| रामशरण सात वर्ष बाद वापस स्वदेश 
जाने वाला है। एक नया उत्साह उसके मन में है। अनेक वर्षों से वह प्रयासरत है कि 
स्वदेश वापस जाए परंतु कोई न कोई आवश्यक कार्य उसके परिवार में निकल आता और वह 
चाहकर भी न जा पाता। कभी गाँव में पक्का घर बनाना होता, कभी गिरवी खेत महाजन से 
छुड़ाने होते तो कभी भाई-बहनों के स्कूलों की फीस देनी होती। वह बड़े भाई होने का 
फर्ज़ बखूबी निभाता रहा है। पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ा है वह।  जब वह विदेश आया था तब उसने खेत 
गिरवी रखे थे। उसे अतीत की सभी बातें स्मरण हैं। वे भी दिन थे जब विदेश भेजने के 
लिए एजेंट ने उससे पूरे पाँच लाख रुपए लिए थे। जब पड़ोस में उसका हम-उम्र दिलीप 
सिंह विदेश जा सकता है, जो पाँचवी जमात तक पढ़ा था, तो वह तो बी.ए. पास है और ट्रक 
चालक भी है फिर वह क्यों विदेश नहीं जा सकता। वह अक्सर तुकबंदियाँ करता और विदेश 
जाने के पूर्व कहता, "आसी भी जावांगे परदेश, 
बनकर आवांगे अंग्रेज़,
 उठा के सोटी लाले नु मारां, 
पैसे उसके मुख पे मारां
 ऊँचा जो मकान बनावां, 
गाँव मे अपनी टोर बधावां"
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