षित रहता है और
कोई झाँके तो केवल स्वच्छ जल...
"कहना क्या चाहते हो?"अब उन की जिव्हा पर कटुता उतर आई थी।
-मैं बताना भी चाहूँ तो शायद साफ़ शब्दों में न बता पाऊँ।
"छिपाने के लिये ऐसा क्या है, जो तुम शब्दों में नहीं बता सकते
पर माँ के सामने उपालम्भ और अनादर बन खड़े रह सकते हो ये अपमान
तुम कर सकते हो पर कह नहीं सकते।"
पुरू थोड़ा ढीला और शर्मिंदा हुआ पर कहीं अंदर डूब कर अपने आप
से लड़ने लगा।
-मुझे पता चल गया है मैं कौन हूँ!"
शिप्रा का सारा शरीर थर-थर काँपने लगा
-आप काँप क्यों रही हैं?"
"पुरू!..." एक दर्याद्र सी आवाज शिप्रा के मुँह से निकली। उसे
लगा किसी ने भरी सभा में एक बार फिर द्रौपदी का आँचल खींच लिया
है। एक बार फिर द्रौपदी व्यक्तिगत मान के समक्ष नंगी हो गई है
और सारी दुनिया उसे फिर से अर्धनग्न देख रही है। पर उन्होंने
साहस जुटा कर जोर से कहा
"कहो क्या कहना है।"
-बाद में कहूँगा।
उस समय पुरू देख रहा था, वह इतना विवश महसूस कर रही थी कि जैसे
अगली साँस गले में ही अटकी रह जाएगी और वह वहीं की वहीं ढेर हो
जायेगी।
अभी भी शिप्रा भयभीत पर पूर्णतया आश्वस्त थी कि वह नहीं हो
सकता जो वह सोच रही है।
पुरू ने अपने आप को झटका दिया और स्वयं को स्वस्थ और आश्वस्त
करने में जुट गया। वह सो रहा था या जाग रहा था पर आज वह क्या
करने जा रहा था। आखिर वह उस की माँ है।
पर क्या एक माँ के कर्तव्य में यह शामिल नहीं होता कि वह
बताये-उस का बाप कौन है? उन्होंने एक छद्म बाप के साये के नीचे
कृत्रिम मान-अपमान से बचने के लिये मेरी और अपनी जिंदगी काट
दी। उन्हें तो अपने विजयी होने पर भरपूर गर्व होगा और उसी भरी
पूरी आश्वस्ति के साथ वह जीती रही हैं। क्या कभी अपने आत्मा की
कचोट से दो चार होती होंगी! मैं तो केवल एक बेटे का हक माँग
रहा हूँ या माँगना चाहता हूँ। पर मैं भी किस से अपना स्वत्व
माँग रहा हूँ, जिस का अपना स्वत्व ही अपने पास नहीं है। जिस की
अपनी झोली खाली है वह किसी को क्या दान देगा!
आप मुझे जन्म देकर भी मुझे कृतार्थ नहीं कर पाईं माँ! मुझे
अपने स्वत्व से सामना करने का कोई हठ नहीं है, मैं तो उस अनजान
व्यक्ति से मिलना चाहता हूँ जो शायद स्वयं नहीं जानता कि वह
मेरा बाप है। वह यह भी नहीं जानता कि वह भी एक तिजारती है और
सदैव एक व्यापारी ही रहा है, उम्र भर एक अधूरा स्वार्थी इंसान,
जिस ने कभी पलट कर यह नहीं पूछा होगा कि वह और कहाँ- कहाँ
टुकड़ों में जी रहा है। किस-किस में उस की स्वार्थान्धता पल रही
है। अपनी ओर से वह समाज की या व्यक्ति विशेष की भलाई में जुटा
है, सूनी गोदों को हरी-भरी करने का सुख भोग रहा है। उसे यह भी
नहीं मालूम कि उस की तिजारती प्रकृति किन रूपों में सामाजिक
मूल्यों का अवमूल्यन करेगी या कर रही है।
मुझे लगता है मेरी इस कहानी का कोई तथ्य या छोर नहीं, कोई अंत
नहीं। यह एक अनंत काल तक अँधेरे में गूँजती चीख की तरह एक
पुकार बन कर प्रति गूँज करती रहेगी, यह कहती हुई कि हम ईश्वर
की बनाई प्रकृति का बलात्कार कर रहे हैं। विधना की बनाई सृष्टि
में विष के पौधे उगा रहे हैं। फूलों का रंग चूस रहें हैं। उन
की खुशबू को जहरीली कर रहे हैं अपने इन हीन कृत्यों से
मनो-मालिन्य और स्वार्थ से आने वाली दुनिया को एक अवैध नगरी
बना रहे हैं। कौन किस का बीज है केवल इस भूल-भुलैयाँ को मुखर
करते हुए।
परिवार की स्वायत्ता, संबंधों की पवित्रता, रक्त सम्बन्ध सब
ताक पर आ लगे हैं। एक निरवंश जंगल समाज पैदा हो रहा है। शायद
जंगल में जानवर हम से अधिक अपने रक्त की पहचान कर पाते रहेंगे
और यह निरवंशता सौ-सौ मुँह खोल कर गूँजने लगेगी।
मैं आज विज्ञान के इन कृत्रिम अविष्कारों और परिणामों को लानत
भेजता हूँ। आने वाली अवैध पीढ़ी पर थूकता हूँ।
मुझे मेरा पिता चाहिए, मुझे मेरी पहचान चाहिए। मैं कैसे जानू!
माँ तुम बताओगी या मैं लेबोरटरी में बैठ कर एक एक स्पर्म-क्रम
की तह तक जाकर उसे ढूँढू और स्वयं पाऊँ, नहीं तो मैं अपने
मनोशास्त्र में अवैध ही रहूँगा। किस पिता को अग्नि-दाह देने का
अधिकार मुझे मिल पाएगा!
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