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पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


“और नेहा कहाँ है?”
बस आने वाली है। उसने बताया। मार्टिन ने उसके बैग उठा लिए। वह अभी भी इस दुविधा में खड़ी थी कि अंदर जाए या नहीं।
“कम ऑन इन मिसेज़ जी।”
नेहा की अनुपस्थिति में इस वक़्त इस फ्लैट में प्रवेश करना उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी अजनबी के घर में आ गई है जबकि इस घर का डाऊन पेमैंट उसने दिया है। हॉलवे में रखी टेलिफोन टेबल से लेकर पर्दों के रंग और सोफ़े तक में उसकी पसंद शामिल है। पर उस पल ऐसा लगा- किसी भी चीज़ पर उसकी छाप नहीं है। क्या यह मार्टिन की मौजूदगी की वजह से है?

सुबह ही नेहा का फ़ोन आया था।
“माँ आज शाम आप फ़्री हैं?”
“क्यों, क्या बात है? तुम आ रही हो?” बेटी की आवाज़ से ही उसके जिस्म में फुर्ती दौड़ गई थी।
“आपको बुलाना चाहती हूँ, अगर आप अगर कुछ ख़ास नहीं कर रहीं तो....”
“तुम्हारे बाबा तो जिनेवा गए हुए हैं।”
“इसीलिए तो। आप अकेली क्या कर रही हैं, यहाँ आ जाइए न। मार्टिन कह रहा है कि आपके हाथ का बना चिकन खाना चाहता है।”
तो तुम दोनों आजाओ न।”
“आप आकर देखिए तो सही मैंने क्या कुछ नया किया है अपने फ़्लैट में।”
“तुम जानती हो मुझे देर रात को अकेले कार चलाकर लौटना अच्छा नहीं लगता।”
“तो आप रात यहीं रह जाईएगा। प्लीज़।”
“यैस बॉस!” उसने मज़ाक के लहजे में कहा था। फिर डरते झिझकते, कि कहीं नेहा बुरा न मान जाए उसने कुछ इस अंदाज़ में पूछ ही लिया जैसे जवाब की उम्मीद न हो-
“कोई ख़ास मौक़ा है?”
“नहीं माँ, पर एक अच्छी ख़बर है।”
“क्या, बताओ ना।”
ऐसे नहीं, आप आएँगी तो बताऊँगी, कुछ तो सरप्राईज़ रहना चाहिए।”

प्रभा का दिल ख़ुशी से उछला। पिछले दस साल से प्रभा के कान तरस गए थे कोई अच्छी ख़बर सुनने के लिए। लगा, बस आज तो भगवान ने सुन ही ली उसकी। तभी से मन ही मन प्रभा ने डिनर का पूरा मेन्यू तय करना शुरु कर दिया था। चिकन के अलावा, मछली भी बनाएगी, नेहा को पसंद है, साथ में बैगुन भाजा, दाल तो ऑफ़कोर्स होगी ही पर एक हरी सब्ज़ी की भी ज़रूरत है, पालक या बीन्स। इसका फ़ैसला दुकान पर जाकर करेगी। नेहा के किचन में पूरे मसाले कभी नहीं मिलते। इसलिए, सब बनाकर पैक करके ले जाएगी।

दिन भर लगी रही। पहले शॉपिंग करके लाई, फिर मेहनत से खाना बनाया। डिब्बों में पैक किया। क्यों न करती। इकलौती बेटी है नेहा। प्रभा ने उसे नाज़ों से और समझदारी से पाला है। हमेशा इस बात का ख़याल रखा कि नेहा इस मुल्क में जन्मी है, ब्रिटिश इंडियन है, उसे कभी घर और बाहर के सांस्कृतिक टकराव से किसी उलझन का शिकार न होना पड़े, कभी अपने माँ बाप की तरफ़ से शर्मिंदगी का एहसास न हो। इसलिए प्रभा ने भी ख़ुद को बदलना शुरु किया। पहले लिबास बदला। साड़ी को ख़ास मौक़ों के लिए छोड़कर औरों की माँओं की तरह जीन्स अपनाई। शुरु शुरु में बीस मिनट पैदल चलकर नेहा को स्कूल छोड़ने जाती थी। एक दिन नेहा ने विरोध किया- सभी के माँ-बाप कार से छोड़ने आते हैं, वह भी कार से स्कूल जाएगी। प्रभा को कार चलानी नहीं आती थी। शोमेन तो सुबह सुबह ही ऑफ़िस के लिए निकल जाते थे। और फिर उनके पास टाईम भी कहाँ था। इसलिए उसने कार चलाना भी सीखा। कार की किश्तें देने के लिए, हिस्ट्री में एम ए प्रभा ने लोकल लाईब्रेरी में छोटी सी नौकरी शुरु कर ली। नेहा को प्राइवेट स्कूल भेजने की इच्छा भी उसी की थी, हालाँकि शोमेन इसके ख़िलाफ़ थे। उनका तर्क था, यहाँ के स्टेट स्कूल अच्छे ख़ासे हैं, सब बच्चे जाते हैं। पर नहीं, प्रभा अपनी बेटी के लिए बेहतरीन शिक्षा चाहती थी। क्या हुआ, अगर हम कुछ साल थोड़ी तंगी में गुज़ारेंगे, प्रभा की ज़िद थी।

नेहा पढ़ने में बहुत अच्छी निकली। ए लैवल्स में उसके बहुत अच्छे नंबर आए। प्रभा बहुत संतुष्ट थी। जहाँ नेहा की उम्र की और लड़कियों को ब्वायफ्रैंड्ज़ से फ़ुर्सत नहीं थी, वहाँ नेहा की तरफ़ से उसे कोई शिकायत नहीं थी। नेहा का सारा ध्यान अपनी पढ़ाई पर रहा। और इसका फल भी तो अच्छा मिला। नेहा को ऑक्सफ़र्ड में एडमिशन में मिला जबकि उस साल उसके साथ के किसी और बच्चे को वहाँ जगह नहीं मिली। प्रभा का दिल ज़रूर बुझा कि इकलौती लड़की इतने दिन के लिए आँखों से ओझल हो जाएगी और कौन जाने घर से दूर जाते ही ग़लत लड़कों-वड़कों के चक्कर में पड़ जाए। फिर यह सोचकर ख़ुश हुई कि ऑक्सफ़र्ड कौन सा दूर है। जब चाहो घँटे-डेढ़ में आजाओ। नेहा हफ़्ते में एक बार घर आती थी। हर वीकेंड पर। प्रभा का सारा समय उसके लिए तरह तरह के पकवान बनाने और पैक करने में बीत जाता।

“क्या माँ आप भी!” नेहा विरोध करती तो प्रभा का जवाब होता, “ खाना बनाने में टाईम न ज़ाया हो, इसलिए बनाकर दे रही हूँ।” कभी कभी डरते डरते पूछती, “ कोई दोस्त-वोस्त बने वहाँ?”
“हाँ बने। पर डरिए मत, उस तरह का कोई नहीं है जैसा आप सोच रही हैं। नो ब्वायफ़्रैंड्स।”
“कोई हो भी तो क्या हर्ज है।” शोमेन प्रभा को डाँटते।
“हाँ हाँ, कोई हर्ज नहीं पर डरती हूँ, पढ़ाई पूरी हो जाए तब जो चाहे करे।”
“नेहा समझदार लड़की है, भरोसा रखो।” शोमेन ढ़ाँढ़स देते।
“माँ ने मेरी लाईफ़ का पूरा टाईमटेबल बना रखा है। क्यों माँ?” नेहा ने माँ की तरफ़ शिकायती नज़र से देखा था।

वह दौर भी निकल गया। कॉलेज के बाद ही नेहा को लंदन में एक बड़े इनवैस्टमैंट बैंक ने जॉब का आफ़र दे दिया। घर में एक शानदार सी पार्टी हुई। प्रभा और शोमेन ने नेहा को नई कार भेंट दी। चौबीस साल की थी नेहा तब। प्रभा को उसकी वह सूरत आज भी याद है। नाज़ुक और ख़ूबसूरत। अधमुंदे पीले डैफ़ोडिल्स की तरह- जिन्हें पूरी तरह खुलने के लिए बस ज़रा सी गर्मी चाहिए, ज़रा सा पानी। प्रभा कभी कभी पुराने फ़ोटो एलबम खोलती है तो अपनी शादी के वक्त की तस्वीरों
में उसे आज से दस साल पहले की नेहा झाँकती नज़र आती है।
 
“देखो, तुम बिल्कुल मेरे जैसी दिखती हो।” एक दिन उसने नेहा को अपनी शादी के बाद की तस्वीर दिखाई। तस्वीर में ताँत की बंगाली साड़ी पहने प्रभा और धोती कुर्ते में शोमेन किसी फूलों से लदी झाड़ी के सामने खड़े हैं। तस्वीर श्वेत श्याम थी इसलिए फूलों का रंग बताना असंभव था। पर प्रभा को याद है, वे बोगनवेलिया के गहरे गुलाबी फूल थे। उस ज़माने में प्रभा और शोमेन की शादी भी ख़ासे फ़िल्मी ड्रामे के बाद हुई थी। शोमेन जबलपुर के बंगाली ब्राह्मण थे और प्रभा मेरठ के पास के एक क़स्बे के बनिया परिवार से। दोनों परिवार इस प्रेम विवाह के इतने ख़िलाफ़ थे मानो हिंदू-मुस्लिम शादी हो। पर जब शोमेन के लंदन जाने की योजना बनी तो सबने हथियार डाल दिए।

“कहाँ माँ, मेरे चेहरे पर बाबा की छाप ज़्यादा है। मैं आपकी तरह लग ही नहीं सकती।”
सुनकर प्रभा के दिल में उस दिन हल्की सी चुभन उठी थी। क्या मेरी बेटी मुझे पसंद नहीं करती। या हर बेटी अपनी माँ
की सूरत में अपनी सूरत देखने से डरती है।

अब कुछ सालों से प्रभा नेहा के चेहरे को देखने से डरती है क्योंकि कभी कभी उसे वहाँ अपने चेहरे की गहराती लकीरों की झीनी सी छाया नज़र आती है। जब अपनी पैंतीस बरस की हो चुकी अनब्याही बेटी का चेहरा देखती है, वह ख़ुद एक साल और बूढ़ी हो जाती है। क्या कमी है नेहा में। देखने में सुंदर है, उसके चेहरे पर प्रभा के नाक नक़्श और शोमेन की तरफ़ से आया बंगाल का नमक है, पढ़ी-लिखी है, बुद्धिमान है। चार-चार भाषाओं पर अधिकार है, अँग्रेज़ी, हिंदी, बँगला और फ़्रैंच। एक तरह से सर्वगुण संपन्न है। पहले सोचती थी क्यों नहीं नेहा को शादी के लायक़ कोई अच्छा लड़का मिलता ? और अब यह सवाल सालता है कि मार्टिन और नेहा शादी का फैसला क्यों नहीं करते। प्रभा एक समय से दूसरों की शादियों में जाने से बचने लगी है। पहले साल में दो बार इंडिया जाती थी, अब मन नहीं करता। घर के लोग एक ही सवाल करते हैं- तो नेहा की शादी कब है। प्रभा के पास इसका कोई जवाब नहीं है। नेहा से पूछती है तो वह टाल जाती है। मार्टिन से उसने एक दिन ज़िक्र छेड़ा तो वह बोला- “ वी आर नॉट रेडी।” शायद अब रैडी हो गए हों। क्या मालूम यही अच्छी ख़बर
देने के लिए प्रभा को बुलाया है।

सुबह शॉपिंग करके लौट रही थी कि फूलों की दूकान के सामने पैरों में अपने आप ब्रेक लग गया। देखा डैफ़ोडिल्स के गुच्छे आँखें मूँदे खड़े हैं। अभी पिछले हफ्ते तक बाज़ार में सिर्फ़ पैटूनिया या हाईसिंथ ही दिखाई दे रहे थे। उसने उत्साह में आकर चार गुच्छे ख़रीद डाले। नेहा के यहाँ भी ले जाएगी।
“कैन आई गैट यू ऐनी थिंग मिसेज़ जी?” -मार्टिन उसके सामने खड़ा पूछ रहा था।
“नो थैंक्स।” प्रभा ने जवाब दिया।
वह उठी। सोचा नेहा के आने से पहले इन्हें गुलदान में सजा दे। पानी मिलेगा तो सुबह तक खिलने शुरु हो जाएँगे।
पर है कहाँ नेहा ???

तभी बाहर के दरवाज़े में चाबी घूमने की आवाज़ हुई। प्रभा नेहा के क़दमों की आहट पहचानती है। मार्टिन उठकर कमरे से बाहर चला गया। प्रभा किचन की तरफ़ बढ़ी। सोचा खाना डिब्बों से निकाल कर परोसने के बर्तनों में रख दे। तभी पीछे से नेहा ने उसके गले में बाहें डाल दीं।
“हाय माँ। आते ही काम में लग गईं। कुछ नहीं करने दूँगी आज आपको। आपने सारा दिन लगाया होगा इतना सब बनाने में। अब आराम से बैठिए।”
“तुम्हें मालूम है, मैं आराम से नहीं बैठ सकती।”
“आज बैठेंगी। अच्छा, बताइए घर कैसा लग रहा है।”
बहुत अच्छा, पर बदला क्या है।”
“अरे, नोटिस नहीं किया आपने? सोफ़ा नया है, पेंटिंग्स नई हैं।”
“अभी देखती हूँ। खाना कितने बजे खाओगे तुम लोग?”
“जल्दी। बहुत भूख लगी है। पर आप चल के बैठिए, खाना मार्टिन और मैं लगाएँगे।”
“ठीक है। पर मछली को गर्म करते समय ज़्यादा हिलाना मत वर्ना टूट जाएगी।”

वह आकर लिविंग रूम में किसी पुराने ग़ैरज़रूरी आइटम की तरह बैठ गई। हाँ, सोफ़ा नया है पर लगभग वही रंग है जो पहले सोफ़े का था। दीवारों का पेंट भी नया लगता है। किचन से नेहा की आवाज़ सुनाई दी- ‘कम ऑन डार्लिंग।’ यह पुकार मार्टिन के लिए है। प्रभा ने टीवी का रिमोट उठाकर उसे ऑन किया। किचन से आती फुसफुसहाटें टेलिविज़न के शोर में द
ब गईं। प्रभा देर तक जाने क्या देखती रही।

“आईए।” नेहा की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। डाइनिंग टेबल ख़ूब अच्छे से सजी थी। मोमबत्तियाँ भी जलाईं थीं। वाईन कूलर में शैंपेन की बोतल देखकर प्रभा की उम्मीद की लौ मोमबत्ती से भी ऊँची हो गई। ज़रूर आज दोनों उसे वह ख़बर सुनाने वाले हैं जिसका इंतज़ार प्रभा और शोमेन इतने सालों से कर रहे हैं।
वह बैठ गई। मार्टिन ने शैंपेन खोली।
“माँ, आज तो थोड़ी सी पीनी पड़ेगी।”
“तुम जानती हो, मेरे सर में दर्द हो जाता है।”
“थोड़ी सी।” कहा नेहा ने और उसके हाथ में गिलास थमाया मार्टिन ने।
“पर पहले यह तो बताओ कि शैंपेन किस ख़ुशी में खोली जा रही है ?” उसके भीतर की उत्सुकता शैंपेन के बुलबुलों की तरह शोर मचा रही थी।
“पहले चियर्स तो कहिए, अब सुनिए अच्छी ख़बर। मार्टिन को प्रमोशन मिला है।”
बस, इतनी सी बात ! प्रभा ने सोचा। उसके हाथ का गिलास गिरते गिरते बचा।
नेहा ने उसे शिकायती नज़रों से देखा तो वह सूखे मुँह से इतना ही कह पाई-
काँग्रैचुलेशन्स मार्टिन!”

नेहा उत्साह से बताती रही कि इस प्रमोशन के बाद मार्टिन की तन्ख़वाह कितनी हो जाएगी, और कितना बोनस मिलने की उम्मीद है, मार्टिन के कैरियर में यह कितना बड़ा क़दम है वग़ैरह वग़ैरह। पर प्रभा को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। उसके दिल में तो एक ही सवाल था जिसमें इतनी बार उफान आ चुका था कि किनारे तक जल चुके थे। तो शादी कब करोगे, सवाल उसके दिल की तलहट पर जलता रहा। कमरे में चुप्पी छा गई और डाइनिंग टेबल पर सिर्फ़ छुरी काँटों की आवाज़ें बच गईं।
किचन में बर्तन धोते हुए प्रभा ने कहा, “ सोचती हूँ घर ही चली जाऊँ।”
“इतनी रात में? ऐसा मत करो माँ, प्लीज़।”
क्या कर रही हूँ मैं। प्रभा ने मन ही मन ख़ुद से पूछा।

आप मार्टिन की प्रमोशन की ख़बर पर थोड़ी और ख़ुशी ज़ाहिर कर सकती थीं।” नेहा ने मानो उसके अनकहे प्रश्न का जवाब देते हुए कहा।
“की तो थी, बधाई दी उसे। और क्या करती ?”
“बिल्कुल रूखी सी। क्या सोचेगा वह?”
“और मैं क्या सोचती हूँ, इसकी फ़िक्र उसे है? या तुम्हें है?”
नेहा की आँखों में बादल घुमड़ आए।
“माँ, डोंट स्टार्ट दैट।” नेहा ने आवाज़ चढ़ाकर कहा- “मैं ख़ुश हूँ। आप इस बात से ख़ुश हो सकती हैं?”
प्रभा को धक्का लगा। नेहा के आवाज़ चढ़ा कर बात करने से या उसके सवाल से, वह फ़ैसला नहीं कर पाई। इससे पहले कि कुछ जवाब देती, मार्टिन आ गया। उसने प्रभा के गाल पर हल्का सा चुंबन जड़कर कहा- “ गुड नाईट मिसेज़ जी। सी यू इन दि मॉर्निंग।”
और क्या, कितने दिन हो गए सुबह सुबह आपके हाथ की चाय पिए हुए। नेहा ने हँस कर कहा। जाते जाते बोली, आपके लिए गैस्ट बैडरूम मैंने ठीक कर दिया है।”

नेहा के गैस्ट बैडरूम में प्रभा बिस्तर पर लेटी तो लगा मीलों चलकर आई है। इतनी थकान किसलिए। फिर ख़ुद ही जवाब ढ़ूँढा, यह मन की थकान है। नेहा का सवाल उसके कानों में हर करवट पर मच्छर की तरह बजबजाने लगा। मच्छर कहाँ होते हैं यहाँ? लेकिन प्रभा को मच्छर की तरह ही परेशान कर रहा था सवाल। नेहा क्या जाने, अपने दिल को चारों तरफ़ खींच-खींचकर किस तरह बड़ा बनाया है उसने, यह वही जानती है। बग़ल के कमरे में उसकी बेटी एक ऐसे आदमी के साथ सो रही है, जो उसका पति नहीं है, और वह बर्दाश्त कर रही है- क्या ख़ुश नहीं है वह ?
तभी कमरे का दरवाज़ा हौले से खोलकर नेहा आई।
“माँ, सोईं तो नहीं?” उसने पूछा।
प्रभा ने बस ठंडी साँस भरी। नेहा उसके गले से लिपट गई।
“आई एम सॉरी माँ।”
“कोई बात नहीं बेटा।” प्रभा ने उसकी पीठ थपथपाई। नेहा गुडनाईट कहकर चली गई और प्रभा देर तक अपनी छाती पर उसकी बात का बोझ महसूस करती रही। क्या बताए, यही तो कर रही है वह इतने वर्षों से। नेहा की ख़ुशी में ही ख़ुश
रहने की कोशिश कर रही है।

रोज़ अपने अंतर्मन को उघाड़कर, उलट पलट कर देखती है प्रभा। कहाँ है उसका दोष। आमतौर पर माँएँ अपनी बेटियों को उतनी ही आज़ादी देती हैं जितनी उन्होंने ख़ुद पाई होती है। या उससे थोड़ी सी ही ज़्यादा। लेकिन प्रभा तो नेहा के मामले में हर क़दम पर हदों को और बढ़ाती चली गई। देश-काल का तो ख़याल रखा ही। कभी भूली नहीं कि वह पश्चिम में जन्मी लड़की की माँ है। नौकरी लगने के कुछ ही समय बाद जब नेहा ने अलग फ़्लैट लेने की बात कही थी तो वह हैरान रह गई थी। आख़िर क्यों। यह सब तो नेहा का ही है।
“माँ प्लीज़, मैं अपनी उम्र के लोगों की तरह जीना चाहती हूँ। यहाँ सभी तो अलग रहते हैं। और फिर, जब तक मैं अलग नहीं रहूँगी तब तक अपनी ज़िम्मेदारियों को समझना कब सीखूँगी?”
“तुम्हारी शादी हो जाती तो ....”
“शादी के बारे में तो अभी सोचिए भी मत। बाबा, आप ही समझाइए न, मुझे फ़िलहाल अपना कैरियर बनाना है। पहले सैटल तो हो जाँऊ।”
झूठ क्या, प्रभा जहाँ से आती है, वहाँ आज भी लड़की के सैटल होने का मतलब उसकी शादी होना है। पर शोमेन ने समझाया, “थोड़ा बदलो ख़ुद को। हमारी बेटी इस सदी के ब्रिटन की लड़की है। फिर उसकी सोच में कोई खोट भी तो नहीं है। अच्छा-बुरा सब हमसे शेयर करती है। किसी दूसरे शहर में या दूसरे मुल्क में नौकरी मिलती तो क्या रोक लेतीं तुम ?”
“वो और बात थी पर एक ही शहर में अलग रहना...।”
छेड़े दाओ ओके।”

शोमेन ने तो कह दिया पर कैसे छोड़ दे प्रभा? नेहा के अलग रहने के फ़ैसले को प्रभा ने रो धोकर किसी तरह स्वीकार कर लिया, इस वादे के साथ कि वह हर सप्ताहांत घर आएगी और नेहा ने एक हद तक वादा निभाया भी। हाँ, शादी का ज़िक्र जब जब छिड़ता, घर में युद्ध छिड़ जाता। नेहा नो एंट्री का साईनबोर्ड दिखा देती। शुरु शुरु में नेहा को जान-पहचान के दो-तीन लड़कों से मिलने पर मजबूर भी किया। पूछा तो बोली, “ यहाँ के इंडियन लड़कों के साथ बड़ी समस्या है माँ। ख़ुद तो इस सदी में रहना चाहते हैं और बीवी को पिछली सदी में रखना चाहते हैं। प्लीज़, इनसे मुझे मत मिलवाया कीजिए।
और हाँ, इंडिया से लड़का इंपोर्ट करने के बारे में सोचिएगा भी मत।”

एक दिन शोमेन ने ही पूछा था- “ बेटा, तुम अपने माँ-बाप को जानती हो। हम तुम्हें विवश नहीं करेंगे कि तुम हमारी पसंद के ही लड़के से ही शादी करो। तुम्हें कोई पसंद हो तो।”
“ऐसी कोई बात नहीं है बाबा।”
“कोई अँग्रेज़ हो ....तो भी हमें कोई ऐतराज़ नहीं होगा।” प्रभा ने और हौसला बढ़ाया।
“और काला हुआ तो?” नेहा ने माँ को चुनौती दी। “डोंट वरी, फ़िलहाल ऐसा कोई नहीं है। होगा तो ज़रूर बताऊँगी।”
“ठीक है। सीज़फ़ायर!” शोमेन ने हथियार डाल दिए थे। लेकिन प्रभा के मन में युद्ध चलता रहा।

जब होगा, तब देखा जाएगा। पर तुम हर बार एक ही राग मत छेड़ा करो।” शोमेन ने सब्र का हाथ थाम लिया। पर प्रभा और सब्र की दुश्मनी हो चली थी। शोमेन पर भी उसे ग़ुस्सा आता। इतनी जल्दी हथियार क्यों डाल देते हैं जबकि नेहा की शादी की फ़िक्र उन्हें भी है। वह लाख फ़ैसला करती कि इस बार कोई बात नहीं करेगी, लोकिन नेहा को सामने पाते ही उससे रहा न जाता। हाँ धीरे धीरे उसने अपना अंदाज़ बदल लिया। जैसे कोई खेल चल रहा हो। कुछ झिझकते हुए से सवाल होते प्रभा के होते और कुछ अनमने से जवाब नेहा के। प्रभा भी क्या करे, खुद को रोक नहीं पाती। और नेहा भी जाने किस मुर्रवत में जवाब दे ही देती। आमतौर पर बातचीत यूँ शुरु करती-
“नौकरी ठीक चल रही है “
“हाँ माँ, लेकिन बहुत बिज़ी रहती हूँ “
“ठीक से खाया पिया करो।”
“खाती तो हूँ। देख नहीं रहीं, वज़न बढ़ गया है “
“मुँह सूख गया है, काम के बाद रिलैक्स भी करना चाहिए “
“हूँ !”
“फ़्रैंड्स तो बने होंगे।”
“हाँ, कुछ हैं।”
“उनमें लड़के भी तो होंगे?”
वो भी हैं।”
“कोई ख़ास फ़्रैंड नहीं है? मेरा मतलब कोई ....”
“आपका मतलब कोई ब्वायफ़्रैंड? है न? ऐसा कोई नहीं है।”
“पर क्यों नहीं है? प्रॉबल्म क्या है?”
“यह कैसा सवाल है माँ?”
“मेरा मतलब है, तुम्हारी उम्र तक आते आते यहाँ की लड़कियाँ चार-पाँच ब्वायफ़्रैंड बदल लेती हैं और तुम....”
“कितनी उम्र हो गई मेरी?”
“यही कोई अट्ठाईस। अब भी नहीं तो कब करोगी ?”
“यू आर इम्पॉसिबल माँ। पहले आपको फ़िक्र यह थी कि कहीं कोई ब्वायफ़्रैंड न बन जाए, अब फ़िक्र यह है कि क्यों नहीं बना।” अपनी झुँझलाहट छिपाने के लिए अक्सर नेहा उठकर दूसरे कमरे में चली जाती। और प्रभा आँखों में आँसू लिए
दीवारों को ताकती रहती।

नेहा के पैदा होने के बाद से उसने जो भी गहना ख़रीदा, सिर्फ़ यह सोचकर कि यह नेहा के लिए है। दो चार बच्चे होते तो एक का दुख, दूसरे के भविष्य के सपने बुनने में डुबो देती। पर नेहा के बाद उसका दोबारा माँ बनना संभव ही नहीं था। नेहा उसके जीवन का एकमात्र गणितफल है। उसके अबतक के जीवन सबसे बड़ी पूँजी भी वही है और सूद भी वही। सारे अरमानों, सारी आशाओं को टाँगने की अकेली खूँटी। क्या इकलौती बेटी के भविष्य के सपने बुनना ग़लत है?

एक रात अचानक प्रभा को एक नई दहशत ने आ दबोचा। बेला घोष ने बताया था कि यहाँ की देखा देखी एशियन बच्चे भी समलैंगिक संबंधों को खुलेआम स्वीकार करने लगे हैं। कहीं नेहा ...भी? नहीं नहीं, यह असंभव है। पर क्या संभव और क्या असंभव है आजकल कुछ कहा नहीं जा सकता। सही-ग़लत की परिभाषाएँ बदल गई हैं। शोमेन से कुछ कहने का सवाल ही नहीं। वे कहेंगे, नौकरी छोड़कर तुमने ठीक नहीं किया। ऑफ़िस जातीं तो दिमाग़ में इतने ऊलजलूल सवालों के जाले न बनते रहते। नेहा से ही बात करनी पड़ेगी। लेकिन कैसे कहेगी, क्या कहेगी। सही शब्दों की तलाश करती रही। सही मौक़े की राह देखती रही। कहीं कोई ऐसी बात मुँह से ना निकल जाए जो अनुचित हो। आजकल पोलिटिकल करेक्टनैस का ज़माना है। किससे कहे अपनी दुविधा। वह पतझड़ का मौसम था। खिड़की के बाहर पेड़ों की सूनी डालियों को देख देखकर
वह इस डर से काँप जाती की जब सर्दियाँ आएँगी तो जाने कितनी लंबी होंगीं।

आख़िर एक दिन खाने के बाद नेहा कुछ पलों के लिए उसे अच्छे मूड में मिल गई। खाने के बाद रसोई में आकर बरतन समेटने में हाथ बँटाने लगी। और सहसा प्रभा के गले से झूल गई। बड़े लाड़ से बोली-
“आई लव यू माँ।”
“सच?”
“ऑफ़कोर्स!”
“तो एक बात पूछ सकती हूँ?” प्रभा ने अपने डर से उबरने के लिए उसे ज़ोर से भींच लिया था।
“फिर वह सब मत शुरु करना।” नेहा ने माँ की जकड़ से मुक्त होते हुए आगाह किया।
“ना, कान पकड़ती हूँ। कुछ और बात है जो तुमसे पूछना चाहती हूँ। कई दिनों से सोच रही हूँ मगर ...”
“तो पूछ ही डालिए। क्यों नींदे ख़राब करती हैं।”
“पूछने से पहले तुम्हें यह भरोसा दिलाना चाहती हूँ कि तुम्हारी माँ तुम्हें बहुत प्यार करती है और हमेशा करती रहेगी। हर
हाल में।”
नेहा की आँखों में उत्सुकता थी और होंठों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान।
“अब पूछ भी लीजिए न।”
कैसे पूछूँ? शब्द गले में अटक रहे थे। पता नहीं क्या जवाब सुनने को मिलेगा। पर हिम्मत करके कहा—
“मेरे लिए बस जानना ज़रूरी है ....बेटा.... तुम नॉर्मल तो हो न?”
“क्या मतलब?”
मेरा मतलब है, कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें लड़के पसंद ही नहीं, कहीं तुम....”
“लेज़बियन हूँ कि नहीं, यही सवाल है न माँ ? जवाब है, नहीं। मैं हेट्रोसैक्सुअल हूँ। मुझे लड़के पसंद हैं, मुझे उनका साथ पसंद है, मुझे उनके साथ सोना पसंद है। और आपकी इनफ़ॉरमेशन के लिए, दो के साथ सो भी चुकी हूँ। ख़ुश?”

नेहा रसोई से बाहर निकली और हॉलवे में टँगा अपना कोट उठा लिया। फिर प्रभा की तरफ़ लौटी-
“मेरी ट्रैजेडी यह है माँ कि अब तक जो लड़के मुझे अच्छे लगे उनका मुझमें सैक्स के अलावा कोई लाँग टर्म इंटरेस्ट नहीं था। जिनका रहा वे मुझे पसंद नहीं थे। गुड नाईट माँ!” कहकर वह पैर पटकती घर से बाहर निकल गई। और प्रभा मैडम टूसाड्स म्यूज़ियम में रखे किसी मोम के बुत की तरह खड़ी रही। बाहर का दरवाज़ा जिस ध्वनि के साथ बंद हुआ उसमें ग़ुस्से, झुँझलाहट और तकलीफ़ की अनुगूँज थी।
“की होलो, होलो टा कि?” शोमेन अपने कमरे से निकल कर आए।
किछू ना।” प्रभा ने भी बँगला में छोटा सा जवाब दिया।

प्रभा समझ नहीं पाई कि वह हँसे या रोए। बस इतना महसूस हुआ कि दिल की जगह, जहाँ कई दिनों से बर्फ़ की सिल्ली जमी थी, वहाँ अब बाढ़ आने को है। उस दिन के बाद से प्रभा ने निश्चय किया कि अब नेहा से कोई आलतू फ़ालतू सवाल नहीं करेगी। एक न एक दिन नेहा के जीवन में ज़रूर कोई ऐसा आएगा जो उसे गर्माहट से भर देगा। कोई भी हो, कहीं का भी हो। प्रभा ने अब तक अपनी इच्छाओं के आकाश को निचोड़कर रुमाल जितना कर लिया था। पहले चाहती थी किसी अच्छे से लड़के से शादी हो नेहा की- इंडियन हो तो बेहतर है, अच्छे घर का हो, पढ़ा-लिखा और संस्कारी हो, ज़ात-पात के मामले में प्रभा और शोमेन उदार थे। फिर सोचा, इंडियन न भी हो तो क्या। अच्छी नौकरी करता हो। फिर बस यही दुआ रह गई कि शादी करे न करे मगर कोई तो आए ऐसा उसकी ज़िंदगी में जो उसे ख़ुशी दे।

और वह आया। माँ की नज़र भी जासूस की नज़र होती है। उसके आने की ख़बर प्रभा को नेहा का चेहरा देखकर ही लग गई थी, हालाँकि बताया उसने कई महीनों के बाद था। उसका चेहरा खिलने लगा था। खाना भले ही नापतोल के खाती, मगर रुचि के साथ खाने लगी, नए नए कपड़े ख़रीदने लगी, ढँग से मेक अप करने लगी। प्रभा मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि काश जो वह देख रही है, वह सपने का बादल न हो कि हाथ लगाते ही उड़ जाए।

क बार नेहा ने माँ को डिनर का निमंत्रण दिया था। शोमेन उन दिनों शहर से बाहर थे। प्रभा को उसके बाथरूम में खूँटी पर लटकी मर्दाना कमीज़ नज़र आई थी। माथे पर सवालों की लकीरें उभर आईं।
“सॉरी, घर में कुछ नहीं पका सकी। चाईनीज़ टेकअवे चलेगा। किचन ठीक करवा रही हूँ। सब उखड़ा पड़ा है। होप यू डोंट माइंड।” नेहा ने माफ़ी माँगते हुए पूछा था।
“कोई बात नहीं। चाईनीज़ चलेगा “
चिकन विद ब्लैकबीन सॉस, वैजिटेरियन नूडल्स और गार्लिक प्रॉन मेज़ पर सज गए। खाते खाते प्रभा ने पहला सवाल दाग़ा।
“सारा किचन बदलवा रही हो?”
“हाँ, जबसे यह फ्लैट लिया है तभी से सोच रही थी पर मौक़ा ही नहीं मिला।”
“काफ़ी ख़र्चा होगा। किससे काम करवा रही हो। पहले बतातीं तो एंडी से कह देते।”
नहीं, एक दोस्त है। वह मदद कर रहा है।”
“आई सी। कोई बिल्डर है क्या?”
“उहूँ। एक दोस्त है कहा न।”
“कौन, हम जानते हैं उसे?”
“नहीं, अभी दो-तीन महीने पहले पहचान हुई है।”
“नाम क्या है?”
“मार्टिन।”
“यही काम करता होगा ...बिल्डिंग वग़ैरह का।”
“एक्सैंचर में काम करता है माँ।”
“किचन फ़िट करना आता है उसे?”
“आता है, इस तरह के डी आई वाई काम करने का बहुत शौक़ है।”
“फिर भी, कुछ तो पैसा लेगा।”
“कुछ नहीं, वह अपनी ख़ुशी से यह काम कर रहा है।”
“सिर्फ़ ख़ुशी के लिए? एक्सैंचर में काम करता है तो बहुत बिज़ी रहता होगा। समय कैसे मिल जाता है उसे?”
“शाम को और वीकेंड्स पर करता है। बाक़ी समय अपनी नौकरी करता है।”
तब तो बहुत नज़दीकी दोस्त होगा। नहीँ?”
“बताया न।”
“हाँ बताया तो अभी दो तीन महीने पहले पहचान हुई है। मुलाक़ात कैसे हुई?”
“एक पार्टी में।”
“कहीं पड़ोस में रहता होगा।”
“पहले हैंपस्टेड में रहता था।”
“और अब?”
“नूडल्स और दूँ क्या?”
“नहीं बस। तुम्हारे साथ रह रहा है क्या?”
“वो क्या है कि नया फ़्लैट उसे अगले महीने मिलने वाला है। कुछ दिनों के लिए जगह चाहिए थी बस....”
“कितने दिन से यहाँ है?”
“क़रीब तीन हफ़्ते से।”
“और तुमने हमें बताया भी नहीं?”
“बताने वाली थी।”
“आज कहाँ है?”
किसी मीटिंग के लिए ब्रसल्स गया है।”
“कब लौटेगा?”
“दो दिन बाद। मिलवा दूँगी बाबा। अब तो ख़ुश? अब आप प्लीज़ ट्वैंटी क्वेस्चन्स का खेल बंद करेंगीं ?”
लेकिन न चाहते हुए भी प्रभा के मुँह से निकल ही गया- “ सीरियस है या यूँ ही समय काट रहा है ? मेरा मतलब है....”
“फिर वही माँ?” नेहा ने विरोध किया, “ इसलिए तो आपको कुछ बताती नहीं। आपमें और जबलपुर में बैठीं काकी माँ में कोई फ़र्क नहीं है। हर वक़्त शादी की रट। ऐसा लगता है कि लंडन अंडरग्राऊँड स्टेशन के प्लैटफ़ॉर्म पर रिकार्ड किया हुआ मैसेज बार बार बज रहा हो- माइंड दि गैप, माइंड दि गैप।”
“मैंने क्या कहा ?”
मैं सब समझती हूँ, बोका नहीं हूँ।” ग़ुस्से में नेहा कभी कभी बंगला के शब्दों का प्रयोग करने लगती है।

“बुद्धू तो नहीं हो लेकिन बस माँ की इच्छा को ही नहीं समझतीं।” और प्रभा हमेशा की तरह चुप हो गई। उसके बीस सवाल भी तो पूरे हो चुके थे। नेहा और उसके बीच बना संवाद का पुल फिर बंद हो गया था। पर साथ ही प्रभा को उम्मीद का एक नया पुल बनता दिखाई दिया। इससे पहले नेहा ने कभी किसी ‘दोस्त’ से मिलवाने की बात नहीं की। ज़रूर इस बार कोई ख़ास बात है।

वह भी वसंत के आगमन से पहले के दिनों की कोई शाम थी। ठंड अब भी थी लेकिन दिन की रौशनी कुछ घंटे और रुकने लगी थी। कहीं कहीं पीले चटख़ डैफ़ोडिल्स खिलने लगे थे। ऐसी ही एक शाम नेहा मार्टिन को लेकर आई थी। प्रभा को लड़का भा गया था। दोनों साथ में अच्छे लगते थे। मार्टिन स्कॉटिश है। उसके माँ बाप ग्लासगो में रहते हैं और वह लंदन में काम कर रहा है। एक्सेंचर में वाईस प्रेज़िडेंट। मार्टिन से मिलने के बाद से ही एक बार फिर प्रभा के दिल में शादी के गीत गूँजने लगे थे। पर नेहा ने माँ के उफनते उत्साह को रोका।

“छह महीने भी नहीं हुए हमें एक दूसरे से मिले हुए माँ। एक दूसरे को समझा कहाँ है। और फिर एक क्लचरल गैप है हमारे और उसके परिवार के बीच।”
“कल्चरल गैप तो मेरे और तुम्हारे बाबा के परिवार के बीच भी था। लेकिन सब अच्छा ही रहा अब तक।”
“वह अलग बात थी। यह सच है मैं मार्टिन को पसंद करती हूँ लेकिन...”
“सिर्फ़ पसंद?”
“ओके। मैं उससे प्यार करती हूँ। और शायद वह भी। पर शादी के सवाल पर हमने अभी तक बात नहीं की। आप प्लीज़ थोड़ा सा इंतज़ार कीजिए।”

प्रभा इंतज़ार करती रही। शोमेन इंतज़ार करते रहे। लेकिन बात आगे बढ़ी तो बस इतनी कि नेहा और मार्टिन ने एक छत के नीचे नेहा के फ्लैट में साथ रहने के फ़ैसले की बाक़यदा घोषणा कर दी। “इस तरह हम एक दूसरे को बेहतर ढंग से समझ सकेंगे।”
“प्रोश्नो ई ओठे ना।” इस बार हमेशा धीरज रखने वाले शोमेन ने विरोध किया। “साथ रहना है तो शादी करने में क्या समस्या है। कह दो उसे, मुझे यह लिविंग टुगैदर का कल्चर बिल्कुल पसंद नहीं है। इंडिया में किसी घर वाले को पता चल गया तो क्या जवाब देंगे।”
“तो तुम कहना, मेरी तो वह सुनेगी नहीं।”
“हाँ हाँ कह दूँगा। और यह भी कह दूँगा कि यही करना है तो हमसे कोई वास्ता न रखे। बहुत बर्दाश्त कर लिया हमने।”
पर जब नेहा से आमना सामना हुआ तो शोमेन के मुँह से विरोध का एक शब्द नहीं निकला। प्रभा को कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब शोमेन ने कहा-
“तुम जानती हो तुम्हारी माँ परेशान है तुम्हारे इस फ़ैसले से।”
“माँ तो मेरी हर बात से परेशान रहती हैं बाबा, इंडिया बदल गया पर माँ नहीं बदली। क्या करूँ, जीना छोड़ दूँ।”
“ऐसी बात नहीं है, भला चाहती है तुम्हारा। मुझे भरोसा है कि तुम जो भी क़दम उठा रही हो सोच समझकर उठा रही हो। गु
ड लक।”

प्रभा अवाक बाप-बेटी के बीच का संवाद सुनती रही। धीरे धीरे उसने ख़ुद ही मन को समझाया। हो सकता है इसी बहाने शादी का कोई मुहूर्त निकले। इतना तो तय है कि दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। इधर कुछ महीनों से नेहा कितनी ख़ुश है। यह प्रभा ही जानती है कि नेहा के इस फ़ैसले को स्वीकार करने के लिए उसे कितनी हिम्मत जुटानी पड़ी थी। बस नेहा की ख़ुशी की ख़ातिर उसका साथ दिया। आज तक दे रही है। इस आशा में कि एक दिन दोनों शादी करेंगे। मार्टिन को प्रभा ने हमेशा दामाद का सा सम्मान दिया है। उसके जन्मदिन पर हर बार महँगे उपहार दिए, उसके माँ-बाप को घर बुलाया डिनर पर। भले लोग लगे। एक बार उन लोगों ने प्रभा और शोमेन को भी ग्लासगो बुलाया। प्रभा ने उनके लिए अच्छे से अच्छे तोहफ़े ख़रीदे। सोचा, बेटी की होने वाली ससुराल का मामला है। पर मार्टिन से प्रभा को दो सख़्त शिकायतें हैं। उसके बार बार कहने पर भी आज तक हिंदी का एक शब्द नहीं सीखा और ना ही प्रभा को कभी ‘माँ’ कहा। हमेशा ‘मिसेज़ जी’ कहता है। क्योंकि न उससे प्रभा कहा जाता है और न ही बैनर्जी, इसलिए बैनर्जी का अंतिम अक्षर ‘जी’ ही उसने अपना लिया है। प्रभा ने एतराज़ किया तो नेहा ने समझाया-
“कम ऑन माँ, यू नो इट। इनके कल्चर में नाम ही लिया जाता है। आप मेरी माँ हैं, उसकी नहीं। प्लीज़, डोन्ट पुश हिम टू
हार्ड।” सो प्रभा ने कुछ कहना ही छोड़ दिया। और नेहा पूछती है, आप इस बात से ख़ुश रह सकती हैं कि मैं ख़ुश हूँ?

जाने कौन सी करवट थी, जहाँ उसकी आँखें मुँद गईं। जब खुलीं तो देखा, नीले पर्दों से सुबह की हल्की सी रौशनी छन कर आ रही है। पता नहीं आज धूप निकलेगी यहाँ नहीं। पर इतना तय है कि शाम को शोमेन वापस आ जाएँगे। प्रभा किचन में गई। बस एक प्याला चाय पीकर नेहा और मार्टिन के लिए नाश्ता तैयार कर देगी, प्रभा ने तय किया। जब वह है तो सिर्फ़ टोस्ट खाकर क्यों दफ़्तर जाएँ। उसे आलू दिखाई दिए। गुड, दोनों को पराँठे पसंद हैं। चाय का पानी केतली में डाला। आलू धोकर उबालने रख दिए। चाय का प्याला लेकर बैठी ही थी कि नेहा के बैडरूम से उसकी उनींदी सी आवाज़ आई-
“माँ, दो कप चाय बना दो प्लीज़!”
प्रभा भिड़े हुए दरवाज़े के पास गई और कहा, “ बनाती हूँ, यहाँ आ जाओ।”
“नो माँ!” नेहा की आवाज़ में नख़रा है। “यहाँ दे दो न। आई लव यू माँ।”
प्रभा ने दो मग उठाए और चाय बनाई। नेहा के बैडरूम का भिड़ा हुआ दरवाज़ा ठेल कर अंदर गई। बिस्तर पर अधलेटी सी नेहा को देखा, झीनी सी नाईटी में अधखिले डैफ़ोडिल्ज़ जैसा चेहरा जिस पर रात का ख़ुमार है। मार्टिन की छाती नंगी है, सिर के सुनहरी बाल बिखरे हुए हैं।
“गुड मॉर्निंग मिसेज़ जी।”
“गुड मॉर्निंग।” प्रभा बुदबुदाई। उसने संकोच से आँखें झुका लीं। लगा किसी अनजान दंपति के कमरे में आ गई है। मेज़ पर चाय के मग रखकर वह उलटे पाँव बाहर आ गई। उस पल पहली बार प्रभा को एहसास हुआ कि वह वाक़ई नहीं
बदली। बदल सकती भी नहीं। बस उसने आसपास के बदलाव को रोते-झींकते स्वीकार करना सीखा है।
पीछे से नेहा की आवाज़ आई- “ ब्लैस यू माँ।”

किचन में उसका चाय का प्याला अधपिया ही रखा था। उसे भूलकर वह जल्दी जल्दी नाश्ते की तैयारी करने लगी। आटा गूँधा, आलू छील कर रख दिए। मन हुआ नेहा को आवाज़ दे कि जल्दी से नहा लो, मैं गर्मागर्म पराँठे बना रही हूँ। लेकिन आवाज़ देने में सकुचाहट सी हुई। गैस्ट बैडरूम में जाकर कपड़े बदले। रात को पहने कपड़े तह करके रख रही थी कि नेहा आ गई।
“क्या माँ, इतनी जल्दी तैयार हो गईं?”
“तुम लोगों को नाश्ता कराके जाऊँगी, आलू के पराँठे।”
“नहीं माँ, आजकल मुझसे सुबह कुछ खाया ही नहीं जाता।”
“क्यों, तबीयत तो ठीक है?” जवाब दिए बग़ैर नेहा बाथरूम में घुस गई। दो मिनट बाद लौटी तो चेहरा सूखा और ज़र्द था। मुर्झाए हुए डैफ़ोडिल्स की तरह।
“क्या बात है नेहा?” नेहा ख़ामोश रही। प्रभा के दिल पर से जैसे धड़धड़ाती हुई अंडरग्राउँड रेलगाड़ी निकल गई। उसने डरते डरते पूछा-
“कहीं तुम प्रैगनैंट तो नहीं हो?”
नेहा ने हाँ में सिर हिलाया। प्रभा ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला पर आवाज़ नहीं निकली। अगला सवाल कुछ पलों के लिए गले में रुका रहा। फिर बाहर निकला-
“मार्टिन को पता है ?”
“हाँ।” नेहा ने धीरे से कहा।
तो शादी कब कर रहे हो ? ”
“अभी नहीं।”
क्यों। अब तो शादी हो ही जानी चाहिए। तुम नहीं कह सकतीं तो मैं अभी जाकर बात करती हूँ।”
“प्लीज़ माँ!” नेहा उसका रास्ता रोककर खड़ी हो गई। “वह समझेगा हम उसका घेराव कर रहे हैं। वह पहले ही आपसे घबराता है। उसे लगता है आप हर समय उसपर शादी का दबाव डालती हैं।”
“मैंने तो उससे कुछ कहना-सुनना ही छोड़ दिया था।”
“बात कहने से ही नहीं कही जाती माँ।”
“ऐसा क्या किया है मैंने। दो साल हो गए तुम्हें यह लिविंग टुगैदर करते, और आज तक शादी का फ़ैसला न हो सका। और अब तुम प्रगनैंट हो...अब भी अगर उसका शादी का इरादा नहीं तो समझ लो कभी था ही नहीं। कहता क्या है वो ?”
“वह दिखावे के लिए इंगेजमैंट करने को तैयार है ताकि आप लोग शादी का दबाव डालना बँद कर दें।” इतना कहकर नेहा रोने लगी। नेहा को इस तरह बिलखकर रोते हुए प्रभा ने पहले कभी नहीं देखा। ज़रूर मार्टिन की बात से उसके दिल को बहुत चोट पहुँची है। उसने नेहा को गले लगाते हुए कहा-
“और तुमने ऐसे आदमी के लिए अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल ज़ाया कर दिए। छोड़ दो उसे, आज भी तुम्हें एक से एक अच्छे लड़के मिल जाएँगे।”
नेहा झटके से अलग हो गई आँसुओं से भरी आँखों से कुछ पल उसे घूरती रही। फिर बोली-
“माँ, आपकी स्मॉलटाउन मेंटेलिटी की वजह से मार्टिन क्या, कोई लड़का मेरी ज़िंदगी में नहीं टिकेगा।”

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२६ मार्च २०१२

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