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डाल–डाल फूल पत्तियों से सजा,
गरमियों के इन दो तीन महीनों में पूरा का पूरा यूरोप कुछ और ही
निखर जाता है... दुल्हन–सा सँवर जाता है। यों तो यहां भी वही
धरती, आकाश, हवा, पानी सब वही हैं, बस रंग ही कुछ और ज़्यादा
शोख और चटक हो जाते हैं... आदमियों के ही नहीं... धरती, आकाश,
फूल पत्ती सभी के। घास कुछ और ज़्यादा हरी दिखने लगती है और
आसमान व समंदर कुछ और ही गहरे और नीले।
फिर वैनिस तो एक रूमानी शहर है। आकाशचुंबी इमारतों की गोदी में
इठला–इठलाकर बहती नदी और मैंडेलिन व बैंजो की सुरीली धुनों पर
हंसों से गर्दन उठाए बहते गंडोले। मंत्रमुग्धा रेशमा खुद भी तो
नदी–सी ही मचल रही थी मोहित की बाहों में सिमटने को, परंतु
मोहित तो उड़ते बादलों–सा उसकी पहुँच से दूर जा छिटका था, अपने
ही ख्यालों में खोया–डूबा।
कैसा होता अगर रेशमा की जगह स्पंदन होती आज बगल में, पत्नी के
रूप में मुस्कुराती – सोच की पुलक तक ने सिहरा दिया था उसे।
स्पंदन, जिसके मात्र कमरे में आ जाने से उसका मन शांति,
आत्मीयता और ठहराव के शिखर पर जा बैठता था, कितनी दूर चला आया
है आज वह उससे... महकती हवा में बादलों–सा आवारा उड़ता खो चुका
था वह ऑॅफ़िस के उन दिनों में जब वह और स्पंदन पूरे–पूरे दिन
साथ हुआ करते थे। |