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उनके पाकिस्तानी मित्र अक्सर मंजू़र अली के बारे में बातें करते कि वे स्कॉलरशिप ले कर आए हैं, पढ़ने में तेज़ हैं और शायद किसी डिग्री कॉलेज के प्रिंसिपल के दामाद भी हैं। जब कि उन्हें अपनी जेब से फ़ीस देनी होती है इ़स बातचीत में कभी-कभी हल्की-सी ईर्ष्या भी छिपी रहती। सुधाकर भी सोचते रहते कि एक दिन उनसे कहेंगे कि भाई हम दोनों पास में एक ही मुहल्ले में रहते हैं तो कभी आप मेरे घर आइए।

इसी इरादे से एक दिन सुधाकर उनके घर गए, पर वह घर पर नहीं थे अत: एक नोट छोड़ कर चले आए। दो एक दिन इंतज़ार किया पर उनकी तरफ़ से कोई जवाब न आने पर सोचा शायद नए हैं उन्हें कुछ झिझक होगी। एक बार यह भी सोचा कि हो सकता है एक हिंदू से मिलने में उनका पाकिस्तान आड़े आ रहा होगा। याद आया दो साल पहले बंगला देश एक सेमिनार में गए थे, एशिया से आए सब लोगों को एक ही होटल में ठहराया गया था, सुबह नाश्ते के लिए जब वे सब इकठ्ठे हुए तो एक पाकिस्तानी महिला ने कहा कि चलते वक्त उन्हें कहा गया था कि किसी हिंदू से बात न करना। अपना परिचय देते हुए सुधाकर ने कहा, "चलिए एक हिंदू से तो आपने बात कर ही ली।" हम सब हँसते हुए चले गए। गरज कि बातें तो रोज़ ही होतीं थीं तब यह भी मालूम हुआ कि वे साल में दो बार दिल्ली शापिंग के लिए आती हैं। हिंदी फ़िल्में देखने का बेहद शौक है, अमिताभ बच्चन की फ़ैन है और अभी लड़की की शादी करेंगी तो फिर भारत जाएँगी। सुधाकर ने उनसे मज़ाक किया, "बात तो आपने कर ही ली अब दिल्ली में मेरे घर भी आइएगा।" सुधाकर के मन में यह भी हिचक थी। कुछ वे यूनीवर्सिटी के काम में व्यस्त हो गए, सोचा देखा जाएगा अभी तो वह तीन साल रहेंगे। फिर कभी सही।

सोमवार का दिन था, सुधाकर की कई क्लासेज़ होती थीं, वह काफ़ी थक गए थे अत: पढ़ते-पढ़ते कुर्सी पर ही सो गए। एकाएक फ़ोन की घंटी बजी। नींद से परेशान थे फिर भी फ़ोन उठाया और पूछा,
"कौन है क्या बात है।"
"सर मैं लीडस पुलिस ऑफ़िसर बोल रहा हूँ। क्या आप इस समय लीडस पुलिस स्टेशन आ सकते हैं?"
"सर क्या बात है क्या आप सुबह तक इंतज़ार नहीं कर सकते।"
"सर एक मुजरिम है जो आपका नाम ले कर कह रहा है कि वह आपसे बात करना चाहता है।"

अब मेरी नींद एकदम उड़ गई। रात के ग्यारह बजे हैं मन में उलझन हुई कौन हो सकता है, क्या बात है। मेरा नाम जानता है अत: मेरा परिचित ही होगा। इसी ताने बाने में उलझता उठा, कपड़े बदले, बाहर गज़ब की ठंड थी, तीखी बर्फ़ीली हवा दस्ताने और टोपे के बावजूद सारे जिस्म में अकड़न पैदा कर रही थी। गाड़ी बाहर निकाली और रवाना हो गया।

यों तो मुझे अकसर ही पुलिस स्टेशन से बुलाते रहते थे। कई बार मुजरिम की बात नहीं समझते थे। बहुत बार उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती थी। शिक्षक कितना भी गया गुज़रा हो पर जब सस्ते या मुफ़्ती काम कराने हों तो एकाएक उसके अख़लाक में बढ़त हो ही जाती है। मैं भी सोचता चलो इसी बहाने कुछ समाज सेवा हो जाती है। पहले कई बार ऐसा भी हुआ है कि कुछ लोगों ने ग़लत अनुवाद कर दिया, या फिर ज़ुर्म को कुछ का कुछ बना दिया, जिससे बाद में पुलिस तथा मुजरिम दोनों को ही बड़ी परेशानी उठानी पड़ी, अत: जब तक मैं जाने को तैयार हूँ वे मुझे ही बुलाना पसंद करते हैं।

मैं अभी वहाँ पहुँचा ही था कि एक कॉन्स्टेबल आया और बड़े ही अदब से मुझे एक कमरे की तरफ़ ले गया, और कहने लगा, ''सर बड़ा अजीब आदमी है, मैंने बहुत कहा कि तुम तो पढ़े लिखे आदमी हो तुम्हें एक वकील की ज़रूरत है। पर मान नहीं रहा था तो चीफ़ कॉन्स्टेबल ने कहा कि आपको फ़ोन करूँ इसीलिए आपको तकलीफ़ दी।''
मैंने कहा, "चलो देखता हूँ क्या बात है, क्या करना है।"

अनमना-सा मैं कुछ खीझा-सा जेल की कोठरी के दरवाज़े पर खड़ा ही हुआ था कि एक आदमी जो बाहर की तरफ़ पीठ कर के खड़ा हुआ था, एकाएक मुड़ा। मैंने देखा तो सकते में आ गया। मंजू़र अली के चेहरे पर ज़लालत और दु:ख के धब्बे फैले थे। आँखों की रोशनी बुझी हुई थी। वह हाथ जोड़ कर बोले, "आप को क्या बताऊँ, भाई जान, आप किसी तरह मुझे यहाँ से छुड़ा लीजिए, मैं आपको सारा वाक्या सच-सच बता दूँगा।" मैं बड़े चक्कर में पड़ गया, क्या करूँ। जिसे मैं जानता भी नहीं उसकी ज़मानत कैसे ले लूँ।

अंदर ही अंदर मेरे मन में एक तरह की झुँझलाहट भी हुई। पहले तो कभी नहीं याद किया, आज इस तरह के धर्म संकट में फँसा दिया। फिर भी मन को शांत कर मैंने कहा, "मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ। अगर आप चाहें तो मैं आप के किसी दोस्त को ख़बर कर दूँ।"
"नहीं नहीं, मैं नहीं चाहता कि आप किसी को ख़बर करें। भाईजान, मैं बेकसूर हूँ जैसे भी हो आप मुझे यहाँ से ले चलिए।" एकाएक गिड़गिड़ाते हुए मंजू़र अली बोले।

जिस छोटे से कमरे में उन्हें रक्खा गया था, वहाँ ज़मीन पर एक छोटा-सा कंबल बिछा था, सीमेंट की ठिठुरती ज़मीन, कोने में एक स्टील की कुर्सी, कुछ खाना एक प्लेट में पड़ा था। वास्तव में ऐसे कमरों में ज़ुर्म साबित होने के पहले तक ही रखते हैं। मंजू़र अली अपने कपड़ों में ही थे फिर भी यह जानलेवा सर्दी और ज़मीन पर बैठना, मैं काँप उठा। मैंने सोचा जैसे भी हो कुछ तो करना ही होगा। जिस कॉन्स्टेबल ने मुझे बुलाया था मैं उसके पास गया और कहा,
"क्या ज़रूरी काम करना होगा, आप काग़ज़ात तैयार कर दें मैं इनकी बेल ले लूँगा। मैं दस्तख़त कर देता हूँ, अगर हो सके तो मैं इन्हें अपने साथ ले जाऊँगा। पर मुझे बताइए आख़िर हुआ क्या था, किस ज़ुर्म में आप इन्हें यहाँ लाए थे।"
वह बोला, "सर चोरी का इल्ज़ाम है, सेल्स गर्ल ने इन्हें स्टोर के बाहर सामान के साथ पकड़ लिया, और फिर पुलिस को बुलाया।"
मैंने पूछा, "कुछ खाने को दिया है? सुबह से भूखा ही रक्खा है?"
"दिया है सर, पर सब वैसा ही पड़ा है कुछ खाना छुआ भी नहीं।"
मैंने कहा, "ज़रा जल्दी कर दीजिए अगर काग़ज़ात तैयार हों तो मैं दस्तख़त कर दूँ।" इसी बीच मैं ऑफ़िस में आकर बैठ गया।

मैंने सोचा अब कुछ भी हो जब ज़मानत ली है तो आगे भी देखना ही पड़ेगा। लेकिन मन के एक कोने में तरह-तरह की बातें आ रही थीं। छोड़ दूँ जैसा किया है वैसा ही फल भोगें, इनके इतने पाकिस्तानी फ्रेंड हैं फिर मुझे इस कीचड़ में फँसने की क्या ज़रूरत, अभी अगर इसलाम की बात आ जाए तो देखिए इनके तेवर, तब ये सारी इंसानियत को भूल जाते हैं। जैसे धीरे से सर उठा कर कोई डंक चुभा गया हो, सुधाकर तुम भूल गए तुम्हारे छोटे भाई की बीमारी में सारा गाँव दूर खड़ा था। तुम्हारे पापा कैसे असहाय होकर सहायता के लिए सबकी तरफ़ देख रहे थे तब किसने उनकी मदद की थी, मियाँ गुलाम रसूल, वह भी तो मुसलमान ही थे। मैंने जैसे खुद से ज़िद की हाँ हाँ की तो थी पर तब तो सारा हिंदुस्तान एक था, वह तो बात ही और थी। पर अब तो हम सब अलग-अलग हैं। सारी तहज़ीब, सारा इतिहास सब तो इन्हीं का है। कहते हैं कि महमूद ग़जनी के पहले कोई इतिहास तुम्हारा नहीं था, अभी उसी दिन भाटिया कह रहा था कि पब में सब अपनी-अपनी हाँक रहे थे सरदार भी उसमें शामिल थे तो कोई पाकिस्तानी बोला कि भाई मैंने तो काउंसलर से कह दिया कि हमारा मज़हब हमारी तहज़ीब तुमसे बिलकुल अलग है। हमें अलग स्कूल चाहिए, हमारी लड़कियाँ तुम्हारी लड़कियों के साथ बिगड़ जाएँगी। भाटिया बोला, ''मैं तो वहाँ से हट गया तो कहता है कि ये साले हिंदू, अरे! जब जूते खाने होते हैं तो आगे हम जाते हैं और जब लेने का मौका आता है तो ये कटोरा लेकर सब से आगे पहुँच जाते हैं। अब ऐसी सोच वाले लोगों का कोई क्या कर सकता है। सुधाकर अभी यह सब सोच रहे थे कि कॉन्स्टेबल आकर सामने खड़ा हो गया। बोला,
"सर आप दस्तख़त कर दीजिए।"
सुधाकर एकदम चौंक गए। फिर बोले, "अच्छा लाइए।" और दस्तख़त कर के दे दिया।

इसके बाद मैं मंजू़र अली को अपने साथ गाड़ी में लेकर बैठ गया। मंजू़र अली चुपचाप गाड़ी में बैठ गए। सब कुछ करते कराते दो घंटे तो निकल ही गए होंगे। मैं भी क्या कहता जो रास्ता आधे घंटे चालीस मिनट का था वह आज न ख़तम होने वाला बन गया। मैंने एकाध बार कोशिश भी की कुछ बात चलाने की लेकिन उनके चेहरे की उदासी देखकर हिम्मत पस्त हो गई। घर पहुँच कर मैंने दरवाज़ा खोला और उन्हें अंदर आने को कहा, कुरसी खिसका कर उन्हें बैठने का संकेत करते हुए कहा,
"आप बैठिए मैं चाय बना कर लाता हूँ।" मैं अंदर चाय बनाने चला गया, और रसोई घर में धीरे-धीरे समय बिताने के लिए चाय के कप, दूध, चीनी वगैरह ट्रे में रखने लगा। मुझे लगा कि मंजू़र अली को दस पाँच मिनट अकेले में खुद को सम्हालने के लिए चाहिए। पानी खौल-खौल कर गिर रहा था कि मैं मंजू़र अली की खाँसी से चौंक गया। अरे कितनी देर हो गई। मैं चाय के साथ खाने के लिए कुछ बिस्कुट भी लाया। चाय बना कर उन्हें दी और कहा,
"आप चाय पीजिए और कुछ थोड़ा-सा खा भी लीजिए।" मैं अपनी चाय लेकर उनके पास की कुरसी पर बैठ गया।

अजीब उदास सहमा-सहमा माहौल था। मंजू़र अली ने चाय का कप ले लिया और धीरे-धीरे चाय पीने लगे। उनकी आँखों में एक भयानक सन्नाटा देख कर मैं घबरा गया। धीरे से कहा, "आप इस कदर परेशान न हों," कमरे की तरफ़ इशारा किया और कहा, "रात काफ़ी जा चुकी है आप सो जाइए, लेकिन अगर आप इसी समय बात करना चाहते हों जिससे आप का मन थोड़ा हल्का हो जाए तो अभी ही बात करें।"
"भाईजान आप तो मुझे गुनहगार नहीं समझते।" बड़ी ही कातर आवाज़ में बोले।
"अगर ऐसा होता तो मैं आपकी ज़मानत क्यों लेता, ऐसा लगता है कि कहीं कोई ग़लतफ़हमी या गड़बड़ी है, मुझे पूरा यकीन है कि हम दोनों मिल कर इसे ठीक कर लेंगे।" उन्हें भरोसा दिलाते हुए मैंने कहा।

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