शारदा घर से
ग़ायब थी। कॉफ़ी टेबल पर उसका पत्र पढ़कर दोनों सकते में आ गए।
कहाँ गयी होगी शारदा? पड़ोसी तो केवल इतना कह सके कि वह टैक्सी
में बैठकर गयी है। एक सूटकेस भी था साथ में। जान पहचान के
लोगों से पूछा गया। कोई सुराग़ नहीं मिला। पुलिस को रिपोर्ट
करने से वे डरते थे। प्रश्नों में से प्रश्न निकलेंगे और उनके
बेतुके उत्तरों से जो फंदा बनेगा, वह रजत को जेल पहुँचा देगा
और प्रभा और रिंकु को भारत लौटना पड़ेगा। वहाँ वह छ: महीने के
बच्चे को लेकर किसके सहारे जिएगी?
रजत और प्रभा ने कलेजे पर पत्थर रख लिया। शारदा के घर से भाग
जाने की बात अतीत के ग़ुबार में कुछ ऐसी गुम हुई कि स्वयं रजत
और प्रभा भी भूल गए कि उसी छत के नीचे कोई शारदा भी रहती थी –
रजत की पत्नी और प्रभा की बड़ी बहन!
चार साल पहले रजत और शारदा का विवाह हुआ था – प्रेम विवाह! वह
छ: सप्ताह की छुट्टियों पर भारत आया था। एक पार्टी में शारदा
को देखा और लॉटरी निकल गयी। अकेला आया था और अतीव सुन्दरी
एम॰ए॰ पास वधू को साथ लेकर लंदन लौटा। विदा के समय विधवा माँ
ने वही घिसा पिटा उपदेश बेटी के कानों में उंडेल दिया, “बेटी
मेरे दूध की लाज रखना। भले घरों की लड़कियाँ डोली में बैठकर
ससुराल जाती हैं और कंधों पर सवार अर्थी पर निकलती हैं।”
वह तो अर्थी की सवारी को तैयार थी पर कोई कंधा ही खिसका दे तो
कोई क्या करे?
लंदन में रजत का अच्छा जमा हुआ बिज़नेस था। पैसे की कोई कमी न
थी। मज़े में दोनों की ज़िंदगी कट रही थी। फिर अचानक बुलबुला फूट
गया।
डॉक्टरों ने साफ़ कह दिया कि अविकसित गर्भाशय के कारण शारदा कभी
माँ न बन सकेगी। लॉटरी लगने पर रक़म न मिलने पर जो अन्याय होता
है, कुछ वैसा ही लगा! कभी सोचा न था कि जिस औरत का बाह्य
स्वरूप ऐसी भरपूर बहार है, वह अंदर से रेगिस्तान निकलेगी।
दिन भर रजत काम पर होता। दिन भर शारदा दीवारें ताकती। शाम को
भोजन के बाद टी॰वी॰ देखते। या फिर कोई फ़िल्म देखने के लिए निकल
जाते। पार्टियों में हो आते या फिर घर में पार्टी कर लेते। दिल
के बहकाने के कई ढंग थे... बहलाने का कोई नहीं!
एक दिन झिझिकते झिझिकते शारदा ने कह डाला, “कोई बच्चा गोद ले
लेते हैं।” “किसका बच्चा?” “किसी का भी।” “किसी अंजान हरामी का
बाप नहीं बनूँगा मैं,” रजत ने डाँट लगाई। उस दिन के बाद शारदा
ने मुँह नहीं खोला।
माँ तो रही न थीं। प्रभा उन दिनों बी॰ए॰ फ़ाइनल में थी और कॉलेज
हॉस्टल में रहा करती थी। वह जब फ़ोन पर बहन से बात करती तो बड़ी
संतुष्ट और ख़ुश लगती। पर गर्मी की छुट्टियों के दिनों में जब
उसका पत्र शारदा को मिला तो सही तस्वीर सामने आई।
“प्रिय दीदी, एक वीराने में पड़ी हूँ। पिछली गर्मियों में तो
नेपाल से सुंदर तस्वीरें भेजी
थीं। उस नेपाली सहेली का तो विवाह हो गया है। अब कहो तो सुनसान
हॉस्टल के कुछ फ़ोटोग्राफ़ भेज दूँ।
छुट्टियों में लगभग सभी लड़कियाँ अपने अपने घरों को लौट गयी
हैं। हम चार छ: लड़कियाँ रह गयी हैं। वे तो सब विदेशी हैं। दिल
तो अपनों के बीच ही लगता है न? अकेली बोर हो रही हूँ। यह
छुट्टियाँ तो जैसे तैसे काट लूँगी पर फ़ाइनल परीक्षा के बाद कहा
जाउँगी?
तुम बड़ी लकी हो दीदी! एम॰ए॰ के झट बाद जीजा जी को फाँस लिया।
हमसे तो यह एम॰ए॰ वैम॰ए॰ होगा नहीं। हम भी क़िस्मत आज़माएँ...
जल्दी बतलाओ कि ये दुलहे किस मंडी में मिलते हैं?
जीजा जी को मेरी नमस्ते कहना।
तुम्हारी, प्रभा”
रजत ने भी पत्र पढ़ा। हँसकर बोला, “ठीक है... भारत में या फिर
इंग्लैंड में दूल्हों की मंडी में जाल फेंकते हैं।”
जाल फेंका गया पर सब व्यर्थ! दुलहा कोई फँसा नहीं और प्रभा की
परीक्षा भी हो चुकी। तब शारदा ने एक तरकीब सुझाई। ब्रिटेन के
क़ानूनानुसार यहाँ कोई भी अविवाहित स्थायी नागरिक –- वह पुरुष
हो या स्त्री – विदेश में विवाह करके अपने जीवन-साथी को यहाँ
लाकर घर बसा सकता है। शारदा बोली, “प्रभा के लिये लड़का मिल
गया।” “कौन?” “तुम!” “पागल हो गई हो क्या?”
“झूठ-मूठ का विवाह कर लो प्रभा के साथ।” “यह जुर्म है। तुम
मुझे जेल भिजवाओगी।” “जेल जाएँ तुम्हारे दुश्मन! तुम्हारे
पासपोर्ट पर तो लिखा नहीं कि तुम विवाहित हो। गुपचुप विवाह कर
लो। प्रभा को यहाँ ले आओ। फिर गुपचुप तलाक़ दे दो। बाद में उसका
सही ढंग से विवाह कर देंगे। यह तो आम हो रहा है। पड़ोसन लता की
बहन रमा और अनूप कौर की बहन भी तो इसी चलाकी से आई हैं –- ईज़ी,
सिंपल”, शारदा ने चुटकी बजाई।
रजत नहीं माना। लेकिन जब भरी भरी आँखों से शारदा ने कहा,
“अकेली लड़की भारत में कहाँ रहेगी? क्या करेगी?” आख़िर वह यह
ख़तरनाक खेल खेलने को तैयार हो गया। प्रभा को मनाना भी कोई आसान
नहीं था। फ़ोन पर ऐसी बातें हो नहीं सकतीं। स्वयं रजत शारदा का
एक लम्बा-चौड़ा पत्र लेकर देहली पहुँचा। उसने प्रभा को समझाया,
“तुम्हारी शादी तुम्हारे मन पसंद लड़के से ही की जाएगी। तुम्हें
तो बस मेरी पत्नी होने की ‘एक्टिंग’ करनी होगी। कुछ नहीं...
बिल्कुल कुछ भी नहीं बदलने वाला।”
...और प्रभा भी मान गयी। निश्चित योजनानुसार एक रविवार को एक
साप्ताहिक हवन यज्ञ के एक आर्य समाज में दोनों का ‘विवाह’
संपन्न हुआ। एक अज्ञात वृद्ध महाशय ने कन्यादान किया और दो
उपस्थित सज्जनों ने बतौर गवाह रजिस्टर पर दस्तख़त कर दिए। शादी
के कुछ फ़ोटोग्राफ़ भी लिए गए। विवाह का प्रमाण पत्र भी हाथ लग
गया।
प्रभा की वीज़ा याचिका मिलने पर ब्रिटिश हाइ कमीशन ने इंटरव्यू
के लिये तीन महीने बाद बुलाया। इसी सिलसिले में रजत भी देहली
पहुँच गया। विवाह तो बस दिखावे भर का था। पर दिखावे के काग़ज़...
प्रमाण-पत्र, फ़ोटोग्राफ़ आदि तो सब सही थे। शारदा का जादू चल
गया। प्रभा को वीज़ा मिल गया।
रजत और प्रभा का हवाई सफ़र ठीक ही चल रहा था। फिर छा गया श्वेत
अंधेरा! यात्रियों को सूचना मिली कि उत्तर और पश्चिमी यूरोप
में गहन कोहरे के कारण हवाई जहाज़ को दक्षिण यूरोप की ओर लौटना
पड़ रहा है। अन्तत: वे रोम के हवाई अड्डे पर उतरे। सभी
यात्रियों को एक होटल में ठहरा दिया गया। दो रातें रोम में
काटने के बाद तीसरे दिन जाकर मौसम साफ़ हुआ और वे लंदन पहुँच
सके।
लंदन के हीथरो एयरपोर्ट पर यात्रियों के स्वागत-स्थल पर खड़ी थी
शारदा! रजत और प्रभा को एक साथ देखकर एक परम विजय की चमक आ गयी
उसकी आँखों में! दोनों के ‘तलाक़’ के बाद प्रभा के विवाह के
उज्जवल सपने वह अभी से देखने लगी। वह नहीं जानती थी कि उसकी यह
विजय बस चार दिन की चाँदनी है।
एक सुबह जब शारदा टॉयलेट जाने को हुई तो अंदर से प्रभा के क़ै
करने की आवाज़ आई। वह बाहर निकली तो उसने बहन से पूछा, “कुछ उलट
सुलट खा लिया क्या?” प्रभा बिना उत्तर दिए अपने कमरे में भाग
गयी। जब दो तीन दिन तक यही लक्षण रहे तो उसने स्वीकार किया कि
वह गर्भ से है। “यह सब कैसे हुआ?” “रोम के होटल में हर दंपति
को अलग कमरा मिला था। वही हुआ जो होता है। आग भड़क उठी, मोम
पिघल गयी,” प्रभा रो पड़ी।
शारदा ने दिल को तसल्ली दी कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। वह और रजत
बच्चे को गोद ले लेंगे और प्रभा का विवाह कर देंगे। यही बात जब
उसने पति से कही तो उसने “देखेंगे” कहकर टाल दिया।
दूसरी बार जब शारदा ने अपनी बात दोहराई तो रजत का दो टूक जवाब
था, “चार वर्षों में जो तुम न कर सकी, वह प्रभा ने दो रातों
में कर दिखाया।
मुझे बच्चे चाहिये जो मुझे उसी से मिलेंगे।” “यह क़ानूनन जुर्म
है।” “याद है शारदा, यही मैंने कहा था जब तुमने पहली बार प्रभा
से शादी की बात कही थी।” “एक म्यान में दो तलवारें, यह नहीं हो
सकेगा।”
अब प्रभा भी कमरे में आ चुकी थी। वह बोली, “क्यों नहीं हो
सकेगा। यह हो गया है। दीदी, म्यान तो तुमने उसी दिन उधेड़ दी थी
जब तुमने स्वयं अपने पति को विवाह के लिए सौंपा था। रजत अब हम
दोनों के पति हैं यही हक़ीक़त है।” रजत ने विवाद को निपटाया,
“सुनो शारदा! हम तीनों अगर प्यार से एक साथ रहना चाहें तो रह
सकते हैं। हाँ, यदि तुम अपने और अपनी बहन के पति को भेजना चाहो
तो बना लो क़ानून को मध्यस्थ!”
प्रभा ने एक बेटे को जन्म दिया। नाम रखा गया रंजन। सभी उसे
प्यार से रिंकु बुलाते थे। शारदा तो उसे बेहद प्यार करती थी।
वह उसे अपनी बहन का नहीं, अपना ही बेटा समझती थी। पर बदले में
उसे क्या मिला?
रजत का आश्वासन कि वे तीनों प्यार के साथ एक साथ रह लेंगे एक
ढकोसला था। प्रभा अब रजत के बेडरूम तक पहुँच गयी थी। शारदा को
एक दूसरा कमरा मिल गया था। दोनों का अपने अपने स्थान से हटना
असंभव था। शारदा तो परिवार के हाशिये पर एक अस्तित्व भर थी...
एक प्रश्न चिह्न!
दोनों बहनें अब बहनें न रहकर सौतनें बन गयी थीं और सौतनों जैसे
ही थे उनके झगड़े। एक प्रिय पत्नी थी, माँ थी। दूसरी थी एक आया,
एक गवर्नेस... और कभी कभी एक दूसरी औरत!
शारदा अपना अपमान, तिरस्कार सहती रही... और सहती भी रहती, पर
उस दिन उसकी सगी बहन ने उसके बाँझपन को गाली दे डाली। दोनों के
बीच किसी बात पर झगड़ा हुआ था। शारदा ने झुँझला कर कहा, “आग
लेने आई और...”
प्रभा ने बात काटी, “हाँ, हूँ मैं घर वाली। दीदी, आग तो तुम
लेती आई हो। इस जगह को घर तो मैं ने बनाया है, परिवार दिया है
और परिवार बढ़ाऊँगी भी। तुम कर सकती हो यह सब?”
शारदा रात भर तकिया भिगोती रही। अगले दिन उसने घर छोड़ दिया।
शारदा के कॉलेज के दिनों की सहेली थी, शैलजा। देहली एयरपोर्ट
से टैक्सी लेकर वह सीधी उसके घर पहुँची। “तुम अचानक यहाँ?”
“विपदा बनकर आ खड़ी हुई हूँ।” “क्यों, क्या हुआ।” “पति, घर सब
छोड़ आई हूँ। लम्बी कहानी है। बाद में बताऊँगी।”
शारदा की लम्बी कहानी में एक ही तो शब्द था – बाँझपन! उसने यह
कहानी शैलजा को सुनाई और शैलजा ने अपने पति नरेश को।
नरेश ने शारदा की हर तरह से सहायता की। उसने उसके लिए एक कमरे
का प्रबंध करवाया और फिर अपनी सिफ़ारिश से एक कंपनी में अच्छी
नौकरी भी दिलवा दी। उसके कमरे में टेलिफ़ोन भी लगवा दिया। आसान
किश्तों पर टी॰वी॰ लगवा दिया और कई छोटे मोटे काम कर दिए। नरेश
की सहायता से वह एक बार फिर स्थापित हो सकी।
अब तीनों में घनिष्टता काफ़ी बढ़ चुकी थी और फ़ालतू समय में वे
तीनों एक साथ होते – कभी शैलजा के यहाँ तो कभी शारदा के कमरे
में। आज तीनों को एक साथ फ़िल्म देखने जाना था। एडवांस बुकिंग
हो चुकी थी। रात नौ बजे का शो था, पर नरेश तो छ: बजे ही पहुँच
गया था –- अकेला और नशे में! उसने तय कर लिया था कि आज शारदा
से वसूली का दिन है।
गर्मियों के दिन थे। शारदा अभी नहाकर निकली थी। उसने केश
संवारे। कपड़े बदले। अभी मेकअप कर रही थी, जब नरेश ने द्वार
खटखटाया। “जीजाजी, अभी तो छ: ही बजे हैं। बस पांच मिनट और
लूंगी।” वह फिर से दर्पण की ओर बढ़ी मगर पहुँच नहीं पाई। नरेश
ने उसे अपने बाहु-पाश में जकड़ लिया। “तुम्हारे हज़ार काम किए
हैं मैंने। एक ज़रा सा मेरा काम भी कर दो।” उसने शारदा के
होंठों पर होंठ रख दिए। बड़ी मुश्किल से वह अपने को छुड़ा सकी।
उसके नाख़ुन काम आए। नरेश के चेहरे पर खरोंचें डालकर उसने हज़ार
शिकायतें लिख दीं। वह फिर भी उसकी ओर बढ़ा। “तुम सुंदर...
जवान... अकेली... और मज़े की बात, बाँझ भी! ज़िन्दगी भर ऐश कर
सकते हैं।” नरेश आगे बढ़ता रहा। वह पीछे हटती रही... पीछे और
पीछे। फिर वह चिल्लाई, “बाँझपन मेरी मजबूरी है, जुर्म नहीं।
तुम मर्द लोग बार बार इस ‘जुर्म’ की सज़ा देते हो... अपने अपने
अंदाज़ में! एक ने सुहाग सेज से दुतकार फेंका। दूसरा कहता है
बाँझ हो, रखैल बन जाओ।” “हाँ, मैं सुंदर हूँ... जवान हूँ...
अकेली हूँ... और बाँझ भी। पर गली की नुक्कड़ में जलाई गयी जाड़े
की आग नहीं हूँ मैं... कोई भी आकर ताप ले।”
अब वह दरवाज़े की ओर उसे धकेलती हुई चिल्लाई, “यू गेट आउट। दफ़ा
हो जाओ। अभी, इसी वक़्त।”
वह जाने को हुआ। “रुको,” वह चिल्लाई, “अपने मुँह से लिपस्टिक
पोंछो।” नरेश ने होंठ पोंछ लिए। पर चपत लगे गाल की लाली वह न
पोंछ सका... और निकल गया।
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