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श्री और कुबेर की शादी के बाद पहली दिवाली आई थी तो मायादास घर की तीनों औरतों के लिए सोने के गहने लाए थे। मिठाई भी खूब आई थी उस बार। लट्टू ने भी पड़ोसियों को ठेंगा दिखाते हुए, खिड़कियों पर दो महीने पहले ही, क्रिसमस की रोशनियाँ लगा कर दिवाली की तैयारी कर दी। यह बात अलग थी कि श्री तब शिकॉगो में रेज़ीडेंसी कर रही थी और दिवाली उसके बिना ही हुई। फिर पता नहीं कब धीरे-धीरे उपहारों का यह सिलसिला बंद हो गया। मायादास शायद इस बार भी कोई उपहार नहीं लाए।
''क्या बनाया है आज खाने को?'' मायादास ने लक्ष्मी की ओर मुँह करके पूछा।
''मैंने तो बस दोपहर को दाल ही रख दी थी।'' लक्ष्मी ने बड़ी बेचारगी के साथ कहा। उससे अब खड़े होकर काम नहीं होता।
''आते वक़्त हमने एडीसन से मिठाई के साथ-साथ थोड़े नान और मटर पनीर की सब्ज़ी भी उठा ली थी। तू फ़िक्र न कर। आज दिवाली है न।''
वह किसी भी तरह से यह बात महसूस करना चाहते थे या करवा देना चाहते थे कि आज ख़ास दिन है।

लक्ष्मी वहीं उनके पास बैठ गई। चुपचाप सेब काटने शुरू कर दिए। जब यहाँ आने के तीन साल बाद ही उन्होंने यह घर ख़रीदा था तो कितना उत्साह था उसमें। दिवाली पर उसने अपने तीनों भाइयों को सपरिवार आमंत्रित किया था। दो दिन बाद भैया-दूज भी थी न, कहा कि 'टीका' भी लगवाते जाना। उन दिनों खुशी के मारे उसके ज़मीन पर पाँव नहीं पड़ते थे। सोच-सोच कर हैरान होती, इतना बड़ा घर उसका है? पिछवाड़े कभी-कभी हिरण भी दिख जाते। वह उनके लिए बासी बचा हुआ खाना डाल आती और बेतरतीब फैला हरा फैलाव देख कर सोचती, इतना सारा जंगल हमारा है? ड्राइव-वे में खड़ी चारों कारों को देख कर पूछती, ''हाय राम! यह सारी कारें हमारी ही हैं क्या?''

वह अभी तक सौ हज़ार डॉलर को, लाख डॉलर ही कहती। उसे लाख रुपया अब बड़ी मामूली-सी चीज़ लगता था- सिर्फ़ ढाई हज़ार डॉलर्स। वह सब को बुलाकर अपना नया-नया वैभव दिखाना चाहती थी। पर उसे लगता कि उसके भाई और भाभियाँ उससे प्रभावित ही नहीं होते थे। शायद वह उससे पहले के यहाँ आए हुए थे, इसी बात को लेकर उनमें एक अहं का भाव था। उसे अमरीका बुलाया भी तो बड़े भाई ने ही था, वह इस बात को कब का भुला चुकी थी।

उस दिन बड़े भाई ने ही पूछा था, ''लक्ष्मी तुझे अमरीका पसंद है न?''
''हाँ, मुझे तो बहुत पसंद है। कितनी साफ़ जगह है। यहाँ न मिट्टी है न धूल। पानी, बिजली सब काम करते हैं। भगवान की दया से पैसे की भी कोई कमी नहीं है हमें।''
''हर चीज़ के लिए कीमत देनी पड़ती है बहन जी।'' बड़ी भाभी ने पता नहीं क्या सोच कर कहा।
''क्यों, हमें यहाँ भला किस बात की कमी है?'' लक्ष्मी ने चिढ़ कर पूछा।
''हिंदुस्तान में होते तो अब तक सब बच्चों की शादी हो जाती।'' भाभी ने फिर से दाग़ दिया।
लक्ष्मी और मायादास दोनों के मुँह का स्वाद कसैला हो गया।
''शादी होने में कौन-सी देर लगती है, बस पास रोकड़ा होना चाहिए। कुबेर की जो बहू आएगी, उसने नोट ही तो गिनने हैं आकर।''
''पैसा'' उनके पास एक ऐसा ट्रंप कार्ड था जिससे वह हर चीज़ को मात देने की सोचते थे।

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गैराज का दरवाज़ा खुलने और फिर बंद होने की आवाज़ आई। कुबेर घर के भीतर आ चुका था। दायें हाथ से टाई उतारते हुए उसने मनी को आवाज़ लगाई।
''बहुत भूख लगी है। मनी, जल्दी से खाना डाल दे।''
मनी ने फ़ुर्ती से खाना माइक्रोवेव में गर्म किया और काग़ज़ की प्लेटें और प्लास्टिक के चम्मच सब के आगे रख दिए। सभी चुपचाप खा रहे थे, सिवाय मनी के। एक पिटे हुए रिकार्ड की तरह उसकी शिकायतें पृष्ठ-भूमि में चल रही थीं।
''दिवाली है, कोई और तो घर में दिलचस्पी लेता नहीं। मैं अकेली क्या-क्या करूँ?''
उसकी बातों को बिल्कुल अनसुना कर लक्ष्मी बोली, ''जा मनी, मंदिर में जाकर ज़रा पूजा की तैयारी तो कर दे। हम अभी आते हैं। आख़िर दिवाली की पूजा तो करनी है न।''

रसोई के बायीं ओर, मंदिर वाले कमरे में जाकर सभी बैठ गए। चाँदी की बड़ी-सी थाली में, सात चाँदी के ही दीये जगमगाने लगे। जयपुर से ख़ास लाई गई संगमरमर की मूर्तियाँ, उनके लिए ज़री के वस्त्र, सोने का पानी चढ़े आभूषण और लाल रंग का सिर्फ़ पूजा के लिए ही रखा गया कालीन। मायादास विभोर हो गए। दीवार के साथ टेक लगा कर कुबेर लट्टू चुपचाप, थके हारे से बैठ गए। लक्ष्मी से अब ज़मीन पर बैठा नहीं जाता। उसने बायीं टाँग सीधी ही रखी, घुटना मोड़ने से दर्द उठता था। पति से बोली, ''ज़रा इन गणेश-लक्ष्मी के सिक्कों को दूध से धोकर, केसर और चावल का तिलक तो लगा दीजिए।''
उसने मिठाई का डिब्बा खोल कर रख दिया। लक्ष्मी ने आँखें बंद करके आरती करनी शुरू कर दी। कमरे में लैंप की रोशनी बहुत धीमी थी, आऱती के दिये की लौ काँप-काँप जाती। मनी सबसे पीछे जाकर, बड़े से तुलसी के ग़मले के पास जाकर बैठ गई। पहले हर दिवाली को उसके मन में एक उम्मीद की कंपकंपाहट होती थी। शायद, अगली दिवाली पर कोई दूसरा घर हो और वह खुद गृहलक्ष्मी हो। लाल साड़ी मे गहनों से झिलमिलाती वह किसी की तरफ़ यों ही प्यार से देखे और कहे, ''ज़रा गणेश-लक्ष्मी जी को तिलक तो लगा दीजिए।''
उसने आँखें बंद की हुई थीं और आज उस ख़याल की एक छोटी-सी झलक भी अंदर नहीं तिरी। कितनी दीपावलियाँ बीत गई- यों ही इस घर में। उसने सीने से एक हल्की-सी कराहती-सी साँस उठी और फिर वहीं हल्के अँधेरे में सिमट गई।

लट्टू की आँखें दियों पर टिकी थी, वैसी ही एक चमक उसकी अपनी आँखों में भी थी। पापा ने आज कार में लौटते वक़्त कहा था, ''लट्टू तू छत्तीस का हो गया तो उससे क्या फ़र्क पड़ता है? इंडिया जाकर चौबीस-पच्चीस सालकी किसी सुंदर-सी लड़की से तेरी शादी करा देंगे। बस, पास पैसा होना चाहिए, लोग छोटी-छोटी लड़कियाँ भी ब्याह देते हैं।''
लट्टू के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उसने अपने हल्के होते हुए बालों पर उस्तरा फिरवा कर, सिर बिल्कुल ''क्लीन-शेव'' करवा लिया था। उसने सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े फ़िल्मी अंदाज़ से, गर्दन को थोड़ा टेढ़ा किया। अचानक उसे ध्यान आया कि मलीसा फ़ोन का इंतज़ार कर रही होगी। वह ऊपर भागा। कुबेर ने महसूस किया कि श्री कभी दिवाली पर यहाँ नहीं होती। असल में कभी भी नहीं होती। बस महीने में दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर भागती-दौड़ती आती है, ऐसे ही सब कुछ बेतरतीब से फैला कर, फिर वैसे ही वापस लौट जाती है। यहाँ होती तो शायद माँ आज की पूजा उससे करवातीं। पता नहीं, तब मनी को कैसा लगता? श्री तो उम्र में मनी से भी दो साल छोटी है। उसने गहरी नज़र से मूर्तियों को देखा, या शायद नहीं। ज़रा-सा प्रसाद मुँह लगा कर वह उठ गया।
''मुझे नींद आ रही है, सुबह फिर जल्दी उठना है।'' उसने धीरे से कहा।
''लो, अब यह इतनी सारी मिठाई कौन खाएगा?'' लक्ष्मी ने शिकायत के लहजे से कह तो दिया, फिर लगा नहीं कहना चाहिए था। मायादास और लक्ष्मी की आँखें मिलीं और वापस जाकर मक्खन का पेड़ा हाथ में उठाए, बाल-गोपाल की तस्वीर पर ठहर गईं।
दोनों पति-पत्नी वहीं टिमटिमाते दियों की काँपती रोशनी में चुपचाप बैठे रहे। मनी का जाना न किसी ने देखा और न महसूस ही किया। मायादास के कानों में कहीं बहुत दूर दिवाली के बम फूटने की आवाज़ें गूँज रही थीं। अमावस्या की रात में उनके मन में जैसे रोशनी की इच्छा ने सिर उठाया।
''अगली दिवाली हिंदुस्तान में मनाएँगे। सभी जाएँगे। बस, पास रोकड़ा होना चाहिए।''
मोम के दीयों की लौ चटखने लगी थी। अपनी आवाज़ के इस अजनबी खोखलेपन सेवह खुद ही घबरा गए। लक्ष्मी मुँह बाये उनकी ओर देखती रही।

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बिस्तर की ओर बढ़ते हुए कुबेर का पाँव किसी चीज़ में अटक गया। अँधेरे में ही हाथ बढ़ा कर उसने उठा लिया। श्री की साड़ी थी, जो लापरवाही से वह यों ही कुर्सी पर फेंक गई थी। उठा कर वापस रखते हुए उसका हाथ रुक गया। उसने धीरे से उठा कर, उसे अपने पलंग के सिरहाने पर रख दिया, वहाँ, जहाँ आने पर श्री सिर रख कर सोया करती थी।

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1 नवंबर 2007

 
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