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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से डॉ. सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी- 'अखबारवाला'


जया ने ज्योंही सुबह उठकर खिड़की पर छितरी ब्लाइंड्स का कान मरोड़ा, उजाला धकियाता हुआ अन्दर घुस आया। इस उजाले के साथ-साथ हर सुबह एक सन्नाटा भी कमरे के कोने में दुबका पड़ा -उठ खड़ा होता था। इतने वर्षों के बाद आज भी दूर अपनी खिड़की से झांकता बरगद का पेड़, चिड़ियों की चहचाहट, रंभाती गाएँ, पडोसी के चूल्हे से उठता उपलों का गंधित धुआं, मिटटी की कुल्ली में उबलती चाय का पानी - मन के किसी कोने में सुबह की दूब से उभर आते और सारी सुबह पर जैसे अबूर छिडक देते। अन्यथा इस सड़क पर न कोई आहट, न ट्रेफिक की धमाधम, न चिल्लपौं, न स्कूल जाने वाली बच्चों की मीठी भोली चिटकोटियाँ... उसकी हर सुबह एक अधूरेपन के ग्रहण से ग्रसित हो जाती...

ब्लाइंड्स खोलने के बाद वह चाय का पानी चढ़ाती और फिर किवाड़ खोलकर बाहर से अख़बार उठाती। आज किवाड़ खोलते ही उसकी अलसायी अधखुमारी सी नीद काफूर हो गई। वह कुछ क्षणों के लिये जैसे प्रस्तर मूर्ति बन गई। सामने वाले घर के बहार फ्युरेनल वैन खड़ी थी...

उठने से पहले वह बहुत देर तक करवटें बदलती और अपने रोज के सन्नाटों से रोज की तरह समझौता करती रही थी। किसी आहट या सिसकी ने उसकी खिड़की पर कोई दस्तक नहीं दी। यों तो वह उन बंद कमरों वाली जिंदगी की आदी हो गई है। दूर-दूर तक फैला सन्नाटा उसे सालता रहता है पर एक चुप सा समझौता भी उसने कर लिया है। आस-पड़ोसियों से ग्राहक और दूकानदार जैसा रिश्ता उसे काटता ही है लेकिन आदत बनती जा रही है। हेलो- हाय स्टिक नोट की तरह एक तरफ से उधड़ी, दूसरी तरफ से चिपकी सी मुस्कान व्यक्ति के अस्तित्व को समाप्त कर देती है। अपने आप पर केन्द्रित यह समाज कितना बेलाग और बेगाना है। इस घर में आये अभी दो ही साल हुए है और किसी के साथ हेलो --हाय से अधिक नाता नहीं बना। किन्तु पिछले घर में तो वह लगभग दस साल तक रही थी। घर भी बच्चों से भरा-भरा था फिर भी पड़ोसियों से पहचान दूर से फेंके गुल्ली-डंडे सी ही सिमित रही थी। यहाँ आकर भी, अपनी ओर से वह जानने की कोशिश करती रही है कि आसपास कौन रहता है, कैसा है, उनके निकट भी जाने का प्रयत्न करती रहती चाहे यहाँ की सभ्यता के निमित्त वह बौडम या पुशी ही कहलाये।

सुबह बाहर दालान में चक्कर लगते हुए वह अपनी साथ वाली पड़ोसिन की इधर-मुड़ कर देखने की दृष्टि को पकड़ने की तब तक लिका छुपी खेलती रहती जब तक वह उसे गुड मोर्निंग न बोल लेती...पर वह इधर देखने के प्रयास किये बैगर और गुड मोर्निंग को बिना स्वीकारे घर के अन्दर चली जाती जैसे जया की गुड मोर्निंग को छूते ही उसका धर्म या रंग भ्रष्ट हो जायेगा। दूसरी तरफ की पड़ोसिन मिस स्मिथ को वह समोसे खिलाती रहे, अच्छी-अच्छी हिन्दुस्तानी शादियों की वीडियो दिखाती रहे, तभी तक खुश है वरना तू कौन और मैं कौन ! एक तरफा फाटक कब तक खुला रह सकता है?

बदहवासी में उसने दरवाजा खोला और बिना अखबार उठाये सामने वाले घर की और चल पड़ी जहाँ वैन खड़ी थी। वह अन्दर से इतनी विह्वल थी कि उसे मालूम नहीं हो रहा था कि इस स्थिति में कैसा व्यवहार करे...?

अपना देश होता तो यह ऊहापोह न होती, झिझक का तो प्रश्न ही नहीं था। सीधे अन्दर घुस कर उस स्थिति में पूरी तरह आत्मसात हो जाती। पर इस पराये देस में क्या करे? ऊपर से वह उस घर में रहने वाले का नाम तक नहीं जानती। एक क्षण के लिये, उसने सोचा शायद यह वह व्यक्ति हो ही न, जिसके बारे में वह सोच रही है। यद्दपि उस घर से आते-जाते उसने एक ही व्यक्ति को आज तक देखा था--विशेषतः सुबह अख़बार उठाते हुए...

बाहर दालान में दो- तीन लोग खड़े थे। वह उनकी ओर बढ़ना चाहती थी और पूछना चाहती थी। तभी वह अपने बिल्कुल सामने वाले पडोसी को देखकर रुक गई और सोचा क्यों न उसी से कुछ पूछताछ करके अन्दर जाये। जया ने सोचा कि वह उनका बिल्कुल बगल वाला पडोसी है। जरुर कुछ-न-कुछ या शायद सब कुछ जानता होगा। यहाँ के लोगों का हम विदेशियों के प्रति रवैया गैरों जैसा है पर ये लोग तो इनके अपने है हालाँकि जया को इसका भी नाम पता नहीं था। तभी एकाएक आसमान से टपके फरिश्ते की तरह जया को उसका नाम याद आ गया। एक रात जया कहीं से लौटी थी तो उसकी चाबी कार में बंद हो गई थी। कार में गैराज ओपननर था, इसलिये वह गैराज नहीं खोल सकी। घर की चाबी भी कार की चाबी वाले गुच्छे में ही थी। रात के १० बजे थे। आसपास जंगल जैसा सन्नाटा था। उसी समय सामने वाला कहीं से लौटा था। उस अजनबी पडोसी को देखते ही जैसे उसकी जान में जान आ गई थी। ढीठता से बिन पहचान के भी उसने आगे बढ़कर मदद माँग ली थी। इसी सिलसिले में उनके बीच उस दिन नामों का आदान-प्रदान हुआ था- रिक...उसे याद आ गया।

हैलो ! कहती हुई जया उसकी ओर बढ गई।
यह क्या हुआ...?
वह भौचक्क हो कर उसकी ओर देखने लगा-जैसे उसने बहुत ही मुर्खता पूर्ण प्रश्न पूछ लिया हो...
आप को मालूम था!
नहीं! अभी-अभी पता चला है।
क्या बीमार थे-
हाँ-कुछ दिनों से-
आप मिले थे उनसे!
नहीं!
क्यों?
यह उनका व्यक्तिगत मामला है।

जया की सारी शिराएँ सकते में आ गई। बीमार होना, दुखी होना व्यक्तिगत मामला है किसी का दुःख बाँटना व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप हो जाता है। आज तक वह सोचती थी कि शायद परदेसी होने के कारन ये लोग हमसे जुड़ नहीं पाते। हमारा रंग, धर्म, संस्कृति बहुत अलग है। इनसे लेकिन इनका तो आपस में भी जुडाव नहीं है। न जाने क्यों जया की जिज्ञासा शांत नहीं हो पा रही थी। जया सोच रही थी कि वह तो बिल्कुल उनका नेक्स्ट डोर पडोसी है इसे तो सब मालूम ही होना चाहिए...

आप जानते थे वे बीमार है?

नहीं कभी बात नहीं हुई. बस एक दिन उनका लड़का बाहर अपनी कार स्टार्ट कार रहा था जो स्टार्ट नहीं हो रही थी, मैने उसकी सहायता की -उसी से पता चला कि उन्हें दो महीने पहले ही पेंक्रीआस का कैंसर डिटेक्ट हुआ है और वह भी अन्तिम स्टेज पर।

क्या कोई पहले चिन्ह नहीं थे? शायद वे जानभूझ कर टालते रहे हो. जया मूर्खों की तरह बोलती जा रही थी जैसे रिक उनका डाक्टर हो या कोई घर का जिगरी.

जया को वह ऐसी दृष्टि से देख रहे थे जैसे वह किसी गाँव की उज्जड गँवार औरत हो

आप अन्दर गए?

नहीं-

कब जाने वाले है-

अभी सोचा नहीं--और रिक कुछ देखने के बहाने से दूसरी ओर मुड़ गया...

जया हताश हो कर अन्दर लौट आई। उसे याद नहीं पड़ा कब उसने गैस औन कार दी थी। चाय का पानी-- सूख कर चुप हो गया था और केतली के तले की जलने की बदबू आ रही थी। उसने झपट कर गैस बंद कर दी। अब चाय की इच्छा जाती रही थी। वह कमरे में अनमनी सी चक्कर काटने लगी।

आप कहाँ जा रहे हैं पिताजी... उसने अपने ससुर को गले में साफा ओढ़ कर बाहर जाते देखा।

तुम्हारी गली के आखरी मकान में किसी का देहांत हो गया है। इस सेक्टर का पोस्ट मास्टर था वह शायद। जया ने एक हुंकारा भरा। अन्दर ही अन्दर वह दहल गई। धर्मपाल अंकल ! वह थोडा-थोडा उन्हें जानती थी। पर माँ-बाबूजी तो पहली बार इस घर में आए हैं--

आप तो उन्हें जानते भी नहीं पिताजी...

किसी आत्मा को अंतिम सत्कार देने के लिये जानना जरुरी नहीं बेटा और वह चले गए थे।

उसे याद है वह भूखे,प्यासे तीन चार घंटे बाद लौटे थे। वह हर दिन सोचती है कैसी है यहाँ की जिंदगी? यहाँ के ताबूतगाह की तरह खड़े हुए साफ-सुथरे घर... जिनमें कोई चहल-पहल नहीं। एक सन्नाटे में लिपटी हुई ये इमारतें जैसे--धीरे धीरे सुबकती रहती हों बेआवाज। यहाँ चहल-पहल केवल बागो,बागानों, नदी समुद्रों के किनारों पर देखी जा सकती है अन्यथा बंद कमरों में बंद जिंदगी। अन्दर से चमचमाते निर्जीव घर। न रसोई से उठती खुशबू, न बच्चों की खिलखिलाहट, न पेड़ों पर आते बौर पर चहकती चिड़िया, जैसे सब कुछ एक कृत्रिम आडम्बर में लिप्त हुआ सभ्यता का आडंबर। फ्यूनेरल वैन सामने खड़ी हो और पडोसी को उस की आहट तक न हो।

चारों तरफ पूरी तरह सन्नाटा था। एक भी व्यक्ति नहीं था। आसपास आने-जाने वाले भी फ्यूनेरल वैन को देखकर रास्ता बदल रहे थे। कहीं किसी खिड़की से कोई चेहरा नहीं झाँका। किसी आगन में बंधा कुत्ता तक नहीं भौका।

जया का मरने वाले से कोई नाता कोई पहचान तक नहीं थी। नाता सिर्फ इतना था कि हर सुबह वह उस सामने वाले घर से एक लम्बे-लम्बोतरे चेहरे वाले सौम्य व्यक्ति को अख़बार उठाते देखती और उस बहाने से झुक कर अखबार उठाते हुए-- कभी-कभी दूर से नज़रों का धुंधला सा टकराव होता और औपचारिकता से आधा उठा हुआ हाथ हेलो में हिलता। एक कल्पित सी मुस्कान शायद दोनों तरफ होती थी... या नहीं याद नहीं। बस इतनी सी पहचान थी, इतना सा नाता था। इस पहचान में कहीं भी अपनत्व या पडोसीपन नहीं था। बस एक ही योनि के प्राणी होने का आभास पूरा होता था। जंगल में जानवर भी इस रिश्ते को अपने ढंग से अवश्य निभाते होंगे। फिर दोनों ही अपने अपने ताबूतों में घुस जाते थे। न जया उनका नाम जानती थी न वे जया का नाम जानते थे। यहाँ तो दरवाजे पर नेम प्लेट लगाने का भी रिवाज नहीं है।

जया को ख्याल आ रहा था कि उसने वास्तव में कुछ दिनों से उन्हें अख़बार उठाते हुए नहीं देखा था पर ऐसा कुछ भी अन्यथा उसके मन में नहीं आया था। वह उम्र के अधेड़ मोड़ पर बालों में हल्की बर्फ की फगुनियों सी सफेदी लिये, शांत व्यक्ति को देखती थी। गंभीर चेहरा-- कभी ऐनक की कमानी आँखों से उतर कर गले में लटकती तो कभी आँखों को सँभालने कानों पर चढ़ी हुई होती। लम्बी लम्बोदरी सी टी- टीशर्ट और घुटनों से ऊपर उठी हुई निक्कर। यहाँ पूरा ढका नाईट सूट या गाउन पहन कर बाहर निकलना गलत--किन्तु शर्मनाक अर्धनंगी देहों की सड़क पर प्रदर्शनी उचित। वह ऐसे विरोधाभासों को लेकर मन ही मन झींकती। इसलिये स्वयं भी वह चाहे जितनी सुबह हो, कभी नाईट सूट पहन कर बाहर अख़बार उठाने नहीं निकली।

मालूम नहीं आज सूरज कहाँ मंडरा रहा था। जया बाहर निकली तब सूरज उनके घर की पीठ पर बैठा था। शायद उत्तरायण में उत्तरों-उत्तर था। जया के घर का दरवाजा पूर्व में खुलता था और सुबह उठते ही सूरज की ओर स्वतः प्रणाम में उसके हाथ उठ जाते थे। उसी क्षण ध्यान आता कि इस समय उसके अपने देश में तो रात है-तो क्या वह रात के सूरज को प्रणाम कार रही है? इसी ऊहापोह में उगते सूरज से कभी उसकी दोस्ती गाढ़ी नहीं हो सकी। कभी समझ में नहीं आया कि वह उगते सूरज को देख रही है या डूबते सूरज को?

आज उसे लगा शायद पिछली रात से ही सूरज उनके घर के पिछवाड़े पीठ मोड़ कर बैठा है।

वह कमरे में बैचनी के साथ कभी दायें तो कभी बांये घूमती है। बीच-बीच में खिड़की से स्थिति का अनुमान भी लेती है। पता नहीं क्यों उसे इंतजार है कुछ सिसकियों का...जो उनकी मृत्यु को कहीं शृंगारित कर सकती है।

कभी-कभी उसने उस व्यक्ति को सायं समय दफ्तर से लौट कर, कार को गैराज मैं पार्क करने के बाद अपनी डाक खोलते भी देखा है--बिना उधर उधर मुंह मोड़े और फिर अपने घर के अन्दर शाम की सूरज की तरह अस्त होते...

पहले कभी नहीं सोचा - लेकिन आज न जाने क्यों उनके लिये एक दयार्द्र सी व्यथा उभर आई है? क्या था जो उन्हें सालता होगा? वे इतने चुप और अकेले लगते थे। क्या काम करते होंगे? किसके साथ कैसी और किस विषय पर बाते करते होंगे? शायद जया के मन में उनके माध्यम से यहाँ के पुरुष के बारे में कोई राय बनाने की योजना रही होगी...पर कभी ज्यादा इस विषय पर उसने गौर नहीं किया था आज से पहले... अब तो ऐसा कुछ भी संभव नहीं था...कुछ भी जानने से पहले पूर्ण-विराम लग गया था, आज तक उसे--उनके घर कोई आता-जाता भी नहीं दिखा।

जया के पढने की टेबल बिल्कुल बेडरूम की खिड़की के पास थी। उसकी जिज्ञासू आँखें सड़क, गली और सामने वाले घरों की गतिविधियों पर गाहे-बगाहे नज़र रहती थी। इस देश में पुरुष नितांत अकेला रहता रहे--इस देश की सुनी-सुनाई ऋचाओं से कुछ अलग लगता था। उनके बारे में उठे हुए सवालों के जवाब दिए बगैर वे चले गए थे...

वह फिर खिड़की के पास सट गई है। फिर एक बार बैचन होकर बाहर की ओर लपकती है। लाश को वैन में रख दिया गया है। वह एक बार उस चेहरे को देखकर आश्वस्त होना चाहती थी कि यह वही चेहरा है। पर अब यह कदापि संभव न हो सकेगा... वह बाहर निकल गई थी। किसी को दो शब्द कहने के लिये वह आतुर हो उठी। वह कुछ न लगते हुए भी एक मानवीय आर्द्रता छोड़ गए थे...

उसे अपने आप में एक अजीब तरह की घुटन और बैचेनी महसूस हो रही थी, जैसे कहीं कुछ अधूरा है। वह इस बात से समझौता नहीं कर पा रही थी कि कोई दुनिया छोड़कर चला जाए और कोई उसके लिये दो आँसू न बहाए...उसकी अपनी आँखों में नमी उतर आई थी।

जया की शिराएँ तन गई थीं। मस्तिष्क भन्ना रहा था। उसकी सोच को कोई ठौर नहीं मिल रहा थ। वह उनका नेक्स्ट डोर पडोसी रिक, जिस का ड्राईव-भी एक ही था, जिस पर दोनों के पैर पड़ते थे... एक तरह से वे एक दूसरे को रोज छूते थे। दोनों एक दूसरे के पावों पर चलते थे। एक बाहर निकलता था या बाहर से आता था तो घर की अन्दर दक्षिण दिशा में मुड़ता और दूसरी उसी धुरी से उत्तर की ओर अपने घर घुसता था। कहने को दोनों एक ही बिंदु से अपनी-अपनी दिशा बाँट रहे थे-पर दोनों में कोई सरोकार नहीं था। वह भी मुहँ बाये अपने ही दालान में खड़ा टुक-टुक तमाशा देख रहा था...

बाहर दालान में तीन लोग खड़े थे। उन के कॉफी के मग - अभी भी दालान की बनेर पर अधपिये पड़े सारा करतब देख रहे थे। एक पुत्रनुमा लड़का (जया ने ही उनके नाम रिश्ते तय कर लिये थे) कॉफी के मग को बनेरे पर रखे दूसरे हाथ से सिगरेट के लम्बे कश खींच रहा था और आकाश की ओर मुँह उठाकर धुएं की लकीरें बना रहा था...

उसे कई बार लगता रहा है कि यहाँ के लोग साधू-संतों जैसे है। उन्हें हमारी तरह दुःख-दर्द शायद नहीं व्यापता। ये लोग दुःख में हमारी तरह चीखने-चिल्लाते नहीं रहे है। मौत पर आंसू तक किसी विशेष हिसाब से निकलते है। हमारे यहाँ भावनाओं का स्मृतियों का, रिश्तों का, रिवाजों का जैसे अंधड़ फूट पड़ता है-- अपनी पूरी उद्दाम छलांगों और छपाकों के साथ। दहाड़ते समुद्र की बेसुध-पागल-ज्वार भाटा सी बैचेन लहरों सरीखा। जिससे गली-मुहल्ला, घर-मकान, व्यक्ति अपने-पराये एक-बार सभी डूब जाते है। कई-कई दिनों बल्कि सालों तक कुछ रिवाजों, नीतियों का आडम्बरों समेत निवार्ह चलता रहता है। हमारी सदियों से आत्मसात की हुई दार्शनिकता अध्यात्मिकता "नैन छिन्दन्ति शाश्त्रानी नैन दहति पावक" धरी की धरी रह जाती है। हम उम्र भर उस जाने वाले को जाने नहीं देते। कहीं समेट-समेट कर रखते है। श्राद्ध न किया, पुत्र ने कन्धा न दिया, अग्नि न दी तो मुक्ति न हुई। फिर भी हमारी मुक्ति नहीं होती। पर यहाँ जीवन को केवल जीवन समझ कर जिया जाता है। वह भी पहले अपने लिये...केवल अपने लिये। ठीक, स्वस्थ्य भरपूर सुविधाओं से भरा-पूरा होना -- जीने की अनिवार्य शर्त है। उसके बाहर सब मिथ्या है।

यह निर्णय कठिन है कि कौन सी दार्शनिकता ढोकर चलना- जीवन के प्रति सच्चाई है।

ओह! फिर सोच में डूब गई। गेट पर ठिठकी खड़ी थी। कपडे बदलू या यही पहनूं- क्योंकि अभी भी कहीं इच्छा थी वैन के अन्दर झांक कर चेहरा देखने की...और सम्बन्धियों से गले मिलने की... किन्तु ये तो --ड्राईक्लीन वाले कपडे है ड्राईक्लीन करवाने पड़ेंगें... दूसरे ही क्षण जया ने अपने आप को धिक्कारा...वह भी पहाड़े पढने लगी...वह धड़ाधड गेट से निकल कर सीधे वैन के पास पहुँच गई। शरीर तो अन्दर रखा ही जा चुका था। वह लम्बा, छरहरा, लम्बोतरे मुँह वाला व्यक्ति नहीं- अब केवल शरीर था जिसे अंतिम बार देखने का अवसर भी मिट चुका था।

वे तीनों लोग अभी भी दालान में खड़े आपस में बातें कर रहे थे। लेकिन उनकी मुद्राएँ भी मात्र पड़ोसियों सी दर्शकों वाली ही थी। वह झिझक रही थी। फिर भी बार-बार उल्लुओ की तरह उनकी ओर मुँह उठाकर देख लेती थी कि शायद उनमें से किसी के साथ आँखों का सादृश्य हो जाए तो वह अपनी संवेदनाओं को संवाहित कर सके... जिससे वह पिछले दो घंटे से अन्दर ही अन्दर कुलबुला रही है। किसी से कम-से-कम पूछ सके उस जाने वाले का नाम जो आज बिन-बताए, बिन सुबह की अख़बार उठाये ओर हैलो किये चला गया है।

उसकी आँखें बेबस-नम हो आई। पर किसी ने...उसकी तरफ देखा तक नहीं, नज़र तक नहीं उठाई, बात करना तो दूर की बात थी...

   
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