मेजर
नाभन-
यह कौन सुबह सुबह इस कार पार्क के किनारे दिखाई दी?
शायद यह भी मेरी तरह चहल कदमी करने निकली है। ऊँह...ज़रा मोटी
है! ज्यादा लम्बी भी नहीं है। शायद पंजाब से हो। पर इसकी क्या
गारंटी! आजकल तो सब सलवार कमीज़ पहनती हैं। ऊँह... होगा! ज़रा
स्मार्ट होती तो बात भी थी, मचक मचक कर चल रही है। थोड़ी देर
बाद रुक कर खड़ी हो जाती है, साँस फूलने लगी होगी।
पता नहीं हमारे देश की औरतों को लम्बे बाल क्यों अच्छे लगते
हैं। हीरानी के बाल कटे हुए थे। साँवली सलोनी सूरत पर दो मोटी
मोटी, भारी पलकों वाली आँखें और ऊँचे सँवारे छोटे कटे बाल। जब
हलके बैंगनी रंग की, वायल की, घुटनों तक लम्बी फ्राक पहन लेती
थी तब कितनी कसी हुई और सुडौल लगती थी! उसे बाहों में भरे एक
अरसा हो गया। कहाँ चली गयी? जुबान की तेज जरूर थी मगर क्या रस
था। आर्मी सर्किल में तो कितनी ही ऐसी थीं जो मेरे साथ नाचना
पसंद करती थीं मगर जिस दिन किसी को प्लीज़ किया नहीं कि हीरानी
आपे से बाहर हो जाती थी। उसका गुस्सा ही उसे खा गया। ब्रेन
हैमरेज से मरी चट पट! मूसलाधार बारिश थी उस दिन। ज्यूली और अमर
के आते न आते चौबीस घंटे बीत गए। पर हीरानी ऐसे पड़ी थी कि
जैसे अभी आँखें खोल देगी, बेचारी! काश अपने बच्चों से मिल लेती
!
सरबजीत ---
मोया इधर ही ताके जा रहा है। क्या मोटी तोते की सी नाक है। ऊपर
से ये मोटा जीरो पावर का चश्मा! ऊँह!
पीछे से लग रहा था कि कोई जवान आदमी होगा। कैसी सीधी पीठ है और
एकदम सतर चाल! मै तो समझी थी कि मेरे गिरीश का कोई साथी होगा
पर ये तो... आगे से चेहरा एकदम खूसट! खिचडी मूँछें और गाल?
जैसे छेंकों वाला बिस्कुट! पता नहीं मर्दों को मूँछें रखना
इतना जरूरी क्यों लगता है? मेरे पापाजी एकदम क्लीन शेव रहते
थे।
ललिता के डैडी, मेरे पति भी बस छोटी सी तलवार कट। शायद कुछ लोग
इनको पर्सनैलिटी बढ़ाने के लिए रखते हों।
ललिता के डैडी कितने भले थे हर बात में! न ज्यादा बोलना, न
कहीं बाहर जाना, बस अपना दफ्तर और फलों का बगीचा। कितना कहा था
कि एक टेलिविज़न ला दो, हमेशा टाल दिया। कहते थे कि ललिता और
शुभा की पढाई पर फरक पड़ जाएगा। दिन भर बोर होती थी मैं! उनके
होने से भी क्या फरक पड़ता था? कभी बातचीत करते थे तो काम से
काम भर की बस न ही कुछ पढ़ते थे घर पर।
अखबार तो दफ्तर में आता ही था, मैं ही कुछ न कुछ जुगाड़ कर
लेती थी माँग ताँग कर। जाने क्यों कोनवेंट की पढी, इंटर पास
लड़के से शादी की? मैं अगर कोई हलवाई की बेटी होती तो मुझे न
खलता। चलो जो हुआ सो हुआ।
मेजर नाभन ---
आज तीसरी बार इसे देख रहा हूँ। वही पौन्जी का प्रिंटेड सूट,
वही ऊँट के रंग का मोटा कार्डिगन, वही दो फुट लम्बी ग्रे बालों
वाली चोटी! वह कार पार्क के बाईं ओर से आती है, फिर दाहिने
कोने पर, सड़क की जेब्रा क्रॉसिंग के किनारे खड़ी होकर दायें
बाएँ देखती है बच्चों की तरह। फिर सड़क पार करके सामने वाले
पार्क में चली जाती है। किस तरफ निकल जाती है पता नहीं। बाल
खिचडी, कपड़े भी कोई ख़ास नहीं, लगता है कोई काम वाली है।
सरबजीत ---
लम्बे सीधी पीठ वाले आदमी के ट्रेनर बहुत अच्छे हैं। ललिता ने
तो कई बार मुझे समझाया है कि यहाँ के ठन्डे मौसम में मेरी
इंडिया की चप्पल ठीक नहीं। वह मुझे रीबोक के ट्रेनर लेकर देती
थी। मैंने ही मना कर दिया। पच्चीस पोंड के जूते! समझो तीन चार
हजार रुपये! अभी तो कहती थी कि यह सेल का दाम है, सस्ता! राम
भजो जी! अभी आने से पहले ही तो छोटी ने शोल की जूतियाँ लाकर दी
थीं। कहती थी मम्मी आप मोज़े के साथ भी इन्हें पहन सकती हैं।
वही तो मै कर रही हूँ जबसे आई हूँ, बस अगर पानी बरसे तो बाहर
नहीं जा सकती। अगर ट्रेनर हों तो...
मेजर नाभन ---
आज अगर वह आई तो ज़रा पीछा करूँगा। आखिर अपने वतन का कोई बन्दा
दिखे तो उसे यूँ दूर दूर रखना अच्छी बात नहीं लगती। कितने दिन
गुज़र गए किसी से बात किये! मेरा बेटा अमर? अजी उसे फुर्सत ही
कहाँ है? हफ्ते के ७२ घंटे काम की ड्यूटी अस्पताल में, उस पर
भी दस बारह घंटे एक्स्ट्रा करने ही पड़ते हैं। साले सब बदमाश
हैं, यहाँ से किसी न किसी बहाने से छुट्टी लगा लेते हैं या
ड्यूटी के घंटे अदला बदली कर लेते हैं और फिर लन्दन के
प्राईवेट क्लीनिकों में जाकर चार गुने पैसे बनाते हैं। हम भारत
के भ्रष्टाचार को रोते हैं, यहाँ क्या कम बेईमानी है?
अमर की बीबी? वह पोलिश नर्स? उसे भी कहाँ फुर्सत? जब अमर घर पर
नहीं होता वह घर के सारे कामकाज निपटा कर शौपिंग कर लाती है।
आठ घंटे की नौकरी और चार घंटे तो चाहिए ही घर का काम करने के
लिए। खाना बनाना कपडे धोना, अभी तो सफाई हफ्तेवार होती है
यहाँ, अगर भारत के जैसी धूल यहाँ भी होती तो क्या होता? बेचारी
के माँ बाप भी तो हैं। हफ्ते में दो बार उनसे भी मिलने जाती
है, फिर भी कितनी भली है। कुछ न कुछ हिन्दुस्तानी खाना भी बना
देती है। उसका नाम तो अजीब सा है मगर अमर उसे रोज़ बुलाता है।
अगर उसके माँ बाप को अंग्रेजी आती तो कितना अच्छा होता! मुझे
कंपनी मिल जाती। ज़माना हो गया मुझे पकौड़े खाए। अगर अमर से
कहूँगा तो वह किसी रेस्तराँ में ले जाएगा वहाँ बेयरा बासी, ठोस
किस्म के, मिर्चों वाले, गूदड़ से पकौड़े दुबारा तिबारा फ्राई
करके ले आयेगा। हीरानी क्या बढ़िया खाना बनाती थी! घर में बैठे
बैठे मैं अपने लायक कुछ न कुछ बना लेता हूँ, पर रोटी ठीक नहीं
बन पाई। चिमटा भी नहीं था, बेलन भी, बेकार हाथ जला बैठा।
सरबजीत ---
आज मैंने सड़क पार नहीं की। कार पार्क का ही पूरा राउंड लगाया।
चारों तरफ पक्की पटड़ी बनी हुई है। दो दिन बारिश थी अतः निकल ही
नहीं पाई घर से। ललिता का घरवाला, गिरीश नाईट ड्यूटी पर था,
दिन में वह घर आकर सो जाता था। यह भी अच्छा है कि अस्पताल के
अहाते में ही घर मिला हुआ है, गिरीश बताता है कि कई इंडियन
डाक्टर हैं।
अस्पताल भी तो देखो कितना बड़ा है। गिरीश को चार कमरों वाला
फ़्लैट मिला हुआ है। बच्चा है ना एक! ललिता भी डाक्टर है। उसे
भी अगर इसी अस्पताल में काम मिल जाता तो कितना अच्छा होता मगर
वह सात आठ मील दूर कार चला कर जाती है। बच्चे को मैं ही रखती
हूँ। सुबह स्कूल छोड़ने जाती हूँ और दोपहर को ले आती हूँ।
ललिता के नीचे वाले फ़्लैट में जो गोरी रहती है उसका बच्चा भी
हमारे सोनम के स्कूल में जाता है, वह भी सारा दिन हमारे घर ही
बना रहता है। बच्चों का काम बहुत होता है, ललिता तीन बजे आती
है तब मैं जरा टहलने निकलती हूँ। मुझे ज़मीन पर पाँव रखने को
चाहिए। ऊपर के फ़्लैट में टंगे टंगे, जाने क्यों मुझे उलझन सी
होने लगती है।
जगाधरी में हमारी कितनी ज़मीन थी! फलों के बेशुमार पेड़ थे, फल
जब टूट कर आते थे तो मै उन्हें छाँटती, सँभालती, बाँटती। मेरी
कितनी सहेलियाँ थीं। दिन भर गली मोहल्ले के किस्से सुनती थी।
मिल मिल कर अचार मुरब्बे बनाती थी, अब सारा दिन मुँह मारे बैठी
रहती हूँ। खाना न बनाऊँ तो कोई आड़ नहीं, जी घबराने लगता है।
इसीलिये आज जब लम्बे, सीधी पीठ वाले आदमी ने मुझे हेलो कहा तो
मुझे बहुत अच्छा लगा। उसकी हेलो के जवाब में मैंने भी ''हैल्लो
जी'' कहा तो वह मुस्कुरा दिया।
मेजर नाभन :---
देखने में तो ठीक-ठीक लगी! उसे शायद बनने-सँवरने का शौक नहीं
है। बिंदी नहीं लगाई थी, शायद मेरी तरह अकेली हो। इसीलिये तो
यहाँ आ गया। कल मै उससे कहूँगा कि मेरे साथ- साथ क्यों नहीं
चलती? जब हमारा वही टाइम है घूमने का तो रास्ता क्यों अलग अलग?
बात- चीत भी हो जायेगी।
सरबजीत :---
जून लग गया है, पार्क में कितने फूल खिले हैं! और दो महीने बाद
सोनम पूरे दिन स्कूल जाया करेगा। ललिता जाते समय उसे छोड़ देगी
और नीचे वाली गोरी, तीन बजे उसे अपने बेटे के संग घर ले आएगी।
दोनों माएँ बच्चों का खाना पीना संग ही रखती हैं। कभी ऊपर, कभी
नीचे। अक्सर ललिता कुछ ख़ास बनाती है तो गोरी जरूर खाती है।
मेरे लिए तो दिन काटना और भी पहाड़ हो जाएगा। कई बार सोचा कि
वापस जगाधरी जाऊँ, पर किसके लिए? शुभा दिल्ली में रहती है,
पूरे टब्बर के साथ, वहाँ कहाँ जा बैठूँ उसकी सास के कनौठे?
मेजर नाभन :---
आज मैंने उससे बात की, वह बहुत शर्मीली लगी। उसने बताया कि वह
अपनी बेटी और दामाद के पास रहने आई है। ठीक मेरी तरह। उसका पति
नहीं है। बता रही थी कि रिटायर होते ही कुछ महीने बाद मर गया।
कुछ लोग अपनी नौकरी से ही ब्याह कर लेते हैं। मैंने पूछा उस
समय तुम कितनी बड़ी थीं। उसने मुस्कुरा दिया। सिर्फ अड़तालीस
साल! यानी पति से बारह साल छोटी। हमारा भारत भी न ! कितनी
बेमेल शादियाँ हो जाती हैं। कम से कम मैंने ऐसा नहीं किया था।
हीरानी गोवा में मिली थी। पक्की ब्राह्मणी पर गोवा की संस्कृति
में पली। पहली नज़र में ही मैं दिल हार गया था। ओफ़! मैंने सब
कुछ पूछ लिया पर उसका नाम? हाँ याद आया! उसने मिसेज़ कोहली
बताया था। पर उसका अपना नाम? ---कल जरूर पूछूँगा।
सरबजीत :---
आज डिनर पर मैंने गिरीश से पूछा कि क्या वह अमर नाभन को जानता
है? उसने कहा कि शायद देखा हो पर उसके डिपार्टमेंट में नहीं
है। पता करेगा । मैंने बताया कि उसका बाप भी इंडिया से आया हुआ
है। अक्सर पार्क में मिल जाता है। मैंने ललिता से कहा कि मुझे
जूते लेने ही पड़ेंगे। और हो सके तो उसकी कोई बड़ी सी जैकेट हो
मेरे लायक तो...
मेजर नाभन :---
आज उसने ट्राऊज़र और जैकेट पहन ली थी। पैरों में नए जूते। बता
रही थी कि मार्क्स एंड स्पेंसर से लाई है। पहन कर ठीक ठाक लग
रही थी। ज्यादा मोटी नहीं है। जाने क्यों आर्मी अफसरों को
औरतों का फिगर देखने की इतनी आदत पड़ जाती है। हीरानी हमारी इन
बातों से चिढ जाती थी। अरे वैसे मैं कोई लफंगा थोड़े ही था...
पर बस उसका गुस्सा! वह लाइफ ही कुछ और थी। यहाँ भी यह सब खूब
चलता है। पब में बैठकर आदमी बस औरतों की ही छीछालेदर करते हैं।
पब जाने के लिए शहर यहाँ से कुछ दूर पर है। आम तौर पर मै इस
अस्पताल के दायरे से बाहर जा ही नहीं पाता। सरबजीत? अरे उसने
तो कभी कोई मर्दाना जोक सुना भी नहीं होगा। पाठ पूजा करती
होगी, घर का काम, अचार बड़ियाँ वगैरह! कुछ और हौबी है क्या
उसकी?
सरबजीत : ---
मेजर नाभन मद्रासी है पर क्या खुलकर हिंदी बोलता है बात-बात पर
व्यंग करता है। हँसी आ रही थी उसकी बातें सुनकर। उसकी भी बीवी
नहीं है। अरसा हुआ उसे मरे। अब तो वह जरूर सत्तर साल का होगा।
उसकी बहू पोलिश है। गिरीश को सब बताऊँगी।
मेजर नाभन :---
अमर बता रहा था कि डाक्टर गिरीश इमरजेंसी में सर्जन है। उसकी
बीवी किसी जी॰ पी॰ के यहाँ सिर्फ सुबह का सेशन करती है क्योंकि
उनका बच्चा अभी छोटा है।
सरबजीत :---
ट्राऊज़र पहनने से टाँगों को बहुत आराम है। जूतों में पैर गरम
रहते हैं। वरना रोज़ जब घर आकर बैठती थी तब पंजों में दर्द
होता था। जैसा देश वैसा भेष।
आज मेजर ने घूमते-घूमते मुझसे बहुत सी बातें कीं। पूरे देश में
घूमा हुआ है । मैं जब छोटी थी तब कितना चाहती थी कि सारे शहर
घूमूँ! मगर ललिता के डैडी छुट्टियाँ होने पर अपने घर अमृतसर
चले जाते थे। एक बार बस मुझे बनारस घुमा लाये थे और चार
साड़ियाँ भी खरीद दी थीं। मैंने एक खुद रखी, दो दोनों बेटियों
को शादी में दे दीं और एक अपनी नन्द को दी। कोहली साब बड़े खुश
हो गए थे मेरी दिलेरी से। यह भी क्या कम है कि नौकरी रहते ही
दोनों बेटियों की शादी कर दी। अगर देर हो जाती तो उनके बिना
मैं कैसे समेटती इतने बड़े-बड़े कारज?
मेजर नाभन ने बताया कि वह सिर्फ बासठ साल के हैं। आर्मी के लोग
जल्दी रिटायर हो जाते हैं। उनकी बेटी भी है मगर उसका घरवाला
ऑस्ट्रेलिया में जा बसा है। अगले साल मेजर साब वहाँ जायेंगे।
मेजर नाभन : ---
आज सरबजीत थोड़ा थक गयी थी। मैंने उसे पार्क की बेंच पर बैठा
दिया। लौटने में मैंने उसे घर तक पहुँचा दिया। वह कहती रही
आइये चाय पी कर जाइयेगा मगर मै थोड़ा झिझक गया। मेरी बहु रोज़
ने बताया कि उसके साथ काम करने वाली एक गोरी नर्स भी सरबजीत के
ब्लाक में रहती है। अकेली है और उसका एक बच्चा भी है। कैसे रह
लेती है बिना शादी किये? शायद कोई बॉय फ्रेंड होगा। रोज़ यह
सुनकर हँस दी। कहने लगी आप सब पुरुष लोग हमेशा सब स्त्रियों पर
शक करते हो। अगर वह बिना पति के बच्चा पाल सकती है तो इसमें
क्या परेशानी? बच्चे का बाप अगर अच्छा होता तो संग ही होता।
हमें क्या लेना देना।
सरबजीत :---
मेजर ने मेरा फोन नंबर लिया था। दिन के समय उसने मेरी तबीयत का
हाल पूछा। मुझे उसकी सहानुभूति का उत्तर देना चाहिए। कल गाजर
का हलवा बना कर ले जाऊँगी कोहली साब को कितना अच्छा लगता था!
गाजरों के मौसम में कभी ख़तम ही नहीं होता था।
मेजर नाभन :---
कितनी मुद्दत के बाद मैंने गाजर का हलवा खाया। वहीँ पार्क की
बेंच पर बैठकर मैंने सारा का सारा खा डाला। बिलकुल मरभुक्के की
तरह!
वहाँ से मैं जल्दी ही उठ लिया और सरबजीत को अपने साथ काफी पीने
के लिए कोस्टा काफी के स्टाल पर ले गया। हमने टैक्सी कर ली। वह
थोड़ा हिचक रही थी और शर्मा भी रही थी, मगर उसे शायद अच्छा भी
लगा। उसने बताया कि उसने कभी भी ऐसे काफी नहीं पी ना ही वह
रेस्तौरेंट में जाती थी जब तक गिरीश और ललिता उसे अपने साथ
नहीं ले गए।
रोज़ और अमर चाहते हैं मैं उनके साथ पेरिस होलीडे पर जाऊँ, मगर
मैं भारत से पेरिस का वीज़ा नहीं बनवाकर लाया। पहले से तो कहा
नहीं था, अब अमर कोशिश कर रहा है कि यहीं से बन जाए। पेरिस
देखने का मेरा बहुत मन है, पर मुश्किल लगता है।
सरबजीत :---
मेजर नाभन दो हफ्ते के लिए पेरिस जा रहे हैं, मै क्या करूँगी?
वही ढाक के तीन पात! मेजर बता रहे थे कि कॉलिज के दिनों में
उन्हें टेनिस खेलने का बड़ा शौक था। मैं भी तो टेनिस खेलती थी।
गर्मी की छुट्टियों में! भाई और मैं दोपहर को डाईनिंग टेबिल पर
टेबिल टेनिस खेलते थे। पापाजी ने हरा जाल भी ला दिया था।
मेजर ने मुझे परसों अपना फ़्लैट दिखाया। लौटने में हमें कुछ देर
हो गयी थी। जब मैं घर गयी तो ललिता ने पूछा, ''मम आप इतनी देर
से आयी हो? कहीं दूर निकल गयीं थीं क्या? '' मैंने बात छुपा
ली। ''हाँ यूँ ही ---। मेजर साहब अपने आर्मी के किस्से सुना
रहे थे। हम अस्पताल की बेंच पर बैठे थे''
झूठ! यह तो मैंने इसलिए कहा ताकि उसे हमारे एकांत में बैठकर
चुपचाप फूलों और फव्वारों को ताकते रहना ना पता चले। कितना
सुकून मिलता है यूँ बैठे रहने में?
क्या वह यूँ चुपचाप बैठकर अपनी पत्नी को याद करते हैं? मैं तो
बस बचपन में पहुँच जाती हूँ। तब मैं कितनी अनजान थी। तितली सी
उड़ती फिरती थी। कितने सपने थे मेरे! सपनों में बादल, फुहारें,
झूले की पींगें! कभी दूर दूर भी कोई लन्दन या ऑस्ट्रेलिया नहीं
था। यह सब एटलस के हरे भूरे नक़्शे थे जिनसे मुझे कोई वास्ता
नहीं था। फिल्मों में बस बंबई कलकत्ता दिखाते थे, या फिर
काश्मीर! पापाजी से कुछेक नाम और सुन रखे थे जैसे नागपुर,
कानपुर या फिर कुम्भ्वाला इलाहबाद। पर मेजर ने तो चप्पा-चप्पा
गह रखा है। खुद ब खुद स्कोट्लैंड भी हो आया।
मेजर जब बोलता है तो लतीफे सुनाता जाता है। मैं हँसती रहती
हूँ। एक दिन उसने पार्क की चरखी पर मुझे चढ़ा दिया और खूब जोर
से उसे नचा कर खुद भी उसपर चढ़ गया। मैंने डर से आँखें भींच
लीं जब चरखी रुकी तब उसने सँभालकर हाथ पकड़कर मुझे नीचे उतार
लिया। मेरा मन करता है कि मैं फिर उसपर चढूँ, पर कहते हुए झिझक
लगती है। क्या सोचेगा! बाद में उसने मेरा मज़ाक बनाया क्योंकि
मेरी चोटी लहरा रही थी। जब चरखी रुकने लगी तो चोटी उसे कोड़े
की तरह चेहरे पर लगी। सुनकर मुझे हँसी आ गयी और मैं पेट दबा कर
देर तक हँसती रही।
ललिता ने तो कितनी बार कहा है कि मेरे लम्बे बाल बाथ टब की
नाली में फँस जाते हैं इसलिए मुझे इन्हें कटवा कर पोनीटेल कर
लेनी चाहिए। यहाँ इंग्लैण्ड में कितने सुन्दर-सुन्दर क्लिप
मिलते हैं। मैं ही नहीं मानती। अब लगता है कि वह ठीक ही कहती
है। हर हफ्ते बेचारी कैंची लेकर हूवर के गोल ब्रुश में लिपटे
बाल क़तर- क़तर कर निकालती है।
मेजर नाभन :---
पार्क की लेक का एक सिरा झरने नुमा बना दिया गया है। वहाँ बहुत
घने पेड़ हैं। यही झरना एक पतली सी छिछली नदी के रूप में
जंगल-जंगल दूर तक जाता है। नदी में छोटी छोटी मछलियाँ हैं।
पानी इतना साफ़ है कि उन्हें देख लो। अगर वह इतनी दूर चलने को
राजी हो जाए तो क्या बात!
सरबजीत :---
मेजर ने कहा एक अनोखी चीज़ देखोगी? दूर है ज़रा! चल पाओगी?
मैंने डरते डरते भी हाँ कर दी। देखने से ज्यादा मै उसकी इच्छा
का मान रखना चाहती थी। मैं ना कर देती तो वह भी नहीं जाता
वहाँ। जाकर अच्छा ही किया। झरना कितना सुन्दर था! सूरज की
रोशनी पेड़ों से छन कर उसपर पड़ती तो सातों रंग निकलते पानी की
धारों से! वहाँ लकड़ी की बेंचें पड़ी थीं मगर चिड़ियों की वीठ
से गंदी पिंदी थीं। हम यूँ ही आस पास के पत्थरों पर बैठ गए।
हमसे थोड़ी दूर कोई आर्ट बना रहा था। झरने में हाथ धोकर हमने
अपने सैंडविच खाए और जूस पिया। फिर काफी दूर तक हम नदी के
किनारे चलते गए। एक जगह जब सँकरी धारा आई तो मै उसे लाँघ कर उस
पार चली गयी। सारा ट्राऊज़र भीग गया। मेजर ने मुझे मीठी झिडकी
दी और हाथ पकड़ कर वापिस खींच लिया। बोला पैर फिसल जाता तो! मैं
बहुत खिसिया गयी। दो बज रहे थे हम जंगल के परले सिरे तक आ गए
थे जो घर से काफी दूर था। सड़क दिखाई दी। कुछ दूर पर बस स्टैंड
था। थैंक गौड ! गीले पैर दुखाने लगे थे। बस ने हमें अस्पताल पर
उतार दिया।
मेजर नाभन : ---
मेरा पेरिस जाने का वीजा नहीं हो पाया। दो हफ्ते की ही तो बात
है। काट लूँगा। अमर और रोज़ को खुद ही हो आना चाहिए, मेरा क्या
है! यूँ भी करी तो अक्सर मैं ही बनाता हूँ। हम टेस्को से नान
ले आते हैं, कभी रोज़ रेडीमेड इंडियन सब्जी सुपरमार्केट से ले
आती है मेरे लिए, दिन में मैं वही खा लेता हूँ, या फिर गरमा
गरम दाल चावल खुद से बना लेता हूँ। पहले एक दो बार नमक का
हिसाब नहीं हो पाया, कभी कम, कभी ज्यादा, अब ठीक है।
सरबजीत :---
चार दिनों से पानी बरस रहा है। सुबह ठीक ग्यारह बजे मेजर का
फोन आता है। छोटी छोटी सी अपनी कोई खबर जैसे आज क्या खाऊँगा,
टी. वी. पर क्या है वगैरह। वह तो अंग्रेजी के सभी प्रोग्राम
देख लेता है मैं ही नहीं समझ पाती। गिरीश ने विडिओ चलाना सिखा
दिया है, कभी कभी कोई फिल्म देख लेती हूँ, पर सबसे ज्यादा मुझे
नाभन के फोन का इन्तजार रहता है।
आज पाँचवें दिन जरा बारिश हल्की हुई, मैंने घर के सभी धंधे
निबटा दिए। जूते कसकर मैं हेयर ड्रेसर के यहाँ चली गयी। थोड़ी
दूर पर दो कमरोंवाले फ़्लैट में उसका घर है, वह यहीं से अस्पताल
के लोगों के बाल काटती है। वहीँ ललिता भी जाती है।
मैंने अपनी गुत्त कटवा दी है। बालों पर गहरा भूरा रंग करवा
लिया है। उसने मेरी गुत्त डस्टबिन में फेंकनी चाही तो मैंने
रोक दिया। कभी मेरा लम्बे घने बालों का सपना था ब्राह्मी आँवला
केश तेल लगाती थी, खली या चिकनी मिट्टी से केश धोकर दही लगाती
थी। यही गुत्त मेरी शादी के बाद सावन की तीज में फूलों से
गूँथी गयी थी। कोहली साब छुप छुप कर देख रहे थे।
मैंने गुत्त सहेजकर आलमारी में रख दी है। जब जगाधरी जाऊँगी नदी
में बहा दूँगी।
सुन्दर सी पोनिटेल बनाकर मैंने ललिता का क्लिप लगा लिया। गिरीश
उस दिन पहले आया देखकर शरारत से मुस्कुराया, बोला '' सोनम देख
तो तेरी नानी बदल गयी है।'' सोनम भी खूब हँसा, बोला ''ओह गुडी!
हमें नागिन से छुटकारा मिल गया'' ललिता ने देखा तो कहा ''थैंक
गौड!''
बच्चे कितने निडर हो गए हैं आजकल! अपने मन की हो जाए तो बात
क्या!
मेजर नाभन :---
कल शाम को वह दोनों अस्पताल से आये और अपनी अपनी ट्रौली -
अटैची पकड़ी और पेरिस के लिए उड़ गए। दो घंटे बाद फोन भी आ गया
कि राजी ख़ुशी पहुँच गए।
मै रह गया अकेला!
पहले तो कभी अकेलापन नहीं काटता था मगर अब न जाने क्यों...!
सात आठ दिनों से मैं बाहर भी नहीं निकला हूँ, सरबजीत भी नहीं
दिखाई दी। खुद से तो फोन करती नहीं कभी। मन कर रहा है कि उसे
इधर बुला लूँ, क्या पता वो न आये! भारतीय स्त्री ठहरी बुरा मान
गयी तो?
फिर भी! दिल की दिल में रखने का क्या फायदा! संग मिलकर दो
बातें ही तो कर लेते हैं हम! कितना हँसती है, कहता हूँ यहाँ ही
खाना खा ले।
सरबजीत :---
मेजर का फोन आया है कहता है यहाँ ही आ जाओ। संग बैठेंगे, खाना
खायेंगे।
हाय मै तो मर ही गयी। फोन तो कई बार आता है पर आज यह सुनकर
मेरा दिल धक्-धक् कर रहा है, जाऊँ? क्या ललिता से बिना बताये?
अभी पसोपेश में थी कि तभी ललिता का फोन आ गया ''मम मै पाँच बजे
से पहले घर नहीं आ पाऊँगी, मीटिंग है, सोनम को जीना उठा लेगी।
मेरे आने तक वहीँ खेलेगा।'' इतना कहकर उसने खट्ट से फोन रख
दिया .मेरी सुनने का वक्त ही कहाँ है उस पर?
मै अनायास ही तैयार हो रही हूँ। हलके प्रिंट की शिफौन की साड़ी
पहन ली है, मन कर रहा है कि लिपस्टिक लगाऊँ। ललिता की ड्रेसिंग
टेबिल पर जाकर तैयार हुई। जैसे मुझे कोई धकेल रहा है, उधर जा
भी रही हूँ और नहीं भी! क्या सोचेगा मेजर? पर उसी ने तो बुलाया
है! कौन है मुझे देखने वाला?
पहली बार यहाँ आने के बाद मैंने साड़ी पहनी है। आस पास सब
सुनसान पडा है, कौन पहचानेगा मुझे?
मै उसके दरवाज़े पर खडी हूँ। बेल पर मेरी उँगली पड़ी, वह जैसे
दरवाज़े के पास ही खड़ा था। उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर
हलके से चूम लिया। यह आर्मी अफसरों का एटिकेट है। मुझे लगा मैं
हवा के कुशन पर चल रही हूँ। अन्दर सबकुछ बेहद करीने से सजा था।
खासकर डाईनिंग टेबिल। घर तो ललिता भी ठीक ठाक रखती है पर इस
जैसा नहीं! रोज़ में कुछ ख़ास बात है।
मेजर ने मुझे शरबत बनाकर दिया है। ऐसा स्वाद मैंने कभी नहीं
चखा। शरबत दो रंगों का है। नीचे से लाल, ऊपर से नारंगी. ऐसा
कैसे किया? कुछ पानी जैसा उसने अपने गिलास में डाला, मुसिक
सेंटर पर उसने रेकॉर्ड लगा दिए। सब मेरे बचपन के दिनों के
गाने! मुझे सब पूरे पूरे याद हैं अभी तक। इसे कैसे पता कि यह
मेरे फेवरेट गाने थे? मैंने पूछा तो हँस पड़ा।''
''तुम्हारा मेरा ज़माना क्या फर्क था?'' कहकर खुद भी गाने लगा।
''माना जनाब ने पुकारा नहीं... क्या मेरा साथ भी गवारा नहीं
... ''
मै चुपचाप सुनती रही। जब वह गा गाकर चुप हो गया तो बोली- '' हः
छोड़ दो आँचल ज़माना क्या कहेगा! ''
वह बोला , '' हाँ हाँ हाँ, इन अदाओं का ज़माना भी है दीवाना,
दीवाना क्या कहेगा!''
देर तक हम सुर में सुर मिला कर गाने गाते रहे। खाना एकदम सादा
था। दाल, हरी मटर और चावल। तीन घंटे कहाँ गुज़र गए पता ही नहीं
चला।
मेजर नाभन :---
अच्छा हुआ मैं पेरिस नहीं गया। इससे अच्छा समय मेरे जीवन में
कभी भी नहीं आया। इन पंद्रह दिनों में वह रोज मेरे घर आई है।
हमने मिलकर पकाया खाया। पुरानी फिल्मे देखीं। पसंद के गाने
गाये। या हम टैक्सी से बाहर घूमने चले गए। मैंने उसे ढेर सी
शौपिंग कराई है अपने मन की। तिरपन चौवन की उम्र है पर दिल से
एकदम कोरी। बेहद अच्छी आवाज़ है
एकदिन मैंने उसे अपनी बाहों में समेट लिया। वह आँखें मूँदे
मुलायम खिलौने की तरह सिमटी बैठी रही। जाने क्यों मुझे लगा कि
वह बहुत नाज़ुक है जिसे ज़रा सी ठेस चकनाचूर कर देगी। मैंने
हौले से उसे अलग किया और पूछा,'' मुझसे शादी करोगी ''?
वह अपना चेहरा मेरी छाती में छुपा कर बोली,'' अभी, इसी दम।''
और हम सदा के लिए एक हो गए।
सरबजीत :---
मैं कल वापस भारत जा रही हूँ। मेजर नाभन भी जा रहे हैं उसी
फ्लाईट से। मैंने ललिता को सब बता दिया है, भारत
जाकर
हम शादी कर लेंगे। मैं श्री निवास नाभन के साथ उनके घर बंगलौर
में रहूँगी। जगाधरी वाला घर दोनों बेटियों का रहेगा। जब भी वह
आना चाहें मै वहाँ आ जाऊँगी संग रहने।
यह सुनकर ललिता पहले तो हैरान रह गयी, फिर अन्दर वाले कमरे में
जाकर रोने लगी। गिरीश के आने के बाद बाहर निकली। गिरीश को बड़ा
ताज्जुब हुआ मगर वह समझदार है। नीचेवाली गोरी जीना ने उन्हें
समझाया '' हर किसी को हक़ है कि वह दूसरा चांस ले।' |