बात आगे
बढ़ाते हुए मैंने उस से अपने बारे में कुछ बताने के लिए कहा था।
उसकी आँखें क्षण भर को अतीत के किसी पृष्ठ पर ठहरीं, फिर स्थिर
हो कर वह बोली, ''यह मेरा पहला इंटरव्यू है पर मैं इस नौकरी के
लिए आवश्यक सभी शर्तें पूरी करने में समर्थ हूँ।''
''इस से पहले कहीं काम किया है?''
''अगर बीमार माँ की दिन-रात की देखभाल को आप काम मानें तो काम
किया है।''
''तो यह निजी सहायक (पर्सनल सपोर्ट वर्कर) का कोर्स कब किया?''
वह इसी पद की नौकरी के लिए हमारी ''हैल्थ केयर कंपनी'' में आई
थी।
'' माँ की देख-भाल ठीक से कर सकूँ, इसीलिए यह कोर्स किया था।
अभी कुछ दिन हुए उनका देहान्त हो गया तो सोचा कि क्यों न किसी
और के ही काम आऊँ। स्कूल में आप के दफ़्तर का नाम बताया गया था
सो आवेदन भरा और अब आप के सामने बैठी हूँ।'' यह बताते हुए उसका
चेहरा लाल हो गया था।
''तुम्हारी माँ के लिए मुझे अफ़सोस है।'' मैंने औपचारिकता
निभाते हुए कहा।
उसकी सफेद
आँखों में मेरी काली दुनियादारी ज़रूर चुभी होगी तभी वह कुछ रुक
कर बोली थी, ''मेरी माँ अफ़सोस करने वाली वस्तु नहीं थीं, वह
गर्व करने योग्य महिला थीं।''
मुझे अपनी कहनी पर कुछ संकोच हुआ। बात सँभालने के लिए पूछा,
''उन्हें क्या रोग हुआ था?''
''पुरानी बातें याद करने का और वर्तमान को भूलने का रोग हो गया
था उसे वही जिसे ''अल्ज़ाइमर'' कहतें हैं आप लोग।''
''तुमने तो नर्सिंग कोर्स किया है अपने देश में?'' बात बदलते
हुए और उसके ''रेज़्यूमे'' को देखते हुए मैंने पूछा।
उसकी आँखों
में कई छायाएँ आईं और गईं। आदमीं ज़मीन बदल सकता है, पहनावा बदल
सकता है, संबंध बदल सकता है पर मन का रहस्य खोलने वाली अपनी
आँखें नहीं बदल पाता, मन में छुपी बातें नहीं बदल पाता। ये
बातें मन में चुभे काँटों की तरह होती हैं जिन पर चलते उसकी
भावनाओं के पैर लहुलुहान होते हैं और खून के धब्बे कभी-कभी
उसकी आँखों से झाँक जाते हैं। उसकी आँखों की काली छायाओं के
बिल्कुल विपरीत धूप का एक छोटा-सा टुकड़ा बाहर की पतझड़ी हवा से
बच कर उसकी कुर्सी के पास आकर बिछ गया था।
कभी-कभी किसी
की वेदना उसके समूचे व्यक्तित्व में घनीभूत हो बिना दिखे, बिना
शब्दों के सह्रदय के मन को अपनी ओर खींचती है। शार्त्र के
चेहरे पर वेदना और संघर्ष की बहुत-सी लकीरें खिचीं हुईं थीं और
मेरा मन उन लकीरों में विदेशी भाषा में लिखी उसकी कहानी को
जानने को उत्सुक हो रहा था।
''हाँ, किया था, माँ के कहने पर ही...''
''नर्स के ऊँचे सोपान के बाद ''पर्सनल सपोर्ट वर्कर'' बन कर
कैसा लगता है? क्या फिर से नर्स बनना चाहोगी?'' मैंने उसे
कुरेदा।
'' कुछ नही लगता मुझे, सोपान ऊँचा हो या नीचा, आदमी को केवल
खड़े रहने की जगह चाहिए ताकि वह दुनिया के धक्कों से गिर न
पड़े। आपके दूसरे प्रश्न के उत्तर में यही कहना चाहती हूँ कि
मैं नर्स नहीं बनना चाहती।''
'' ऐसा क्यों?, तुम्हारी कुछ अल्पकालीन या दीर्घकालीन योजनाएँ,
उद्देश्य भी तो होंगे?''
'' मेरे उद्देश्य...'' ठँड़ी साँस ले कर वह बोली, '' मैं बिना
शर्तों के मनुष्य की तरह स्वतंत्र जी सकूँ...बस यही मेरी योजना
है और यही मेरा उद्देश्य।''
मैंने ऐसे उत्तर की आशा नहीं की थी। नौकरी के सक्षात्कार में
इस तरह का भावपूर्ण उत्तर कोई देगा, ऎसी अपेक्षा किसी से कहाँ
की जाती है। पर देखें तो बात सच है। जीने की सबसे बड़ी ज़रूरत
यही है कि मनुष्य मनुष्य की तरह स्वतंत्रता से, इज़्ज़त के साथ
जी सके...। हम पचासों तरीके के सपने देखते हैं, अपने विकास के
नाम पर इन सपनों के पीछे भागते कोल्हू के बैल बन जाते हैं,
स्वार्थों में अंधे हो कर न जाने कितने अनुचित काम करते हुए
अपने को गिराते हैं, अपने किए को उचित सिद्ध करने के लिए
व्यावसायिकता की परिभाषाएँ गढ़ते हैं, बाज़ारी नीतियाँ गढ़ते
हैं, फिर किसी दिन यह गढ़न टूटती है, अतॄप्ति की थकावट से चूर
आत्मा पूछ्ती है, ''क्या तुम मनुष्य हो? मनुष्य की तरह कभी जिए
क्या?'' और हम कहते हैं...''सफल मनुष्य बनने के लिए यह सब करना
ज़रूरी था।'' कहीं से कोई ठठा कर हँस पड़ता है। |