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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से नीलम जैन की कहानी- संस्कार


सुबह की चुप्पी में अचानक घर्र- घर्र करते ट्रक की आवाज कानों में पड़ी तो मानसी जान गई कि साढ़े छः बज चुके हैं। हर बृहस्पतिवार को कूड़ा कचरा उठाने वाली गाड़ी लगभग इसी समय आया करती है।

बुधवार की रात को ही लोग अपने घर का सप्ताह भर का कचरे का एक बड़ा कूड़ादान घर के आगे, सड़क के किनारे रख देते हैं। अगले रोज सुबह ट्रक के आगे लगी दो विशालकाय यंत्रित बाहें बढ़ कर उस बड़े से कूड़ेदान को उठा कर ट्रक के पीछे वाले खुले मुँहनुमा हिस्से में डालती हैं और वहाँ एक और चक्की सी मशीन कूड़े को दबाते रौंदते अन्दर खींच लेती है। उसके बाद यह सभी ट्रक जमा किये कूड़े को शहर के एक खास व्यवस्थित हिस्से में जाकर फेंक आते हैं। मन ही मन मानसी ने सोचा कि उसके पति ने उनका कूड़ेदान रख दिया होगा ना. . . वरना सप्ताह भर घर का कूड़ा बाहर वाले कूड़ादान में भरना मुश्किल हो जाएगा और ऊपर से सड़ांध बदबू अलग।

खिड़की से झाँक कर देखा तो सचमुच कूड़ादान मुख्यद्वार के बाईं ओर खड़ा था। छोटी सी संतुष्टि की साँस लेकर मानसी ने गुसलखाने की ओर कदम बढ़ाए। कामकाजी स्त्री होने के नाते एक नियमित दिनर्चया रहती है मानसी की। हर काम समय पर निपटाते मुस्कुराते गुनगुनाते कभी झुँझलाते रोज ही शाम होती और फिर रात और फिर एक और नया दिन . . . .और फिर एक और नया साल.।

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