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कहानियाँ  

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से
तेजेंद्र शर्मा की कहानी अपराधबोध का प्रेत


उसने यह बात सोची ही कैसे?
क्या ऐसे कुत्सित विचार का दिमाग में आना ही उसे अपराधी नहीं बना देता? रक्त बोतल में से बूँद-बूँद टपककर अब भी नली में से होता हुआ सुरभि की शिराओं में जज़्ब हुए जा रहा था। उसके चेहरे पर लगा हुआ ऑक्सीजन नकाब निरंतर ऑक्सीजन उसके शरीर में पहुँचा रहा था. . .यही ऑक्सीजन सुरभि की साँसों को किसी भी तरह थामे हुई थी, परंतु नरेन! नरेन को लग रहा था जैसे कोई अज्ञात शक्ति उसका गला दबाए जा रही है. . .उसकी आवाज़ उसके तालू के साथ चिपककर रह गई है। उसकी जीभ आवाज़ क़ो बाहर निकलने ही नहीं देना चाहती। आख़िर ऐसा गिरा हुआ वीभत्स विचार उसके मन में आया कैसे! उसके पास तो जीवित रहने का कोई भी कारण नहीं बचा है।
''नरेन, आज तुम्हारे लिए मूली के परांठे बनाकर लाई हूँ।'' सुरभि ने अपनी आवाज़ की खुशबू बिखेरी।
''तुम टिफ़िन में थोडा ज़्यादा खाना लाया करो ना। मैं तो तुम्हारा सारा टिफ़िन खा जाता हूँ। और तुम्हें बाज़ारी छोले-भटूरे खाने पडते हैं।''
''जानते हो, तुम खाते हो तो मुझे कितना सुख मिलता है। अगर ज़्यादा लाऊँगी तो माँ पूछेगी नहीं कि किसके लिए ले जाती हूँ। मुझसे झूठ नहीं बोला जाता।''
''इतना प्यार करती हो मुझे?''

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